पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय – -पूनम वर्मा

नितिन बाबू शाम के समय दरवाजे पर बैठे चाय पी रहे थे तो देखा उनके बड़े भैया विपिन बाबू और भाभी रिक्शा से चले आ रहे हैं । अचानक इस तरह उनके गाँव आने से नितिन बाबू अचंभित थे । उन्होंमे उठकर स्वागत किया और हालचाल पूछने लगे । उनकी हालत दयनीय लग रही थी । पूछने पर भाभी फफक कर रोने लगीं ।

“बबुआ ! अब आपके सिवा हमारा कोई सहारा नहीं है । हम आपके शरण में आये हैं ।” कहते हुए वह फूट-फूट कर रोने लगी । नितिन बाबू की पत्नी उन्हें संभालने की कोशिश करने लगी । यह सब सुनकर नितिन बाबू चिंतित हो गए । उन्होंने भैया से पूछा,

“क्या हो गया भैया ! और अरविंद तो ठीक है न ! कहाँ है वह ?”

“उसके बारे में ना ही पूछो तो ठीक रहेगा । मैंने बचपन से उसे ऐशोआराम में रखा, शहर में आलीशान मकान भी बनवाया, लाखों रुपए इकठ्ठे किए, आखिर  उस इकलौते बेटे की खातिर न ! और उस नालायक ने मुझे आराम करने का झाँसा देकर खुद सबका मालिक बन बैठा और जुए और नशे की लत में सब गँवाता गया ।”

“भैया ! मैंने आपको तब भी समझाया था जब पिछले साल आप गाँव का घर और जमीन बेचने आये थे । लेकिन आपने मेरी एक न सुनी ।”

“मति मारी गई थी मेरी ! आज जब उसने हमदोनों को घर से निकालकर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया है तब सोचता हूँ ऐसा बेटा होने से निःसन्तान होना ही अच्छा था । भगवान न करे ऐसा किसी के साथ हो ।” कहते हुए विपिन बाबू फफक पड़े ।


तभी नितिन बाबू का बेटा शुभेंदु  ऑफिस से आया । वह उन दोनों की दुखभरी कहानी सुनकर भावुक हो गया । उसने अपने बड़े पापा को ढांढस बंधाते हुए कहा,

“बड़े पापा ! आप दुखी मत होइए ! अब मुझे नौकरी मिल गई है । आपको यहाँ कभी कोई कष्ट नहीं होगा । यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे दो-दो माता-पिता की सेवा करने का मौका मिल रहा है ।”

“सुन रहे हो नितिन ! इसीलिए कहते हैं- “पूत सपूत तो क्यों धन संचय और पूत कपूत तो क्यों धन संचय !”

-पूनम वर्मा

राँची, झारखण्ड ।

 

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