सच्चा इंसान

बात उन दिनों की है जब मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ा करती थी।  कॉलेज खत्म होते ही कॉलेज के गेट पर एक छोले भटूरे वाले अंकल अपनी रेड़ी लगते थे।  भूख इतनी तेज लगी होती थी कि बिना खाए रहा नहीं जाता था।

 एक  दिन की बात है हम चारों सहेलियां ने छोले भटूरे का आर्डर किया था।  वही बेंच पर बैठकर अपने प्लेट का इंतजार कर रहे थे।  तभी तकरीबन 60-65 साल के बुजुर्ग अंकल हमारे पास आए और बोले, “बिटिया सुबह से कुछ खाया नहीं हूँ अगर 5-10 रुपये  दे दो तो बहुत मेहरबानी होगी।”

अंकल को देखने के बाद मुझे मेरे दादा जी याद आ गए जो पिछले साल ही भगवान को प्यारे हो गए थे।  मैंने अपने पर्स में से  ₹10 का नोट निकालने के लिए  हाथ डालते हुए मैंने पूछा। 

” दादा जी क्या आप छोले भटूरे खाना पसंद करेंगे”

 बुजुर्ग मेरी तरफ देखते हुए बोले, ” बिटिया अगर खाना खिला सको तो इससे बड़ी मेहरबानी क्या होगी।”  मैंने तुरंत छोले भटूरे वाले अंकल को एक प्लेट और छोले भटूरे ऑर्डर कर  दिया। 

 अंकल ने अपने कपड़े की थैली में से कुछ 10-12 रुपये के सिक्के निकालकर अपनी कांपते हुए हाथों से  मुझे पकड़ाते हुए बोले, “बिटिया यह लो यह मैंने सुबह से जमा किए हैं इसे मिलाकर पैसे  चुका  देना।”

अंकल की बातें सुन मैं पूरी तरह से भावुक हो उठी।  ऐसा लगा कि मेरी आंखों से चंद पलों में आंसुओं की दरिया बह निकलेगी।  लेकिन मैंने अपने आप पर काबू किया।  मैंने अंकल से कहा, “अंकल आप अपने पैसे अपने पास रखिए अभी शाम को भी तो आपको खाना खाना है तब इसी पैसे से खा लीजिएगा।” 



 थोड़ी देर बाद छोले भटूरे वाले ने अंकल के हाथ में छोले भटूरे की प्लेट थमा दी।  अंकल प्लेट लेकर वहीं जमीन पर खाने के लिए बैठ गए। 

 अंकल को जमीन पर बैठे देख  मुझे अपनी लाचारी का अनुभव हो रहा था कि मैं उनको बेंच पर बैठने के लिए भी नहीं कह सकती थी नहीं तो मेरी सहेलियां और दुकानदार  शायद दोनों नाराज हो जाए।  एक भीख मांगने वाला आदमी को उनके बराबर में बैठने  के लिए मैंने जो  बोल दिया है। 

वो बेंच जिस पर मैं बैठकर छोले भटूरे खा रही थी ऐसा लग रहा था कि वह नीचे से मुझे काट रही हो।  मैंने तुरंत अपना छोले भटूरे का प्लेट लेकर अंकल के साथ ही नीचे जमीन पर उनके बगल में बैठ गई क्योंकि ऐसा करने के लिए मैं स्वतंत्र थी मुझे इस बात के लिए कोई मना नहीं कर सकता था।  ऐसा करते  देख मेरी सहेलियों ने गुस्से में मेरी ओर देखा। 

मेरी सहेलियां मुझे कुछ कहती उसी पल छोले भटूरे वाले दुकानदार ने  अंकल को अपने हाथों से उठाकर बेंच पर बैठा दिया और मुस्कुराते हुए मुझसे हाथ जोड़कर कहा, “बिटिया तुम भी ऊपर बेंच पर बैठ जाओ। बिटिया ग्राहक तो मेरे दुकान पर पूरे दिन आते हैं लेकिन सच्चा इंसान तो कभी कभार ही आता है। 

 छोले भटूरे वाले दुकानदार के आग्रह से मैं और अंकल दोनों बेंच पर बैठ गए थे।  लेकिन अंकल अपने आप को बेंच पर बैठे कंफर्टेबल महसूस नहीं कर रहे थे लेकिन मैंने उनको समझाया आप आराम से बैठ कर खाइए आपको कोई कुछ नहीं कहेगा। 

उस पल के बाद मुझे समझ आ गया था कि  सच्चा इंसान बनना इतना भी  मुश्किल नहीं है। 

उस पल के बाद मुझे समझ आ गया था कि  सच्चा इंसान बनना इतना भी  मुश्किल नहीं है। 

लेखिका : प्रियंका मुकेश पटेल

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