“मैं बोनसाई नहीं”  – सुधा जैन

ईशा प्यारी सी लड़की, सुंदर, सुशील ,समझदार, माता पिता ने सुयोग्य लड़का ,घर परिवार, देखकर उसकी शादी कर दी ।मध्यम वर्गीय परिवार  में पली-बढ़ी इशा अपने मन में ढेर सारे सपने सजाए ससुराल आ गई।

ससुराल में सास ससुर  दो ननंद और एक देवर है ।शादी के पहले मां हर दिन समझाती रहती ,”ईशा थोड़ा जल्दी उठा करो, ससुराल में जल्दी उठना पड़ेगा, ईशा किचन में काम करना सीख लो, वहां पर सभी काम करना होगा, ईशा यह कर लो वह कर लो”

कभी-कभी तो ईशा चिढ जाती और अपनी मम्मी से कहती ,”मेरी शादी हो रही है या मैं उनके घर कामवाली बन कर जा रही हूं”

तब मम्मी अपनी बेटी को दुलार करने लग जाती और कहती “क्या करें बेटी ,विधाता ने यही रिवाज बनाया है,।

ऐसा नहीं है कि ईशा पढ़ी-लिखी नहीं है, उसने एमएससी किया है,  बाटनी में लेकिन माता पिता की चाहत यही है कि हम अच्छे परिवार में तुम्हारी शादी कर दें, और निश्चिंत हो जाए ।

शादी के बाद सुंदर सा प्रवेश हुआ। सास ने अपनी मीठी-मीठी हिदायतें देना शुरू कर दी। ननंदो की फरमाइश शुरू हो गई ।देवर के खाने के शौक पूरे होने लगे। ससुर जी का गुस्सा बर्दाश्त करने लगी ।थोड़े दिन तक तो उसके पति निखिल ठीक रहे, लेकिन बाद में उनका गुस्सा भी ईशा को समझ में आ गया। घर में सब कुछ अच्छा है, लेकिन फिर भी कहीं ना कहीं उसकी इच्छाओं को मान नहीं दिया जाता। हर बात में कहीं ना कहीं कमी निकाली जाती है। किचन में वह अपनी मनपसंद चाय बनाकर नहीं पी सकती। सासूजी से बगैर पूछे खाने का मीनू तैयार नहीं कर सकती। निखिल के साथ अकेली घूमने नहीं जा सकती। मूवी देखने नहीं जा सकती ,अगर जाना भी है तो दोनों नन्द के साथ में। सब कुछ अच्छा बनाने के बाद भी कभी-कभी ससुर जी बहुत गुस्सा करते हैं। सासू जी एकदम से तो नहीं डांटती लेकिन उनकी मीठी   हिदायतें भी ईशा को रास नहीं आती।

एक जैसे रूटीन में काम करते-करते ईशा थकने   लगी।

वह बायो की छात्रा थी, उसने बीएससी में बोनसाई के पेड़ों के बारे में पढ़ा था।   बोनसाई का अर्थ है बौने पौधे यह पौधों को लघु आकार मैं आकर्षक रूप प्रदान करने की कला होती है ।किसी पेड़ को इस तरह से कांटा छटा जाता है कि वह बढ़ा ना होकर भी फल और फूल देने लगता है। उसे उसके मूल स्वरूप में विकसित नहीं होने दिया जाता।



ईशा सोचती मैं भी इस घर में आकर बोनसाई के पेड़ जैसी हो गई हूं। मेरी इतनी काट छांट हो गई है कि मैंने अपने मूल स्वरूप को खो दिया है। मैं सिर्फ सजावट का सामान बन कर रह गई ।कोई मेहमान आए तो अच्छे से पहन ओढ़ के सामने जाओ, मुस्कुराओ, रिश्तेदारी में सभी के सामने अच्छे से प्रस्तुत हो, लेकिन उसका स्वयं का वजूद तो न जाने कहां खो गया?

इस बात का उसे बहुत बुरा लगता है। वह सोचती,” मैं क्या करूं?

इन दिनों वह बहुत परेशान है निखिल ऑफिस से बहुत देर से आते हैं। कभी ड्रिंक करके भी आ जाते हैं। ऑफिस की एक मित्र नीरा के साथ उनके संबंध अंतरंग होते जा रहे हैं। वह इस बात को समझ रही है। घरवाले  उसकी कटाई छटाई में लगे हैं। उसे अपने अस्तित्व की तलाश चाहिए । इन दिनों उसने ऑनलाइन इंटरव्यू के माध्यम से अपनी जॉब पक्की कर ली, और उसका खोया हुआ आत्मविश्वास जाग उठा।

एक दिन ईशा ने अपना बैग तैयार कर लिया और घर से बाहर जाने लगी। सास, ससुर और निखिल पूछने लगे, क्यों जा रही हो यहां से ?उसने कहा” मैं बोनसाई नहीं, मैं फलना  फूलना चाहती हूं, एक सजावटी पेड़ बन कर रहना नहीं चाहती हूं, और अपने अस्तित्व की तलाश में वह निकल पड़ी।

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