शीतल छाया – करुणा मलिक : Moral stories in hindi

पम्मी, कुछ दिनों के लिए इंडिया जाना चाहती हूँ । मेरी टिकट बुक करवा दे पुत्तर ।

मम्मा, अभी तो मुझे छुट्टी नहीं मिल सकती । फिर बच्चों के पेपर आ जाएँगे । अभी कैसे……

मैं अकेले चली जाऊँगी । कुछ दिन आराम से रहना चाहती हूँ । जल्दी-जल्दी में जाना – आना , मन नहीं भरता , मैं अकेली मैनेज कर लूँगी… तू चिंता न कर ।


पक्का ? चार महीने के बाद ही बच्चों की समर वेकेशन होंगी। क्या इतना लंबा समय रह पाएँगी वहाँ ?

हाँ बेटा , जल्दबाज़ी में ना ढंग से मिल पाऊँगी ना मन की कह-पूछ पाऊँगी । तू मेरी टिकट बुक करवा दे । 

प्रकाशकौर अपने पति सरदार बलदीपसिंह के साथ चार महीने की परमजीत को लेकर बरसों पहले कनाडा में आ गई थी । बलदीपसिंह दो साल के लिए पढ़ाई करने आए थे पर फिर यहीं नौकरी मिल गई और बाद में यहीं बस गए । 

इकलौती संतान परमजीत की पढ़ाई और पति की नौकरी के कारण चाहते हुए भी, प्रकाशकौर इंडिया केवल गिनी चुनी बार ही आ पाई । बढ़ती उम्र के साथ-साथ दिनचर्या में बदलाव कठिन लगता है, इसी कारण वे आसानी से भारत आने के बारे में सोच नहीं पाई। पर पति की मृत्यु के बाद अपने देश, अपने घर और अपनों से मिलने के लिए उनके मन में एक छटपटाहट सी बढ़ने  लगी । बेटी से कई बार हल्के-फुल्के अंदाज में कहा पर परमजीत ने भी उतनी गंभीरता से नहीं लिया । कभी पति के कारण, कभी बच्चों की पढ़ाई और कभी खुद के बिज़नेस के कारण, वह माँ के मन को नहीं पढ़ पाईं ।अब माँ की इच्छा के अनुसार उसने उनका टिकट बुक करवा दिया ।

पम्मी , तूने किसी को मेरे इंडिया आने के बारे में बता दिया?

सॉरी मम्मा , सोचते- सोचते भी बात दिमाग़ से निकल गई । बताइए , मामाजी को बताऊँ या बुआओं में से किसी को ? चलो , आपके ठहरने के बारे में प्लानिंग करते हैं । सुखविंदर कह रहे हैं कि उनकी माँ भी इन दिनों दिल्ली में अकेली ही है अगर आप कंफ़रटेबल हो तो वहाँ रुक सकती हैं । 

पुत्तर, इस दफ़ा मैं खुद अपने से मैनेज करूँगी । तू किसी को फ़ोन ना कर , सुखविंदर से भी कह दे कि मेरे आने के बारे में किसी से कुछ ना कहे ।

क्या कह रही हो मम्मा ! आप अकेली कैसे मैनेज करोगी ? किसी के घर बिना बताए पहुँच जाएगी ? लोग कैसे रिएक्ट करेंगे ? कोई इस तरह हमारे घर आ जाए और वो भी इतने लंबे समय के लिए ?

बच्चे ! मैनूँ भी पता है । तू फ़िक्र ना कर , मैं आज़ादी के साथ कुछ समय बिताना चाहती हूँ । तेरे कॉन्टेक्ट में रहूँगी । फिर ऐसा लगा भी तो तेरे मामा तो हैं ।जहाँ जब चाहें , जितने दिन चाहें , रह सकते हैं , वो मेरा भी घर है जहाँ फॉरमेल्टी की ज़रूरत नहीं ।

पर…….

पर वर कुछ नहीं । तेरी माँ हूँ । छोटी बच्ची थोड़े ही हूँ ? आजकल वहाँ भी बहुत सुविधाएँ हो गई गई है ।

पम्मी को वैसे तो अपनी माँ की काबलियत पर पूरा भरोसा था पर उम्र अच्छे – अच्छे अनुभवी को भी मात दे देती है, यही सोचकर एक क्षण के लिए थोड़ी बेचैनी सी हुई पर फिर सोचा, ऐसी भी क्या डरने की बात है , माँ यहाँ भी अपने आप ही तो सब मैनेज करती हैं ।

नियत समय पर प्रकाशकौर दिल्ली पहुँच गई ।  सबसे पहले वहीं हाथ- मुँह धोए और दो सैंडविच पैक करवाए ,सामान भी ज़्यादा नहीं लाई थी । एक कपड़ों का बैग और एक छोटा हैंडबैग था इसलिए सोचा कि मेट्रो से चलती हूँ । दामाद ने अपना इंडियन सिम के साथ फ़ोन दे रखा था । अंतर्राज्यीय बस अड्डे पर पहुँच कर चंडीगढ़ जाने वाली बसों का समय देखा । वोल्वो बस का टिकट लेकर बैठ गई । पम्मी को मैसेज कर दिया और अपनी सहेली इंदिरा को फ़ोन किया-

इंदिरा, क्या कर रही है ? 

वहीं रोज़ का काम , तबीयत तो ठीक है । सोने की तैयारी कर रही होगी तू तो  ? 

क्या क़रीब चार-पाँच बजे बस अड्डे आ पाएगी? मैंने किसी को तेरे से मिलने को कहा है । अमन आफिस से किस वक़्त आ जाता है?

सॉरी प्रकाशो , अमन तो एक महीने की किसी ट्रेनिंग के लिए मुंबई गया है । किसे भेजा है तूने ? क्या वो टैक्सी करके आ सकते हैं?  नहीं तो ,  अमन के किसी दोस्त से पूछती हूँ ?

तुझे ही आना पड़ेगा । 

इससे पहले कि कोई और बात पूछती , फ़ोन कट गया ।

इंदिरा मन ही मन सोच रही थी कि कैसे पहचानूँगी , चलो , जाकर ही देखती हूँ । फ़ोन भी पता नहीं, उठा पाएगी या नहीं? क्योंकि भारत और कनाडा के समय में अंतर है ।

बस के चलते ही प्रकाशकौर की आँख लग गई । जब नींद खुली तो बस चाय/ खाने के लिए रुकी हुई थी। उन्होंने नज़र घुमाई तो उनकी नज़र एक बस पर लगे बोर्ड पर जा टिकी- पेहवा ।

मन ही मन बुदबुदाई और अपना बैग उतारकर पेहवा जाने वाली बस में बैठ गई –

आप यहीं से बैठी हो ? टिकट ….

कितने बजे पहुँचोगे?

एक घंटे में । कहाँ का टिकट बनाना है ?

पेहवा । मेरे घर का ।

पता नहीं, कंडक्टर ने पूरी बात सुनी या नहीं ? उन्हें टिकट पकड़ा दिया । पूरे रास्ते प्रकाशकौर सड़क किनारे के घरों , दुकानों , पेड़ों यहाँ तक कि रास्ते पर चलते अजनबियों से भी मन ही मन बात करती जा रही थी । उनकी तंद्रा तब भंग हुई जब कंडक्टर ने उतरने को कहा –

ए रिक्शावाले भाई ,  पुराने बड़े शिव मंदिर के पास जाना है ।

तीस रुपये लूँगा । सड़क पर उतरोगी या अंदर गली में  ?

चलो , बता दूँगी । 

मंदिर के पास जाकर रिक्शा रुका । उन्होंने डायरी निकालकर  उस पुराने मुलाजिम का नंबर निकाला जो उनके खेतों का नया मालिक बन चुका था और हवेली की चाबी , जिसके पास थी। वैसे  अपनी माँ के कारण दामाद का आना- जाना लगा रहता था और कभी-कभी सुखविंदर ही हवेली की साफ़ सफ़ाई करवा जाता था । इधर दो साल पहले खेत तो बेच दिए थे पर अपनी हवेली बेचने की कल्पना  से ही उनकी रूह काँप उठती थी ।

एक फ़ोन पर ही तेजसिंह रिक्शे के पास दौड़ा आया –

ताई , पहले से बता दिया होता तो सफ़ाई करवा देता , राशन रखवा देता , अब तो सोने का कमरा खुलवा देता हूँ । ताई हुज़ूर को परहेज़ ना हो तो खाना आपकी दूसरी रसोई ( वो अपनी रसोई की बात कर रहा था )से बनकर आ जाएगा ।

तेजा, दरवाज़ा खोल दे । जब मेरा ब्याह हुआ ना , तू चलता भी नहीं था । तेरी माँ……..

अचानक दरवाज़ा खुलते ही आँगन में बिखरे नीम के पीले पत्तों पर उनका पैर पड़ा, चरररररररररमररररर……

लगा- ये पत्ते उलाहना दे रहे हैं- अपने घर , अपने गाँव और अपनी मिट्टी से दूर जाने का । इस नीम के पेड़ के साथ कितनी यादें जुड़ी हैं- गर्मी की दोपहरी में नीम तले खाट डालकर ठंडी हवा के झोंके, सावन में नीम पर झूलते हुए गीत , भोर होते ही नीम पर बैठे पक्षियों की चहचहाहट, बारिश के मौसम में नीम की पत्तियों को उबालकर पानी से नहाना , और भी न जाने क्या-क्या?

ताई , कुर्सी पर बैठ जा , तब तक तेरी बहू चाय लेकर आती होगी । वहीं सोने का कमरा साफ़ करके चादर तकिए भी बदल देगी ।

हाँ तेजा , नीम के नीचे कुर्सी डाल दे । तू भी जा और ले ये कुछ रुपये । कल तक ज़रूरत का सारा राशन ख़रीद लाना , मै कुछ समय यहीं अपनी हवेली में नीम की शीतल छाया में गुज़ारना चाहती हूँ । 

इतना कहकर उन्होंने इंदिरा को बस अड्डे न जाने का मैसेज कर दिया

करुणा मलिक

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