राय साहब – अरुण कुमार अविनाश

” राय साहब —— राय साहब — ।”– मैंने उच्च स्वर में पुकारा।

राय साहब ने मेरी आवाज सुन ली थी। वे ठिठके फिर मेरी ओर देख कर उन्होंने मुझें अपनी ओर आने का इशारा किया।

इस समय पार्क में मैं रोज़ की तरह वाकिंग और शारीरिक व्ययाम के लिये गया हुआ था। राय साहब भी इसी उद्देश्य से रोज़ाना पार्क में आते थे –आज भी वे रोज़ की तरह ट्रेक सूट और स्पोर्ट्स शूज़ में इसी उद्देश्य से आये हुए थे।

मैं लगभग लपकता हुआ उनके पास पहुँचा ।

हमनें आपस में एक दूसरे का अभिवादन किया – फिर उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रख कर सहज भाव से पूछा –” और कथाकार कैसे हो ?”

मेरा नाम अरुण कुमार है – कलम की शार्गिदिगी मैं अरुण कुमार अविनाश के नाम से करता हूँ – पर, राय साहब जो कि पश्चिम रेलवे के रतलाम मंडल में स्टेशन मास्टर है – जब से हमारी मित्रता हुई है – ये मुझें कथाकार के नाम से पुकारते है।

“मैं तो ठीक हूँ साहब। पर , दो दिन से आप कहाँ गायब थे? दोनों दिन मैंने आपका इंतजार किया –आपके बिना एक्सरसाइज में भी मन नहीं लग रहा था।”

” चार-पाँच दिन पहले बताया तो था कि, दो दिनों के लिये उज्जैन जा रहा हूँ –मिशन कर्मयोगी वर्कशॉप के लिये।”

मुझें याद तो नहीं आया पर ऐसा सम्भव था – बेध्यानी में मैंने सुना नहीं हो या , राय साहब ने बताया किसी और को हो – बहरहाल मेरी उत्सुकता चरम पर थी –” ये कर्मयोगी समथिंग है क्या ?”

” दो दिन का स्पेशल ट्रेनिंग प्रोग्राम है – जिसमें पब्लिक डीलिंग स्टॉफ को – परफॉर्मेस एंड बिहेवियर इम्प्रूव करने की समझाईश और ट्रेनिंग दी जाती है ।”

“सुना है कि बैंक स्टॉफ को भी इस तरह की ट्रेनिंग दी गयी है!”

“शायद।”

“वहाँ होता क्या है ?”


” चार्ट और उदाहरण के साथ बहुत सी बातें समझायी जाती है –जिससे कर्मचारी की कार्यकुशलता और उसके व्यवहार कुशलता में वृद्धि होती है – तुम तो ये समझों कि तुम्हारें लिये गुड़ न्यूज़ है।”

“गुड़ न्यूज़ ! वो क्या ?”

” कार्यशाला के दौरान कुछ स्टेशन मास्टरों ने रेलवे प्लेटफॉर्म पर, आस-पास, रेलवे पटरी पर होने वाले कई सत्य घटनाओं के बारें में बताया – जो एक के बाद एक – मैं तुम्हें सुनाऊँगा – अगर तुम्हें उचित लगें तो उसे विस्तार देना – वो अंग्रेज़ो की जुबान में कहते है न कि : – *Truth is stranger than fiction *  –  सत्य कल्पना से अधिक आश्चर्यजनक होता है।”

“मैं वे किस्से ज़रूर जानना चाहूँगा।”

” चलों किसी बैंच पर बैठते है ।”– राय साहब ने पसीना पोछते हुए कहा।

” पहले वो न कर लें जो करने के लिये पार्क में आये है।”

“ये भी सही है।”

फिर हम दोनों ने वे सभी व्ययाम किए जो रोज़ करतें थे – जब थक गये तो बैंच पर बैठ गये।

सांस जब व्यवस्थित हुआ तब राय साहब ने किस्सा सुनाना शुरू किया :–

उन दिनों मेरी पोस्टिंग चोरल नामक रेलवे स्टेशन पर थी। चोरल, महूँ-खंडवा खण्ड में एक छोटा सा स्टेशन है – चोरल की विशेषता ये थी कि गाँव होते हुए भी ये गाँव नहीं था – ज़रूरत की सभी चीजें यहाँ उचित मूल्य पर उपलब्ध थी – निकट का शहर एक तरफ महूँ और दूसरी तरफ बड़वाह था –  सड़क मार्ग से आधे घँटे के अंदर इंदौर पहुँचा जा सकता था – चोरल नाम पड़ने का एक कारण ये भी था कि गाँव चोरल नदी के तट पर बसा हुआ था – सर्वसुविधा युक्त गाँव इसलियें भी था क्योंकि रेल मार्ग और सड़क मार्ग ( इंदौर – खंडवा – इच्छापुर राष्ट्रीय मार्ग ) दोनों ही गाँव से गुजरते थे।

किसी निवासी ने गाँव के संदर्भ में तुकबन्दी भी की थी कि :–

आगे मोटर पीछे रेल।

ये है चोरल का खेल।

शाम के लगभग सात बज रहें थे ।

मैं उस समय सुबह आठ बजे से शाम बीस बजे तक ( 8:00 AM – 8:00 PM ) डयूटी पर मौजूद था। उन दिनों मीटरगेज की एक रेल गाड़ी महाकाल एक्सप्रेस जो उज्जैन से चलकर चोरल से होती हुई खंडवा जाती थी। उस गाड़ी का चोरल में पड़ाव ( स्टॉपेज) नहीं था। परन्तु, दस में से नो दिन मीनाक्षी एक्सप्रेस जो पूर्णा से जयपुर जाती थी – से चोरल में क्रॉसिंग होने के कारण – महाकाल एक्सप्रेस को चोरल में लगभग दस मिनट तक रुक कर जाना पड़ता था।

उस रोज भी महाकाल एक्सप्रेस आ कर खड़ी हुई और मीनाक्षी एक्सप्रेस को स्टेशन पर रिसिव करने की प्रक्रिया चल रही थी कि कुछ लड़के मेरे पास मेरे कार्यालय में आये और उन्होंने सूचना दी कि एक जनरल कोच में एक व्यक्ति अचेतावस्था में पड़ा हुआ है और एक युवती लगातार रो रही है।


तुरन्त मेरा वहाँ पहुँच पाना सम्भव नहीं था। मैंने उन्हीं लड़कों से कहा कि गाड़ी के गार्ड साहब को सूचना दे और   उन्हें कहे कि स्टेशन मास्टर से मिलते हुए जायें।

दो मिनट के अंदर गार्ड साहब मेरे पास थे – मैंने गार्ड साहब को वस्तुस्थिति समझायी – उन्हें अचेत व्यक्ति के पास भेजा और मीनाक्षी एक्सप्रेस पास होने के बाद मैं स्वयं वहाँ पहुँचा।

वहाँ यात्रियों की भीड़ लगी हुई थी । युवती अब रो तो नहीं रही थी पर बदहवास सी कभी अचेत व्यक्ति को – कभी भीड़ को – कभी रेलवे कर्मचारियों को – देख रही थी। गाड़ी के साथ चलने वाले GRP के ट्रेन गार्ड भी वहाँ आ चुके थे।

मैंने उस युवती से पूछताछ की – बातचीत के दौरान उसने बताया कि वह इंदौर से ट्रेन में बैठी है और अचेत व्यक्ति उसके पिता है जो खंडवा निवासी हैं – इंदौर में युवती का ससुराल है – पिता उसे मायके ले जाने के लिये इंदौर आये थे और अब ले कर जा रहें थे।

“आप चाहती क्या है ?”

”  जी !”

” मेरा मतलब है कि चोरल छोटी सी जगह है –  पर, थोड़ी बहुत मेडीकल हेल्प यहाँ भी मिल जाती है – यहाँ से बड़वाहा तक चालीस मिनट का सफर है – बड़वाहा बड़ी जगह है – वहाँ डॉक्टर और एम्बुलेंस दोनों की व्यवस्था पहले से रहेगी – आप चाहें तो खंडवा भी जा सकती है – जैसा बड़वाहा में अटेंड करने वाला डॉक्टर बोलें – वैसा कर सकती है।”

“जी, मेरे हसबेंड और ससुर दोनों ही इंदौर में डॉक्टर है  – हमें यहीं उतार दीजिये और मेरे हसबेंड या ससुर किसी को भी – टेलीफोन पर सूचना दे दीजिए –आगे ज़ैसा वे कहेंगें !”

” ठीक है ।”

मैं गार्ड साहब के साथ मेरे ऑफिस में पहुँचा – तुरन्त एक स्टॉफ के हाथों स्टेचर भिजवाया – गार्ड साहब को एक राइटिंग पैड दिया जिस पर उन्होंने मेमो लिखा – दूसरी काज़गी कार्यवाही की – सेक्शन कंट्रोलर को सूचना दी – अचेत व्यक्ति को दूसरे सहयात्रियों की सहायता से उतार कर पन्द्रह बाई बीस के वेटिंग हाल में रखा गया – गाँव के एक लड़के को समझा कर साठ मीटर दूर क्लिनिक कम रेसीडेंस वाले एक RMP ( रजिस्टर्ड मेडिकल प्रेक्टिशनर ) को तुरंत सब काम छोड़ कर – स्टेशन आने की सूचना भेजी – गाड़ी पहले ही लेट हो चुकी थी – गाड़ी चलवायी – गाड़ी विलम्ब होने की सूचना – कारण सहित सेक्शन कंट्रोलर को विस्तार से बताया – जब गाड़ी चलाने की जिम्मेवारी से मुक्त हुआ तब युवती से उसके ससुर एवम पति का फोन नम्बर लिया – तब तक RMP डॉक्टर भी आ चूका था – मेरे सामने डॉक्टर ने अचेत व्यक्ति की जाँच की – युवती बितर-बितर कर कभी मुझें – कभी डॉक्टर को – कभी अपने पिता को – देख रही थी – डॉक्टर ने मुझें एक गुप्त इशारा किया और अपना स्टेथोस्कोप समेटने लगा।

“मैं फोन करके आता हूँ।” –कह कर मैं वहाँ से मेरे ऑफिस में आ गया।

RMP डॉक्टर भी मेरे पीछे-पीछे मेरे ऑफिस में आ गया।

“क्या हुआ ?”

“राय साहब , कुछ नहीं बचा – कम से कम आधा घँटे पहले इस आदमी की डेथ हो चुकी है।” – डॉक्टर धीरे से बोला ।

“ओह!” – मैंने एक निःश्वास छोड़ा फिर युवती के ससुर का लैंड लाइन नम्बर डायल करने लगा – उन दिनों मोबाइल फोन जैसी चीज अस्तित्व में नहीं आयी थी – स्टेशन पर लैंडलाइन फोन भी हाल में ही लगा था – फोन कनेक्ट होने पर मैंने मेरा परिचय नाम और पदनाम से दिया – वस्तुस्थिति समझायी ।


“अभी उनकी क्या पोज़िशन है ?” – आतुर स्वर।

“एक लोकल RMP डॉक्टर से मैंने जांच करवायी है – उनके अनुसार  —–।” मैं इस तरह धीमें स्वर में बोल रहा था ज़ैसे बुदबुदा रहा होऊ।

“ओह! ये इसलियें पूछना जरूरी था ताकि अगर कोई उम्मीद हो तो मैं उस हिसाब से त्वरित कारवाही करुँ अब जबकि डेथ हो चुकी है तो मैं डेड बॉडी के हिसाब से कुछ तैयारी करता हुआ आऊँगा ।” – ससुर ने ज़ैसे स्पस्टीकरण दिया हो फिर आगे बोले – “मेरी बहूँ को मत बताईयेगा कि उसके पापा की डेथ हो चुकी है – नहीं तो उसको सम्भालना भी कठिन हो जायेगा।”

“जी।”

“डॉक्टर साहब आपकी फीस ?”– फोन रख कर मैं पास खड़े डॉक्टर से पूछा।

” अरे नहीं, उसकी कोई ज़रूरत नहीं – मैं तो इसलियें खड़ा हूँ कि कोई और सेवा हो तो बतायें।”

“आप घर पर ही रहियेगा – हो सकता है कोई जरूरत उस लड़की के लिये पड़े।”

“जी , बिल्कुल।”

मैंने डॉक्टर से हाथ मिलाया और उसे छोड़ने के लिये ऑफिस से बाहर निकला – मैंने देखा कि कम से कम पन्द्रह छोकरे – जो लम्पट ज़ैसे नामों से मशहूर थे – युवती के पास घेरा बना कर खड़े थे।

जरा सा गाँव था – गाँव में एक परी जैसी सुंदर युवती स्टेशन पर आयी है – भीड़ लगाने के लिये पर्याप्त कारण था – मैं तकरीबन सभी लड़कों को उसकी शक्ल-सूरत से पहचानता था – मुझें देखते ही भीड़ छटने लगी – उनमें से दो लड़कों को मैंने रोका और बाकी को जानें का इशारा किया – आधे मिनट में भीड़ गायब हो चुकी थी – मैंने देखा युवती स्टेचर पर लेटे पिता के शव के पास बैठी हुई – पिता के चेहरे पर साड़ी के आँचल से हवा कर रही थी।

मेरे अंदर से करुणा का भाव फूटा –युवती पर दया आयी  – उसे जमीन पर बैठी देख कर उन दो लड़कों में से एक को – जिन्हें मैंने रोका था – ऑफिस में से एक कुर्सी लाने को कहा – एक स्टाफ से कहकर बेटिंग हाल में लगा पंखा चलवाया – फिर युवती को समझाया कि उसके पिता अभी अचेत है – जबरदस्ती इंजेक्शन देकर होश में लाना उचित नहीं है – आपके ससुरजी ने कहा है कि वे एम्बुलेंस लेकर आधे घँटे में यहाँ आ जायेंगे।

वह मुँह से कुछ नहीं बोली सिर्फ सहमति में सिर हिला दी।

” आपकों कोई ज़रूरत हो ज़ैसे चाय पानी टॉयलेट तो निःसंकोच बतायें।”

” नो थैक्स।”

“मैं यही बगल में ऑफिस में बैठा हूँ ।”– कह कर मैं उन दोनों लड़कों को लेकर अपने ऑफिस में पहुँचा।


आवारा लड़के युवती के पास से टले थे पर दो-दो, चार-चार के समूह में अभी भी थोड़ी दूरी पर खड़े थे।

“इन लोगों को देख रहे हों !”–मैं ऑफिस की एक खिड़की खोल कर लफंगे लड़कों की ओर इशारा करता हुआ बोला।

” ह – ह – हाँ।” – दोनों का समवेत स्वर।

” इन लोगों को जा कर समझा दो कि दो मिनट के अंदर यहाँ से रवाना हो जायें – नहीं तो – आज की रात हवालात में भी गुज़र सकती है ! और उन्हें भगा कर दोनों वापस लोटों।”

मैं उन लड़कों को ड्यूटी पर लगा कर टिकट विंडो खोल दिया – अब मुझें वेटिंग हॉल में कुर्सी पर बैठी युवती दीख रही थी। थोड़ी देर के बाद , मेरी ड्यूटी समाप्त होने वाली थी। अतः मैं ड्यूटी ऑफ करने और चार्ज़बूक भरने ज़ैसे काम करने लगा।

चोरल मीटरगेज का छोटा-सा स्टेशन था जहाँ गिनती की कुछ गाड़ियां चलती थी – यही कारण था कि अन्य बड़े स्टेशनों की तरह यहाँ आठ घँटे की ड्यूटी न हो कर बारह घँटे की ड्यूटी थी।

ड्यूटी ऑफ करने के बाद मुझें डिनर भी बनाना था – ये तो अच्छा था कि निवास स्थान ऑफिस बिल्डिंग के बिल्कुल पास था। मुश्किल से बीस कदम की दूरी पर।

ठीक आठ बजे रिलीवर आ गया। मैंने चार्ज दिया – उस युवती के बारे में जानकारी दी – जरूरी बातें बतायी। इन कामों में सवा आठ बजे गये – मैं घर जाने के लिये उठा ही था कि ऑफिस की खुली खिड़की से किसी वाहन के आने की आवाज़ आयी।

“लगता है वे लोग आ गयें।” – मैंने बोला फिर लपक कर वहाँ पहुँचा।

युवती के ससुर मुझें ढूंढते हुए वेटिंग हाल में आयें।

” राय साहब कहाँ है ?” – उन्होंने मुझ ही से पूछा।

“जी, मैं हूँ राय।”

“सर, आपको बहुत बहुत धन्यवाद। हमें आने में थोड़ी देर हो गयी – दरअसल हर तरह का इंतज़ाम करने में थोड़ा वक़्त लग गया।”

” कोई बात नहीं।”

इस बीच एम्बुलेंस से उतरे दो प्रशिक्षित कर्मचारी शव को स्ट्रेचर से उतार कर एम्बुलेंस में शिफ्ट कर चूकें थे – युवती शव के साथ एम्बुलेंस में सवार हो गयी थी।

“राय साहब, किसी को पैसे वगैरह देने हो?”

“सर, कुछ भी नहीं – RMP डॉक्टर ने भी फीस लेने से इनकार कर दिया था – आप जाइये पहले ही काफी देर हो चुकी है।”

” अब काहे की देर! जो होना था ही चुका ।” –डॉक्टर साहब ने दार्शनिक भाव से कहा – फिर, मुझसे हाथ मिला कर – मुझें धन्यवाद कह कर – वे एम्बुलेंस पर सवार हुए – तुरन्त एम्बुलेंस स्टार्ट हुई और सायरन बजाती हुई रवाना हो गयी।

एक दो दिन तक उस वाकये की चर्चा हुई फिर सभी भूल गये।

तीन महीने बाद ।

शाम के सात बज रहे थे – मेरी नाइट ड्यूटी चल रही थी – उन दिनों मैं अविवाहित था इसलिये घर और नोकरी – दोनों की जिम्मेदारी निभानी पड़ती थी – मैं ट्रेक सूट पहने हुए – कानों में वाकमैन की लीड लगा कर – लगभग डांस करता हुआ – किचन में DVC (दाल-भात-चोखा) की तैयारी कर रहा था। प्रेशरकुकर में सेप्रेटर की मदद से तीनों एक साथ तैयार! एकाकी जीवन का बहुत बड़ा आधार!

साढ़े सात बजे तक खाना तैयार – अगले बीस मिनट में उदरस्थ। पाँच मिनट में वर्दी पहनों – दो मिनट में ऑफिस पहुँचों – राइट टाइम – ” मे आई कमिंग सर।”

तभी मुझें लगा कि कोई दरवाज़े की सांकल बजा रहा है – मैंने कानों से इयरफोन निकाली – वाकई सांकल जोर-जोर से बजाया जा रहा था – मैंने दरवाजा खोला – एक रेलवे स्टाफ दरवाजा खुलते ही –”ये लोग आपसे मिलना चाहते है।” – कह कर वह तेज़ी से वापस चला गया – मैंने आगन्तुक की ओर देखा – सामने एक अजनबी नवदम्पत्ति जोड़ा खड़ा था – मैं कुछ कहता उससे पहले युवती ने हाथ जोड़ कर मुझें नमस्ते किया फिर उसके पति ने भी उसका अनुकरण किया।

“जी ! मैंने आप लोगों को पहचाना नहीं !”

तब युवती ने तीन महीनें पहले की बात याद दिलायी  – मेरे सहयोग एवम सहायता के लिये आभार प्रकट किया – पति इतना भावविह्वल था कि उसने मुझें अपना कार्ड दिया – इंदौर में चाहें कैसी भी सहायता की आवश्यकता हो कॉल करने का निवेदन किया।

“वो तो मेरी ड्यूटी का पार्ट था !”– मैं संकोच पूर्वक बोला।

“नहीं सर, आपने ड्यूटी के अलावा भी बहुत कुछ किया था – जिस तरह से वे लड़के मुझें घेर कर खड़े थे – मुझें उन्हीं लोगों से डर लगने लगा था – रात का समय – अजनबी जगह – आप नहीं होते तो पता नहीं मैं क्या करती!” – युवती बोली।

” सर, सरकारी कर्मचारियों के प्रति आम जनता में रोष भरा हुआ है – रिश्वतखोरी– दुर्व्यवहार – भ्र्ष्टाचार –  असहिष्णुता ज़ैसे बहुत से दुर्गुण गिनवाये जाते है पर आपलोगों का ऐसा भी चरित्र है ! इसकी अनुभूति मुझें लाइफ में पहली बार हुई है।” – युवक बोला।

“सर, लोगों का नज़रिया तो मैं नहीं बदल सकता – हाँ , खुद को बदल सकता हूँ , बेहतर बना सकता हूँ – अन्यथा लोगों की नजर में – आपके गिनवाये सारे दुर्गुण डॉक्टरों में भी पाये जाते है । लूट खसोट बेईमानी का इल्जाम तो

आपके पेशे पर भी है । पर , वो डॉक्टर ही है जो संकट में प्राण रक्षा करता है।” – मैं खेद पूर्वक बोला।

” यस ,  यू आर राइट।”

” अंदर आइये – मैं चाय बनाता हूँ।”

“राय साहब , दरअसल हम लोग महाकाल एक्सप्रेस से खंडवा जा रहें थे – गाड़ी रुकी तो स्टेशन मास्टर ऑफिस में आपके बारें में पूछा फिर उन्होंने आपके स्टाफ के साथ हमें यहाँ भेज दिया है– हमारा तो लगेज भी गाड़ी में ही है।”

“ओह! मीनाक्षी एक्सप्रेस पास होने के तीन मिनट के अंदर ये गाड़ी भी चली जायेगी।”

दोनों ने एक बार फिर मेरा आभार प्रकट किया फिर वे लोग चलें गयें।

आज बीस साल से ज़्यादा वक़्त हो गया उस वाकया को घटे हुए – जो ज़ेहन के तल पर बहुत सारी घटनाओं के बोझ तले दबा हुआ था।

“अगर मिशन कर्मयोगी वर्कशॉप नहीं होता – अपने अंतर्मन की खुदाई नहीं की होती – तो , ये वाकया शायद ही याद आता। ” – राय साहब ने पटाक्षेप करते हुए कहा।

मैं अरुण कुमार अविनाश – मैंने मेरी पॉकेट नोटबुक बंद किया – पेन शर्ट की जेब में खोसा – राय साहब को इस घटना की जानकारी देने के लिये आभार प्रकट किया और अपने घर के लिये रवाना हो गया।

आखिर, कहानी में कुछ कल्पनाओं की छौक लगा कर – थोड़ा विस्तार देकर – कहानी को टाइप भी तो करनी थी।

धन्यवाद –आपका वही पुराना वाला :–

                                           अरुण कुमार अविनाश

 

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