*शकुनी* -मुकुन्द लाल

 जब तिलक अपनी बहन के घर पहुंँचा तो हाल-सामाचार व नास्ता-पानी की औपचारिकता के बाद उसने पूछा कि जीजाजी कहीं दिखलाई नहीं पड़ रहे हैं, तब उनकी बहन ने कहा कि उसके जीजा कुछ आवश्यक काम से बाज़ार गये हुए हैं। उसी समय उसके जीजा का छोटा भाई कोई सामान से भरा हुआ बड़ा सा बैग और एक थैला लेकर घर से बाहर निकल गया। इसके बाबत पूछने पर उसकी बहन ने कहा, “बात ऐसी है भाई, उनकी दुकान में इधर दो सालों से लगातार घाटा लगने के कारण उनका धंधा चौपट हो गया था, दुकान से आमदनी बन्द हो गई तो उन्होंने दुकान उठा दी। अब देवरजी घरेलू सामानों की फेरी करके कुछ कमाई कर लेते हैं। इस आमदनी से उनके बड़े परिवार का घर-खर्च तो नहीं चल सकता है किन्तु उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्च अवश्य निकल जाता है। “

” शेष खर्च कैसे चलता है? “

” इसके लिए तुम्हारे जीजाजी हैं ही, पूरा खर्च उठाने के लिए, उनका ही नहीं, साथ में बूढ़े सास-ससुर का भी। इस संयुक्त परिवार में पहले देवरजी भी आर्थिक सहयोग करते थे, लेकिन इधर कई महीनों से एक पैसे का भी सहयोग उन्होंने नहीं किया है। घर का किराया, बिजली-बिल, चौका(रसोई)-खर्च सब इन्हीं के द्वारा किया जा रहा है। “

” कहीं ऐसा होता है संयुक्त परिवार में दीदी? “

” नहीं होता है तो अब हो रहा है न भाई!.. इतने बड़े संयुक्त परिवार का खर्च चलाने के लिए वे रात – दिन काम करते हैं। पर्वों-त्योहारों में भी कुछ एक्सट्रा काम करके अतिरिक्त आय करते हैं। ऊपर से मंहगाई की मार। “

 “यही स्थिति रही न दीदी!.. तो वह दिन दूर नहीं है कि कहीं इनको भी अपने छोटे भाई की तरह फेरी-फकीरी करने की न नौबत आ जाए, दूसरों के सामने इनको हाथ न फैलाना पड़े। “



” हम क्या करें?.. एक-दो बार इन्होंने खर्च देने के लिए कहा तो उन्होंने रोनी सूरत बनाकर कलपते हुए यह कहकर हाथ खड़े कर दिए कि आमदनी नहीं है भाई, दो-चार पैसे की जो आय होती है, वह बच्चों के पीछे खर्च हो जाती है.. “

” तो यह समझ लो बहना कि तुम्हारा और तुम्हारे बाल-बच्चों का भविष्य अंधेरे में डूबा हुआ है। “

” मैं क्या करूँ?.. मुझे तो न उगलते बनता है, और न निंगलते, अजीब स्थिति में फंँस गई हूंँ.. एक बार मैंने इन्हें समझाते हुए उन लोगों से अपना पिंड छुड़ा लेने की सलाह दी तो उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि वह अपना फर्ज कैसे भूल जाएं, यह मानवता और आदमियत भी नहीं है कि आज जब छोटा भाई मुसीबतों से त्रस्त होकर निर्धनता की चक्की में पिस रहा है तो उसको और उसके परिवार को भूखा मरने के लिए छोड़ दें, जिसने हमेशा सुख-दुख में साथ निभाया। वह बैठा हुआ भी नहीं है फिर से अपना पैर जमाने का प्रयास कर रहा है। लोग गैरों की मदद करते हैं, वह तो मेरा सहोदर भाई है, मेरा खून है। “

” हांँ तो समझ ले दीदी!.. इनकी अक्ल घास चरने चली गई है, इनको बर्बादी से कोई नहीं बचा सकता है, इनके जो लक्षण हैं न, वह ठीक नहीं है, इनका व्यवसाय निश्चय ही निकट भविष्य में चौपट हो जाएगा, और हो सकता है इनको फुटपाथ की शरण में जाना पङे “तिलक ने बेबाकी से कहा।

 जीजाजी बाजार से लौटने के बाद कमरे के बाहर छिपकर भाई-बहन के बीच चल रहे वाद-संवाद को सुन रहे थे, सहसा उनके सामने प्रकट होकर कहा,” आप मेरे रिश्तेदार हैं, इस घर में दो-चार रोज के मेहमान हैं, कृपया मेरे परिवार के अन्दरूनी मामलों में दखलंदाजी न करें, शकुनी की भूमिका न निभायें, आपकी दाल यहाँ नहीं गलेगी क्योंकि यहाँ कोई दुर्योधन की सोच रखने वाला पात्र नहीं है।”

    स्वरचित

    मुकुन्द लाल

    हजारीबाग (झारखंड)

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