तिरस्कार का पुरस्कार – कमलेश राणा

नारी तुम केवल श्रृद्धा हो, विश्वास रजत नग पद तल में। 

पीयूष स्त्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में। 

 जयशंकर प्रसाद की कामायनी में कही गई ये पंक्तियाँ जीवन में नारी के महत्व और परिवार को सुचारु रूप से चलाने में उसकी भूमिका को दर्शाती हैं पर इसके लिए उसे परिवार का सहयोग, सम्मान और प्यार की जरूरत होती है। अगर उपेक्षा मिले तो वह टूट जाती है पारिवारिक तिरस्कार उसे कुंठित कर देता है। रूपा की कहानी इस बात का साक्षात प्रमाण है।

रूपा के पिता बड़े बिजनेसमैन हैं। घर में नौकर चाकर हर तरह की सुख सुविधा के बीच पली बढ़ी छः भाई बहनों में सबसे छोटी रूपा हमेशा से ही अपने आप में मस्त रहती। न तो उसने कोई काम सीखने की जहमत उठाई और लाड़ प्यार में किसी ने कभी कुछ कहा भी नहीं उससे। 

जब ब्याह कर ससुराल आई तो यहाँ भी बड़ा परिवार मिला उसे। कभी कुछ किया नहीं था तो हर काम बिगड़ जाता और सबकी जली कटी सुनने को मिलती। उसका हर काम होता ही ऐसा था कि किसी को पसंद नहीं आता पर वह अपने में कोई सुधार करने की कोशिश भी नहीं करती पर मायके का अल्हड़पन गृहस्थ जीवन की सुघर गृहणी में बदलने पर ही सम्मान भी मिलता है और जीवन भी तभी सुचारु रूप से चलता है। 



उसके चलने पर, कपड़े धोने पर, खाना बनाने से लेकर बातें करने तक पर हर कोई टोक देता। बहुत कोशिश करती वह सामान्य रहने की पर नहीं रह पाती। किसी से मजाक कर के हंस भी दे तो सामने वाले की भृकुटि टेढ़ी हो जाती मानो कोई गुनाह कर दिया हो उसने और उसकी मुखमुद्रा देखकर रूपा के गालों पर खिले गुलाब मुरझा जाते। बेशऊर का ठप्पा लग गया था उस पर जिससे बाहर निकलना उसके वश के बाहर था। 

पर अब उसने ठान लिया कि इस छवि से निकलने के लिए वह हरसंभव प्रयास करेगी। उसने अन्य महिलाओं की गतिविधियों का बारीकी से निरीक्षण शुरू किया कि उनकी तारीफ किस कारण से की जाती है और अब वह उसी तरह की बातें करने की कोशिश करती। 

पर अफसोस!!! नकल के चक्कर में वह एक बार फिर हास्य की पात्र बन जाती और वह निरीह आँखों से उनकी आँखों में झांकने की कोशिश करती। उसके मुँह से तो शब्द नहीं निकलते पर उसकी आँखें जरूर यह पूछती प्रतीत होती,, अब क्या किया मैंने? मेरी कोई बात कभी सही क्यों नहीं होती ? क्या मेरे भाव नहीं दिखते किसी को? क्या मुझे खुश रहने का अधिकार नहीं? क्या मैं सचमुच बुरी हूँ? क्यों कोई खुश नहीं होता मुझसे? 

कभी तो कुछ अच्छा भी होता होगा मुझसे उसकी प्रशंसा क्यों मेरे भाग्य में नहीं? क्या दिखावा छल कपट ही स्वीकार्य है इस दुनियाँ में? क्या यही लोक व्यवहार है? सीधे सच्चों की दुनियाँ में कोई कदर नहीं। 

उसके दिल की चीत्कार विनय को व्यथित करती। इतने तिरस्कार को कोई कितने दिन सह सकता है और जिस दिन इसकी सीमा समाप्त होगी उस दिन???? 

उसके पति विनय ने इस बात को महसूस किया कि अगर अधिक समय तक यह सब चला तो वह अवश्य ही अवसादग्रस्त हो जायेगी फिर उनकी गृहस्थी और बच्चों का क्या होगा? और किसी को तो कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था सब अपने आप में मस्त थे यहाँ तक कि उन्हें तो इस बात का अहसास तक नहीं था कि उनका व्यवहार किसी के हँसते मुस्कुराते जीवन को दीमक की तरह चाट रहा है। 



 विनय ने फैसला किया कि वह रूपा का साथ देगा। उसने कुछ दिनों के लिए रूपा को मायके भेज दिया और कुकिंग क्लास जॉइन करा दी।उसने रूपा की माँ को सारी बातों से भी अवगत करा दिया। वहाँ नये नये लोगों से मिलकर रूपा का मन बंटने लगा, हर दिन नई डिश सीखती और घर आकर बनाती। सब उसकी तारीफ करते इससे उसका आत्मविश्वास बढ़ने लगा। 

शाम को माँ भाभी के साथ उसे कभी मूवी कभी मॉल भेज देतीं वहाँ उसकी नजर लोगों के पहनावे, चाल ढाल, बातचीत के तरीके पर रहती और वह उनको धीरे धीरे अपने जीवन में ढालने लगी।इसके फलस्वरूप उसके पहनावे में भी सुरुचि और शालीनता झलकने लगी । उसकी भतीजी को पढ़ाने के लिए एक टीचर आती थी उससे उसने इंग्लिश बोलना भी सीखना शुरु कर दिया। माँ के प्रोत्साहन पर यह सब कुछ इतने नॉर्मल तरीके से चल रहा था कि खुद रूपा भी नहीं समझ पाई कि किस तरह एक विश्वास से भरपूर नई रूपा उन सबके सामने थी। 

दो महीने बाद जब विनय उसे लेने आया तो उसका नया रूप देखकर भौंचक्का रह गया यही तो थी उसके सपनों की राजकुमारी। अब घर में भी उसकी स्थिति अलग थी उसकी देवरानी जेठानी नये नये व्यंजन सीखने के लिए उसके आगे पीछे घूमती। हवा का रुख बदल गया था अब वे रूपा जैसा बनने की कोशिश करतीं थीं और यह सब संभव हो पाया था उसके पति और माँ के सहयोग से। 

एक तरह से यह उसके तिरस्कार का पुरस्कार था सोना आग में तप कर ही निखरता है यह बात रूपा ने सिद्ध कर दी थी।

#तिरस्कार

कमलेश राणा

ग्वालियर

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