सुबह का भूला… – करुणा मलिक : Moral stories in hindi

साक्षी बेटा , कल गाँव तुम्हारे बाबूजी के पास गई थी । भइया  तो सचमुच भाभी के जाने के बाद एकदम से बहुत कमज़ोर और बूढ़े दिखने लगे हैं । 

हाँ बुआ जी , शरद हमेशा ही वीडियो कॉल पर बातें करते हैं पर क्या करें ? अम्मा की तेरहवीं के बाद हमने बाबूजी को कितना कहा कि हमारे साथ चलकर रहे । उन्होंने तो ज़िद ही पकड़ ली थी कि अम्मा की बरसी से पहले घर के दरवाज़े बंद नहीं करेंगे । 

 सो तो है बेटा ! दो दिन रही वहाँ पर भइया को देखकर मन भर उठता था । जब चलने लगी तो उनकी नम आँखें देखी नहीं गई । बड़ी मुश्किल से एक साल पूरा होने को है । पंडित जी से हवन के बारे में पूछ लिया । आज से ठीक दो महीने बाद की तारीख़ है। तुम लोग अपनी टिकटें करवा लेना । 

बुआजी, मैं सोच रही हूँ कि आठ-दस दिन पहले आ जाएँगे क्योंकि हवन के बाद तो दो-चार दिन बाद ही निकलना पड़ेगा, बच्चों के फ़ाइनल एग्ज़ाम हैं । अच्छा, एक बात तो बताइए बुआजी, क्या दोनों बच्चों का आना ज़रूरी है हवन के लिए? 

बेटा, यहाँ बात ज़रूरी या ग़ैरज़रूरी नहीं है । भइया को अच्छा लगेगा । फिर उनकी दादी का आख़िरी हवन है , ले आना । रूपया- पैसा तो आना-जाना होता है । हाँ , ये भी सही है कि टिकट में लाखों रूपया लगता है ।

नहीं-नहीं बुआजी, बात रूपये की नहीं हैं । मैं तो इसलिए कह रही थी कि आजकल मेरी मम्मी यहीं कनाडा में हमारे पास आई हुई है । बच्चे उनके पास रुक जाते । पर  आपने ठीक कहा कि बाबूजी को अच्छा लगेगा, मैं उन्हें लेकर आऊँगी ।

इस तरह साक्षी ने बुआ सास के साथ सास की बरसी पर जाने का प्रोग्राम बना लिया और निश्चित समय पर पति तथा बच्चों के साथ इंडिया पहुँच गई ।

शरद और साक्षी ने बच्चों के साथ बाबूजी की हर एक छोटी से छोटी इच्छा का ध्यान रखते हुए बरसी का हवन संपन्न किया । दो दिन रहने के पश्चात साक्षी ने बुआजी की सहायता और मार्गदर्शन में घर का सामान समेटना शुरू कर दिया । पहले तो बाबूजी ने जाने में आनाकानी की पर बहू- बेटा और पोते- पोती तथा विशेष रूप से बुआजी की सलाह मानते हुए कनाडा जाने के लिए तैयार हो गए । ये तो अच्छा था कि शरद ने अम्मा और बाबूजी का पासपोर्ट बहुत पहले ही तैयार करवा दिया था और अम्मा के गुजरने के दस महीने बाद ही फूफेरे भाई की मदद से वीज़ा का कार्य भी पूरा हो गया था।

अपने घर के दरवाज़े पर ताला लगाते हुए बाबूजी के चश्मे के नीचे से आँसुओं की झड़ी लग गई । अपनी छोटी बहन के हाथ को पकड़कर बाबूजी ऐसे रोए कि घरवालों के साथ-साथ , बाबूजी को विदा करने आए पड़ोसियों की आँखें भी छलछला उठी । ऐसे में शरद और साक्षी ने दोनों ओर से ऐसा सहारा दिया मानो वे बाबूजी को आश्वस्त कर रहे हों- एक भरे- पूरे परिवार में उनके अस्तित्व का , उनके मान-सम्मान का और उन्हें ही उनकी परवरिश पर विश्वास करने का ।

बाबूजी को कनाडा आए हुए एक महीने से ज़्यादा हो गया था पर वे घर में ऐसे रहते जैसे कुछ दिनों का मेहमान । साक्षी और शरद ने बहुत से भारतीय लोगों से जान- पहचान करवा दी थी । हर रोज़ बच्चे भी उन्हें लेकर पार्क जाते और साक्षी की मम्मी भी अक्सर उनसे बातें करके वर्तमान में ख़ुश रहने के लिए प्रेरित करती पर बाबूजी के चेहरे पर एक खामोशी सी छाई रहती थी । शुरू में तो ऐसा होना स्वाभाविक था पर लाख कोशिश के बावजूद भी बाबूजी डरे-डरे से रहते थे । साक्षी कुछ दिनों से बाबूजी के व्यवहार को बारीकी से समझने की कोशिश कर रही थी । उसने ध्यान दिया कि अक्सर बाबूजी ऐसे कार्यों को करने के लिए उठते हैं जिन्हें भारतीय परिवारों में अपने बड़ों से करवाना बुरा समझा जाता है – जैसे मेज़ से सबके जूठे बरतनों को समेटकर साफ़ करने की कोशिश करना , डस्टिंग करने चल पड़ना, जूतों पर पॉलिश करने बैठ जाना ।

एक दिन साक्षी ने शरद से कहा-

क्या तुमने बाबूजी की बातों और व्यवहार पर गौर किया है? बाबूजी अख़बार पढ़ते समय तुम्हारे आने पर अचानक खड़े हो जाते हैं, अख़बार तुम्हारी तरफ़ बढ़ा देते हैं , कभी अपनी मर्ज़ी से ना कुछ लेकर खाते , ना अपनी कोई इच्छा बताते ।घर के काम करना या मदद करने में कोई बुराई नहीं है पर जो काम बाबूजी करने बैठते हैं, वे तो उन्होंने कभी किए ही नहीं ।

हाँ साक्षी , अब तुम्हारे कहने पर ध्यान जा रहा है । क्या हो गया बाबूजी को । तुम मम्मी से पूछो कि क्या हो सकता है?

नहीं शरद, मम्मी नहीं, इस मामले में हमारी सबसे ज़्यादा सहायता बुआजी कर सकती हैं । अम्मा के बाद , बुआजी ही सबसे ज़्यादा समय बाबूजी के साथ रही हैं पर इस एक साल में बुआजी ने तो ऐसी कोई शिकायत नहीं की ।

साक्षी , कहीं बाबूजी किसी मानसिक बीमारी के शिकार तो नहीं हो गए ? 

चलो , आज ही बुआजी से बात करती हूँ । तुम भी साथ ही रहना।

दोनों ने बुआ को फ़ोन लगाया पर उनका फ़ोन एंगेज आ रहा था।

चलो तब तक बाबूजी को थोड़े फल काटकर दे आती हूँ । अपने आप तो कुछ भी लेकर नहीं खाते ।

फल काटकर ले जाती साक्षी अचानक बाबूजी की आवाज़ सुनकर ठिठक गई-

उर्मिला, बस अब तो वापस आना चाहता हूँ । बेइज़्ज़ती होने से पहले ही आने में भलाई है । नहीं …अभी तक तो सब कुछ ठीक है पर तुझे याद हैं ओमप्रकाश जी । पत्नी की मृत्यु के बाद लड़का मथुरा ले गया था फिर जो हालत हुई बेचारों की। सारी उम्र शेर बनके रहे पर जीवन के आख़िरी दिनों में नौकर से भी गई गुजरी हालत हो गई । मैं तो बिना कहे ही, दो- चार काम कर देता हूँ,  किसी दिन कुछ कह दिया तो क्या रहेगी?

मैंने तो देख आने से पहले ही सोच लिया था कि किसी के घर जाकर नहीं पड़ूँगा । तेरी भाभी धोखा दे गई । अब तो साँसें पूरी करनी हैं । रह लूँगा अकेले ।शान तो उसके साथ चली गई । अब तो मन मारकर , दूसरों की सुननी ही पड़ेगी ।

इतने में साक्षी अंदर आकर बोली-

अच्छा…….बाबूजी! आज समझ आया कि आप क्यों इतने चुप-चुप रहते हैं । असल में ओमप्रकाश अंकल के बहू- बेटे की करनी की सजा हमें मिल रही है । बाबूजी, किसी ओर पे ना सही पर अम्मा की परवरिश और संस्कारों पर तो विश्वास रखिए । बाबूजी, ये उम्र हमारी भी तो आएगी , क्या कोई माँ अपने बच्चों के सामने ग़लत उदाहरण पेश करेगी ?

और अपनी परवरिश पर मुझे पूरा भरोसा है भाई साहब !

इसी बीच साक्षी  की मम्मी भी अंदर आकर बोली ।

भइया , अपने परिवार के साथ हँसी ख़ुशी से रहिएगा बेबुनियाद विचारों को दिल से निकाल दीजिए ।

चल उर्मिला,  फ़ोन रखता हूँ,  बहू फल काटकर लाई है । कटे फलों को ज़्यादा देर नहीं रखना चाहिए ।अगर सुबह का भूला शाम को लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते ।

करुणा मलिक

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