संस्कारों की पाठशाला – कंचन श्रीवास्तव

अम्मा के हाथों की चुपड़ी हुई नमक तेल रोटी खाने का अपनी ही मज़ा है

माना मेरे साथ वाले सहपाठी कोई आलू की भुज्जी लाते है तो कोई पनीर मशरूम पर मुझे लालच नही आती क्योंकि इनकी ऐ सब्जी नौकर या नौकरानी बनाते है और मेरी रोटी मेरी माँ ।

अब आप खुद ही समझ जाइए कि जो स्वखद और ममता का अहसास इसमें है वो उसमें कहाँ।

पर मेरे एक बात समझ में नही आई आजकल कि जब मैं बाबा दादी बुआ पापा के पैर आशीष लेकर अम्मा की तरफ बढ़ता हूँ तो पापा को छोड़कर सबका मुँह क्यों बन जाए है अब विद्यालय जाने की ऐसी देरी होती रहती है कि मैं चाहकर भी रोज़ दादघ बाबा बुआ पापा से नही पूछ पाता और शाम जब लौटता तो भूल जाता।

पर वर्षों इस प्रश्न के साथ अकेले ही जूझ रहा हूँ जूझते जूझते आज इतना बड़ा हो गया कि पूछने में झिझक नही रही पहले तो डरता भी था कि कही पिट न जाऊँ  फिर एक सुकून ऐ रहता था कि पापा नाक भौ नही सिकोडते पर शायद वो डर उम्र और वक्त के साथ खत्म हो गया  ।



हाँ खत्म हो गया।

मैं देखता माँ दिन भर खटती सुबह से रात तक घर के काम से लेकर बाहर ,गाय गोरू सब करती । और चुप भी रहती।मैने कभी किसी से झगड़ते हुए उसे नही देखा।

शायद यही संकोची स्वभाव मेरा भी है तभी तो वर्षों लग गए।हमें इस अंतर्द्वंद्व से निकलते हुए कि ऐसा 

क्यो होता है।

और आज तो हद ही हो गई।

हाँ हद शायद तभी सारी सीमा रेखा पार ही कर दिया मैने वरना शायद आज भी चुप रह जाता।

मैं पी.सी.एस . का परीक्षा फल लेके सीधे माँ के कमरे में जाने लगा तो दादी बाबा ने मुझे बीच गलियारे में ही रोक लिया। और पूछा अरे अखबार लिए कहाँ जा रहे हो हमें भी तो बताओ क्या परिणाम आया है 

तो मैने कहा 

नही पहले मैं माँ को सुनाऊंगा

इस पर बुआ ने कहा 

अरे बहुत बोलने लगा है

इस पर चारपाई से उठते हुए पिता जी बोले कोई बात नहीं अगर वो माँ से ही साँझा करना चाहता है तो इसमें दिक्कत क्या है

जा ….बेटा जा…..

मैं सीधे उसके पास गया और उसके पैर झूठे आशीर्वाद लिए और कहा – मां तुम्हारा बेटा अधिकारी बन गया।

तो मां ने गले से लगाते हुए कहां

जीता रह मेरा बच्चा ,पर मुझसे पहले अपने दादी बाबा और पापा के पैर छू लो मुझसे भी बड़े हैं।

जिसे बाहर बैठे सब सुन रहे थे , आज उन्हें समझ में आ गया कि मां पढ़ी लिखी जरूर नहीं है पर संस्कारों की पूरी पाठशाला है।

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