पराये हुए अपने – मुकुन्द लाल 

 वृद्धा सुमित्रा ने अपने शरीर की जर्जर  हालत का अनुमान लगाते हुए उसने साकेत से कहा कि अब वह कुछ ही दिनों का मेहमान है इस धरती पर, कब प्राण-पखेरु इस चोला को छोड़कर उड़ जाएंगे कहना मुश्किल है। मुझे रजिस्ट्री आफिस ले चलो, तुमलोगों ने मेरी बहुत सेवा की है, जिसकी बदौलत ही मैं जिन्दा हूँ। तुमलोग जैसे बेटा-बहू भाग्यशाली को ही नसीब होता है आजकल के युग में। तुमलोगों ने प्यार व स्नेह के दम पर मुझे जिलाये रखा नहीं तो बहुत पहले ही मर जाती।

  साकेत और उसका छोटा सा परिवार जब दरिद्रता की चक्की में पिसने  लगा तो भूखमरी की नौबत आ गई। साहूकार से लिए गए कर्जों को अदा नहीं कर पाने के कारण उसकी थोड़ी सी जमीन और घर निलाम कर दिये गए तब उसने अपने गांव से शहर की ओर रूख किया था। 

  साकेत रोजी-रोटी और आशियाने की तलाश में उस शहर की ऊंँची-ऊंँची अट्टालिकाओं वाले मोहल्ले से लेकर झुग्गी-झोपड़ी वाली तंग गलियों में अपने छोटे से परिवार के साथ चलते-चलते वह थक गया था, उसके दोनों छोटे बच्चों के कंठ प्यास से सूखने लगे थे, तब उन्हें एक पीपल के वृक्ष के पास एक मंजिला छोटा-सा मकान दिखा था। उसकी पत्नी अलका ने उस मकान का दरवाजा खटखटाया था। कुछ मिनट के बाद ही, एक वृद्धा ने दरवाजा खोला, फिर लाठी टेकती हुई बाहर आई। पूछने पर अलका ने बतलाया था कि उसके बच्चे प्यासे हैं, थोड़ा पानी मिल जाता तो उसकी बड़ी मेहरबानी होती। तब वृद्धा ने कहा, “मुझे तो खुद चलना-फिरना मुश्किल है… अन्दर चापाकल है, उसे चलाकर पानी ले आओ” कहते-कहते खांँसने लगी। 

  खांँसी थमने पर उसने पूछा, “तुमलोग कौन हो?… कहांँ से आ रहे हो?” 

  “मांँजी!… हमलोग समय के मारे हुए बदनसीब लोग हैं, रोजी-रोटी की तलाश में भटक रहे हैं और सिर छिपाने के लिए जगह भी ढूंँढ़ रहे हैं “कहती हुई अलका एक बड़ा सा लोटा लेकर वृद्धा द्वारा बताये गये चापाकल की ओर उसके घर के अंदर चली गई। 

 ” कहीं रोजी-रोटी का जुगाड़ हुआ बेटा!… “.

 ” नहीं मांँजी! “साकेत ने कहा। 

  तब तक अलका पानी लेकर आ गई थी। 

  पीपल के वृक्ष के पास बने चबूतरे पर उनलोगों ने राह में खाने के लिए लाई गई रोटियांँ खाई, ठंडा पानी पीया, फिर शीतल हवा में राहत की सांँसें ली। 

  सुमित्रा अपने दरवाजे पर बैठकर उनकी गतिविधियों को ध्यानपूर्वक देख रही थी। उसके दिमागी पटल पर यादों की आंँधी चलने लगी। 



  सुमित्रा के पति की मौत एक दुर्घटना में बहुत पहले ही हो गई थी। उस वक्त उसका पुत्र चार-पाँच वर्ष का था। उसके पति सरकारी सेवा में थे। उसे पेंशन मिलती थी। यही पेंशन उसके बुढ़ापे की लाठी थी। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद भीख मांगकर गुजर-वसर करने की नौबत आ जाती। उसका मात्र पुत्र ही सहारा था। उसके पुत्र की पढ़ाई समाप्त होने के बाद, उसकी नौकरी दूसरे शहर में लग गई। फिर वहीं किसी लड़की से उसे प्यार हो गया। बाद में उसी से शादी कर उसने वहीं अपना घर बसा लिया। वर्षों पहले वह एक बार अपनी पत्नी के साथ आया था। उसके बाद दुबारा कभी भी उसने इस घर में अपना पैर नहीं रखा। उसको यह भी मालूम नहीं है अब कि उसका पुत्र कहांँ है, किस हाल में है। उसे जरा भी चिन्ता नहीं है कि उसने उसको पाल-पोषकर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, किसी चीज की कमी नहीं होने दी इस दौरान इस आस में कि कुछ हो या न हो मरने के बाद मुखाग्नि तो देगा, अंतिम समय में उसका पानी तो पैठ होगा। 

  उसकी आंँखें भर आई थी। उसने सिर घुमाकर आंँचल से अपनी आंँखें पोंछ ली थी। 

  क्षण-भर बाद उसने संकोच के साथ पूछा, “अब कहाँ जाओगे?” 

  “कहीं कोई ठौर-ठिकाना नहीं है मांँजी!…शाम भी होने को है।”

  “रात स्टेशन पर गुजार लेंगे” बीच में हस्तक्षेप करते हुए साकेत ने कहा।

  सुमित्रा की अनुभवी आंखों से उसकी बदहाली और तंगहाली छिपी नहीं रही। 

  उसने संकोच मिश्रित आवाज में कहा, “तुमलोग रात में छोटे-छोटे बच्चों के साथ कहांँ भटकोगे, मेरे घर में ही ठहर जाओ, इतने बड़े घर में मैं अकेली रहती हूंँ। एक दूर का रिश्तेदार रहता था, वह भी एक दो माह के बाद मुझे  अकेला छोड़कर चला गया।… वैसे तुमलोगों की मर्जी।”

  कुछ क्षण तक अलका साकेत का मुँह देखने लगी।

  साकेत ने कहा,” मांँजी!… आपको हमलोगों से किसी प्रकार की तकलीफ तो नहीं होगी। “

 ” तुमलोग मुझे मांँ भी कह रहे हो, फिर तकलीफ की बातें भी करते हो… मुझे कुछ दिक्कत नहीं होगी, मुझे अच्छा लगेगा। “

  पल-पल सुमित्रा खांँस रही थी, खांँसी से परेशान हो गई थी।

  साकेत अपने छोटे से कुनबे के साथ वहाँ ठहर गया था। 

  दूसरे दिन सुबह से ही सुमित्रा की तबीयत खराब हो गई थी। खांँसी से तो वह पहले से ही परेशान थी। बुखार ने भी उसे धर दबोचा था। 



  ऐसी स्थिति में एक बुजुर्ग महिला से अपना पिंड छुड़ाकर भाग जाना मानवता और इंसानियत के खिलाफ था। साकेत उसे लेकर हौस्पीटल के लिए रवाना हो गया। जाँच-पड़ताल के बाद पता चला कि वह तपेदिक(टी. बी.) से पीड़ित है। 

  डॉक्टर की सलाह के अनुसार उसका इलाज व उपचार शुरू कर दिया गया। 

  साकेत और अलका जिम्मेवारी के साथ उसकी सारी व्यवस्था में जुट गए थे। समय पर दवाएँ और निर्धारित खुराक देना, उसकी सेवा-शुश्रुषा व देख-रेख करना सगे बहू-बेटे से किसी भी माने में कम नहीं था अपितु उससे अधिक ही था। 

  सुमित्रा ने कहा भी था कि उसको अपने हाल पर छोड़ दो। क्यों उसके लिए कष्ट उठा रहे हो। उससे वेलोग अलग-थलग रहें, साकेत और उसकी पत्नी लाख छिपावें उससे लेकिन डाक्टरों और नर्सों की बात-चीत से उसको पता चल गया है कि उसको छूआ-छूत(संक्रामक)का रोग है। 

  “तो क्या हुआ मांँजी!… मेरी माँ को यह रोग हो जाता तो उसको अपने हाल पर तड़प-तड़प कर मरने के लिए छोड़ देता। घुट-घुट कर जिन्दगी जीते कोई पुत्र अपनी माँ को देख सकता है। क्या कोख से जो पैदा होता है, वही सिर्फ बेटा होता है?… वैसे भी कठिन से कठिन बीमारियों की कारगर दवा निकल गई है, जो मरीज को जल्द ही चंगा कर देती है। मैंने डाॅक्टर से सारी बातें समझ ली है। “

  उसका जवाब सुनकर वह मौन हो गई थी। 

  अलका ने अपने पति की बातों का जोरदार समर्थन करते हुए कहा था कि पहले आप ठीक हो जाइए। 

  इसी तरह साकेत सुमित्रा की मर्ज़ी से उसके घर में रहने लगा। दिन में वह रोजी-रोटी कमाने निकल जाता। अलका घर में उसकी देख-रेख और सेवा में जरा भी कमी नहीं करती। बच्चे भी दादी(सुमित्रा) से हिल-मिल गये। 

  एक ऐसा भी समय आया जब सही इलाज, दवा, उचित खुराक और सेवा के बल पर वह तपेदिक से मुक्त हो गई। उसमें सामान्य जीवन जीने की क्षमता आ गई। 

  देखते – देखते सुमित्रा साकेत के परिवार का हिस्सा बन गई थी. या वेलोग सुमित्रा के परिवार बन गए थे। सुमित्रा को साकेत, उसकी पत्नी और बच्चों के साथ संबंध सगा जैसा मालूम पड़ने लगा था। 

  कलांतर में साकेत अस्थायी तौर पर चपरासी के पद पर एक कम्पनी में काम करने लगा तो उसने सुमित्रा को घर का किराया देना चाहा, वह बिगड़ गई यह कहते हुए कि कोई मांँ अपने बेटे-बहू से रहने के एवज में किराया लेगा, ऐसा कर आइंदा उसको शर्मिंदा मत करना। उसका इस दुनिया में उनलोगों के सिवाय है ही कौन, उसकी मिट्टी का उद्धार भी उन्हीं लोगों को करना पङेगा। 



  लोग-बाग भी जानने लगे उस शहर में कि बुढ़िया का साकेत पुत्र है, अलका बहू है और बच्चे उसके पोता-पोती हैं। 

  साकेत का परिवार और सुमित्रा प्रेम, स्नेह, ममता और सहानुभूति से सराबोर शाश्वत रिश्तों के बंधन में बंँध चुके थे। 

  कई वर्षों के बाद साकेत की नौकरी पक्की व स्थायी हो गई थी। 

  उसके बेटा-बेटी सयाने हो गये। दोनों भाई-बहन स्कूल जाने लगे। 

  सुमित्रा को जब उसके दोनों बेटा-बेटी दादी कहकर सम्बोधित करते थे तो उसको बहुत सुकून मिलता था। उसे  गर्व महसूस होता था। वृद्धा भी उसे सगे पोता – पोती  से जरा भी कम नहीं आंँकती थी। 

  चौका-चूल्हा तो बहुत पहले ही साथ हो गया था। दोनों एक दूसरे के सुख-दुख में तन-मन-धन से सहयोग करते थे। सुमित्रा की जिन्दगी इन्हीं की सेवा-टहल पर नर्भर थी।

  अधिक उम्र होने पर उसको शायद विस्मरण हो गया कि उसने ही कभी इनको अपने घर में शरण दिया था। वह साकेत और उसके परिवार को अपना खून समझने लगी थी। उसके खून के हर कतरा में उनके प्रति प्रेम और स्नेह समाहित हो गया था। उसके लिए पराये अपने हो गये थे।                          जब सुमित्रा साकेत को उसके नाम अपना घर लिखने के लिए रजिस्ट्री आफिस जाने के लिए कहने लगी तब उसने संकोच के साथ कहा,”आपका बेटा तो बाहर में है ही मांँजी।” 

  “वह किस बात का बेटा?… जिसको लम्बे समय से देखा तक नहीं, जिसको यह भी परवाह नहीं है कि मैं जी रही हूँ या मर गई हूँ, किस स्थिति में हूँ। बेटा भी कहीं ऐसा होता है?” 

  उस दिन अचानक सुमित्रा का पुत्र उसके सामने बेहाल अवस्था में प्रकट हो गया। उसके चरणों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगा उसको माफ कर देने के लिए। उसने कहा कि उसकी पत्नी ने उसके साथ विश्वासघात किया, उसे धोखा दिया उसने। उसकी सारी धन-सम्पत्ति हड़प ली और अपने तथाकथित प्रेमी के साथ भाग गई। 

  कुछ पल तक वह मौन रही उसकी दास्तान सुनकर फिर उसने कहा, “मैं तुमको नहीं पहचानती हूँ, तुम कौन हो हो?… मेरा पुत्र साकेत है और बहू अलका है।” 

  उसके बाद सुमित्रा ने अपना चेहरा दूसरी ओर फेर लिया। 

#बंधन

          स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित

                         मुकुन्द लाल 

                         हजारीबाग (झारखंड) 

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