समयचक्र यही है…रश्मि झा मिश्रा : Moral stories in hindi

आज से कोई चालीस पचास साल पहले तक… शादियां घर के बड़े ही पूरी तरह तय करते थे… लड़के लड़कियों को बस तैयार होकर मंडप में बैठना होता था… खासकर बड़े घरानों में तो शादी से पहले एक दूसरे को देखना… नाक कटाने वाली बात होती थी…और यदि किसी तरह देख भी लिया… तो उसे छोड़ नहीं सकते थे… चाहे उसमें कितनी ही कमी हो…हमारे यहां ऐसी ही रीत थी… ऐसे ही जमींदारी शान और ठाट के बीच में पले बढ़े थे राज्य वर्धन जी…

 बचपन से पढ़ने में होशियार थे… पैसे की कोई कमी नहीं थी… विलायत जाकर पढ़ने की इच्छा हुई… तो पिताजी ने विलायत भेज दिया… विलायत में 5 साल रहकर वापस आए… तो ठसक और बढ़ गई थी…!

 यहां आए तो पता चला… पिताजी ने अपने एक मित्र ठाकुर साहब की लड़की से ब्याह ठीक कर दिया है… राज्यवर्धन जी दुनिया घूम कर आए थे… एक से एक सुंदर लड़कियों के दर्शन करने के बाद… अब बिना दर्शन के शादी कैसे करते… बहुत बवाल हुआ… पर पिताजी ने जो कह दिया… जहां वचन हार गए.… वह तो फिर पत्थर की लकीर हो जाती थी…!

 किसी तरह जुगत लगाकर… सारे पते ठिकाने बता कर… एक मित्र को तैयार किया… कि जाकर पता लगा आए कि आखिर लड़की है कैसी.…!

 कुछ दिनों में शादी होनी थी… हर जगह न्योता भेजा जा चुका था… सभी तैयारियां शुरू हो गई थी… आखिर इतने बड़े रईसों के घर शादी थी… पर लड़का बेसब्री से अपने मित्र का इंतजार कर रहा था… कि आखिर कैसा संदेश आता है….देख कर क्या बताता है…!

 मित्र ने आकर जो बताया तो राज्यवर्धन जी का कलेजा मुंह को आ गया…” देखो मित्र… तुम्हारी जिंदगी का सवाल है… इसलिए मैं झूठ नहीं बोलूंगा… लड़की बहुत बदसूरत है…काली बदसूरत के साथ चलती भी थोड़ा पैर पकड़ के है… शायद कुछ पोलियो वोलियो का चक्कर है… चेहरा तो चलो घूंघट में ढंका रहेगा… लेकिन ऐसे टेक कर चलने वाली लड़की…मित्र हो सके तो निकल जाओ इस सबसे… तुम्हारी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी… कहां तुम कहां वो… मुझे तो तुम्हारी नौकरानी बराबर भी नहीं लगी…!”

 राज्यवर्धन जी गहरी सोच में पड़ गए… अब आजकल का समय होता… तो लड़का घर ही छोड़ देता.… या साफ मना कर देता… लेकिन उस जमाने में तो यह दोनों ही काम तर्कसंगत नहीं थे… अब एक ही उपाय था… की मां को सभी बातें बताई जाए… शायद वह कुछ कर सके…!

 राज्यवर्धन जी ने अपनी पड़ताल की सभी बातें मां को अक्षरशः बता दी… मां भी सोच में पड़ गई… बात तो सही थी… चेहरा ढकी रहेगी तो कोई बात नहीं… कैसी भी हो… लेकिन घुटने पर हाथ रख के चलती है… टेक के चलती है… यह तो खानदान का नाम डूब जाएगा… उन्होंने कहा…” रुको मैं कुछ करती हूं…!”

 उन्होंने अपने पति से सारी बातें नमक मिर्च लगाकर कहीं… अपने बेटे का नाम बीच में ना डाला… क्योंकि पिता को यह बात राज्यवर्धन ने पता लगाई बताना एक दूसरे ही खतरे का संकेत करता… मां को अपनी सेविकाओं से पता लगा… यही कहकर उन्होंने भावी बहू के सभी अवगुण बताए….सभी बातें सुनकर जमींदार जी भी थोड़ा सोच में पड़ गए… फिर बोले “अब तो कुछ नहीं हो सकता… टेक कर चलती है तो उसमें उसका क्या दोष.… वैसे भी इतने नौकर चाकर घर में किस लिए हैं… उसे थोड़े ना कोई काम करना है… जाइए आप शादी की तैयारी करिए…और वैसे भी अगर ऐसा कुछ रहता तो मुझे जरूर पता होता…!

 राज्यवर्धन जी सर पीट कर रह गए… और उनके सर पर सेहरा बंध गया…शादी हो गई… बड़े दुखी मन से रोते रोते मां ने बेटे को विदा किया… बहु लाने……!

 प्रभावती जी देखने में तो सचमुच कुरूप ही थी… पर पैर वाली बात पूरी सच्ची नहीं थी… हां थोड़ी समस्या तो थी… पर यह अधिक चलने पर ही समझ आती थी… फौरी तौर पर देख कर कोई यह नहीं कह सकता था… कि उनके पैरों में कोई समस्या है…!

 फेरों के वक्त उन्हें सीधा चलता देख राज्यवर्धन जी की जान में जान आई… बिना मुंह दिखाई के राज्यवर्धन बहू लेकर घर आ गए… सास भी बहू के पैर ही निहार रही थी… कि यह कैसे चलती है… लेकिन उसे ठीक से चलते देख उनकी सांस में सांस आई… थोड़ा मुंह से आवाज निकलना शुरू हुआ… नहीं तो उनकी तो आवाज ही गुम हो गई थी…!

 पर कुरूप प्रभावती को अपने पति और सास का प्यार नसीब नहीं था… बड़े घर की बेटी होते हुए भी उनके अंदर कोई अभिमान नहीं था… बहुत संस्कारी थीं प्रभावती… दसों सेवक सेविकाओं के होते हुए भी पति सास ससुर के लिए खुद से खाना बनातीं… अपने हाथों से उनका सत्कार करतीं…जमींदार जी तो प्रभावती के कायल हो गए… उन्हें अपनी बहु बहुत प्यारी लगी… पर बेटे को सिरे से नापसंद बहू को मां भी स्वीकार नहीं कर पाई… बेचारी प्रभावती दिनभर कोशिश करती… लेकिन कोई अगर उन्हें कुछ बुरा भला नहीं कहता… डांटता नहीं… तो कुछ बात भी नहीं करता था…!

 राज्यवर्धन जी ने तो शादी करके घर आने के बाद प्रभावती जी को छुआ तक नहीं था… मुंह देखना और बात करना तो दूर की बात हुई…!

 जमींदारी शान के साथ जमींदारी शौक भी बच्चों को विरासत में मिल जाते थे… अपनी पत्नी को हाथ न लगाने वाले राज्यवर्धन जी… नित नए विलास के साधनों को आजमाते रहते थे… लगता था इस एक शोक… मनपसंद पत्नी ना मिलना… ने उन्हें अंदर ही अंदर इतना घायल कर दिया था… कि उसके कारण उन्होंने अपनी जिंदगी ही बर्बाद कर ली थी… पिताजी को यह सब पसंद तो था… लेकिन मर्यादित रूपों में… बेटे ने सभी मर्यादाएं छोड़ दी… उन्हें रास्ते पर लाने के लिए… पिता ने उनका रात को घर से निकलना बंद करवा दिया…!

ऐसी स्थिति में शराब के नशे में धुत्त राज्यवर्धन… मजबूरी में प्रभावती का सहारा लेने लगे… जिस सहारे के परिणामस्वरुप प्रभावती ने दो स्वस्थ बच्चों को जन्म दिया… एक पुत्र एक पुत्री… जमींदार जी बहुत खुश हुए… पर यह खुशी अधिक दिनों तक नहीं टिकी…!

 इतनी बुरी तरह व्यसनों के आदी हो चुके राज्यवर्धन जी… एक रात शराब के नशे में सीढ़ियों से लुढ़क गए… और यहां शुरू हो गई समय चक्र की उल्टी रफ्तार…!

 आधा शरीर पंगु हो गया… लकवे ने उनका चेहरा बुरी तरह टेढ़ा कर दिया… शरीर का आधा भाग किसी काम का नहीं रहा… अपने गौर वर्ण सुंदर शरीर यष्टि पर नाज करने वाले राज्य वर्धन जी… दिखने में अत्यंत भयानक लगने लगे… एक बार आईने में खुद को देखने के बाद इतना चिल्लाए…अस्पष्ट आवाज में गों गों करते चिल्लाते रहे… रोते रहे… पिताजी ने पूरे बंगले से शीशा निकलवा दिया…! 

मां बेटे की यह असह्य पीड़ा अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकी…छह महीनों के अंतराल में ही शोक से चल बसीं… पिता बेचारे जितना खर्च कर सकते थे… तन से… मन से… धन से… किसी बात की कोई कमी नहीं की… देश के बड़े-बड़े नामी गिरामी डॉक्टर से भी जब बात ना बनी… तो विदेशों से भी डॉक्टर बुलाए… पर कोई भी राज्यवर्धन जी को पूरा ठीक नहीं कर सका… हां कुछ सुधार अवश्य हुआ… अब वह किसी तरह चल फिर कर… अपना कार्य कर लेते थे….!

 बेटे के इलाज के पीछे पिता ने अपना धन… पानी की तरह बहा दिया था… परिणाम स्वरुप जमींदारी ठाठ भी जाती रही… धीरे-धीरे नौकर चाकर साथ छोड़ छोड़ कर जाने लगे… और एक वक्त ऐसा आया… कि जमींदार साहब को अपनी कोठी को भी अलविदा कहना पड़ा…!

 अब अपाहिज पति की पूरी जिम्मेदारी उसकी पत्नी प्रभावती जी पर आ गई थी…! वह त्याग की हुई स्त्री… पूरे मनोयोग से… पति की सेवा करती रही… पूरे दस सालों तक… उन्होंने उस भयंकर कुरूप हो चुके… पराश्रित पति की सेवा की… उसके बाद राज्यवर्धन जी को इस संसार से मुक्ति मिल गई…!

 जितने सालों तक उन्होंने एक स्त्री को कुरूप होने की सजा दी थी… लगभग उतने ही सालों की भयंकर कुरुपता भोग कर… वे दुनिया से चले गए…!

 प्रभावती जी ने जीवट के साथ.… अपने ससुर जी के सहयोग से… अपने दोनों बच्चों की अच्छी परवरिश की… और स्वस्थ संस्कार दिए… बच्चे काबिल हुए… और आगे जाकर उन्होंने पुनः अपने घर की.… दादाजी की …मर्यादा में बढ़ोत्तरी की…!

 समय चक्र यही है… कोई नहीं जानता कल किसके साथ क्या होगा… यह केवल एक कहानी नहीं है… यह सच्चाई मैं बचपन में सुनी थी… जो आज एक किस्से के रूप में सामने आई है…..!

स्वलिखित

रश्मि झा मिश्रा 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!