• infobetiyan@gmail.com
  • +91 8130721728

चित्कार – डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा

#चित्रकथा

लगभग ढाई साल बाद मैं अपने गांव गई थी। माँ के गुजरने के बाद जैसे हमारा जहान ही लुट गया था। कभी इच्छा ही नहीं होती थी वहां जाने की। इस बार गर्मी की छुट्टियों में छोटे भाई और बच्चों की जिद की वज़ह से मैं अपने गांव गई। बच्चे बहुत खुश थे। भाई-भाभी ने पूरी कोशिश की थी कि हमें कोई कमी महसूस नही हो ।

गांव में ज्यादा कुछ तो नहीं बदला था बस दो चार लड़की लड़कों की शादियां हो गई थी। एक-दो लोग इस गांव के साथ-साथ दुनियां छोड़कर जा चुके थे। कुछ खपरैल घर पक्के मकान में तब्दील हो गए थे। रास्ते पर मिट्टी की जगह ईंटों को बिछा दिया गया था।

गावों में जब बेटियां मैके आतीं हैं तो पूरा गांव उनका पीहर ही होता है। शहर में तो कोई किसी को पूछे ना पूछे कोई फर्क नहीं पड़ता,लेकिन गांव में यह प्रथा आज भी है । किसी की भी बेटी पूरे गांव की बेटी होती है, सो बेटी का भी फर्ज बनता है कि वह भी सभी का हाल चाल जाने। मैंने भी सोचा था कि जाने से पहले सबसे भेंट मुलाकात करके ही जाऊँगी।

बहुत दिनों पर हम सभी भाई बहन जुटे थे इसलिए बातों बातों में कब रात का दो बजा पता ही नहीं चला। खा- पीकर हम सब सोने चले गए। मुश्किल से आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि मेरे घर से तीन-चार घर बाद वाले घर से अचानक सामुहिक रोने की आवाज आने  लगी थी। मैं दौड़कर कमरे से बाहर निकली । सबने यही अनुमान लगाया कि रोने की आवाज सुशीला बुआ जी के घर से ही आ रही है। हम सब दौड़ पड़े उनके घर की तरफ।

पूरा गांव उमड़ पड़ा था उसके घर में, बरामदा से

लेकर आंगन तक पैर रखने  तक का जगह नहीं था।मैं जैसे तैसे धक्का-मुक्की करते हुए घूस गई। वहां का दृश्य देखा तो एकदम से सन्न रह गई। नीचे जमीन पर सफेद रंग के चादर के नीचे एक लाश पड़ी थी।  वह किसी और का नहीं उनके इकलौते बेटे की थी। कारण अभी पता नहीं चल पाया था पर  घटना हृदय  विदारक थी। चारो तरफ से परिवार के लोग उसे पकड़ कर बेतहासा रो रहे थे। माँ -बाप ,भाई -बहन रिश्तेदार  रोये जा रहे थे। समूचा गांव आहत हो गया था। कैसे नहीं होता…सुशीला बुआ का इकलौता बेटा ही तो था उस सफेद चादर के नीचे !

सब एक दूसरे को चुप कराने में लगे हुए थे। वहीं पर एक नव -विवाहिता सी औरत स्तब्ध सी बुत की तरह बैठी हुई थी । शायद वह उनकी बहू ही थी। मेरी नजर उसी पर टिक गई। लग रहा था जैसे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता हो । वह कभी लाश को और कभी लोगों को एक टक से निहारे जा रही थी ।


इतने में पिछे से आवाज आई……”देखो तो कितनी ढीठ है ,कुलनाशी कहीं की….खा ही गई पति को….दो ही साल में लक्षण दिखा दिया। कोख में तीन महीने का बच्चा था गिरने का बहाना बना कर उसे भी चबा गई।”

दूसरी औरत जो सुशीला बुआ को  पानी का छींटा मार कर होश में ला रही थी

बोली-  “इसी को कहते हैं माँ और पत्नी में अन्तर- माँ को होश नहीं आ रहा है…बीबी गटर -गटर तमाशा देख रही है ,बड़ी घाघ है ये।”

बगल की चाची कह रही थी …”हे! भगवान  तूने अच्छा नहीं किया बेचारी के इकलौते बेटे को छीन कर! उठाना ही था तो…इस अभागिन को उठाते !”

कहा था मैंने सुशीला को-  “मैके में माँ बाप को खा गई  थी शादी से पहले चुड़ैल है चुड़ैल ! इसके पैर ही अच्छे नहीं थे…लो अब भुगतो।”

लोगों की टिप्पणिया नश्तर की तरह  किसी के दिल को   घायल कर सकती थी। मेरा हृदय भी द्रवित होने लगा।  सच में गावों के लोग  अपने मोटी अक्ल का परिचय दे ही देते हैं।

उन लोगों को मैं कैसे समझाती कि वह दहाड़ नहीं रही है  इसका मतलब यह नहीं है कि उसे दुःख नहीं है बल्कि वह बेचारी अचानक से होने वाले दुर्घटना से सदमे में बैठी है।

जाओ रे दुनियां वालों तुम्हें यह भी अंदाजा नहीं है कि जिसकी दुनियां उजड़ गई हो उसे दर्द कैसे नहीं होगा!

उस निस्सहाय से किसी को कोई सहानुभूति नहीं थी। ना ही कोई उसके पास नहीं जा रहा था। वहां मौजूद सारी नजरे उसे धिक्कार रही थीं। शब्दों के बाण से उसके हृदय को छलनी किया जा रहा था। 

उसकी आँखें शांत समुन्दर सी सबकी ओर निहार रही थी पर उसके अंदर के हाहाकार को सुनने वाला कोई नहीं था। उसके अंतर्मन के “चित्कार” से किसी को कोई लेना-देना नहीं था।

बिल्कुल उस अबला नारी  की चित्र की तरह जो मेरे मन-मस्तिष्क में अभी तक घूम रही थी!

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर,बिहार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!