परछाई – पुष्पा पाण्डेय

बचपन से परछाई से डरने वाली कांता ने आज अपनी  परछाई को ही अपना हमराज बना लिया।

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प्रन्द्रह साल बाद जेल में बीताने के बाद कांता जब घर लौटी तो सभी अपरिचित ही लगे। भाई जेल से लेकर आया तो भाभी को पसंद नहीं आया।

” अरे! इन्हें इनके ससुराल में छोड़ना था न। इतना बड़ा घर है, प्रोपर्टी है, इन्हें अब वहाँ  हक से अपने बेटे के साथ रहना था।”

“हाँ जायेगी, कुछ  दिन यहाँ रहकर सहज तो हो जाने दो।”

पाँच साल का बेटा अनुज था।जेल जाने के बाद उसकी नानी ने उसे अपने पास रख लिया था, ये कहकर कि जब इसकी माँ वापस आयेगी तो उसे ले जायेगी। नानी भी ज्यादा दिन साथ निभा न सकी। बेटी के साथ जो हुआ और फिर समाज की नजरिए ने उन्हें दीमक की तरह खोखला करता गया और अनुज को अपने बेटे के हाथों सौप कर आठ साल बाद दुनिया छोड़कर चली गयी।

कांता जेल जाने के बाद खामोश ही  हो गयी थी। एक- दो मुलाकातों के बाद उसने अपने भाई से भी कह दिया।

“भैया, अब आप अनुज को लेकर यहाँ मत आया किजिए। जेल के माहौल में उसे आना ठीक नहीं। “

“क्या करूँ? हमेशा जिद्द  करता है तुम से मिलने के लिए।  मैं इससे क्या कहूँ?”

“जो समझ में आए कह दीजिएगा।


कुछ दिन में भूल जायेगा और आप को भी यहाँ आने की जरूरत नहीं है।”

इतना कह कर कांता ने निगाहें फेर ली और अब उसके साथ सिर्फ उसकी परछाई रह गयी। अब वही तो उसका साथी है, हमदर्द है।———–

कांता प्रसव के लिए अस्पताल गयी थी। उसे क्या पता था कि अस्पताल से उसकी यात्रा जेल तक की होगी। दूसरे प्रसव के लिए पति और सासु माँ के साथ गयी थी। मन में एक प्यारी सी गोल-मटोल जीती-जागती गुड़िया की आस लिए। क्या पता था कि जिन्दगी इतनी बदल जायेगी।

एक खुशहाल जीवन था कांता का। एक सम्पन्न परिवार में पैदा हुई। अकेली बहन और भाई के साथ खिलखिलाती हुई काॅलेज की पढाई पूरी की और एक सम्पन्न परिवार की बहू बन गयी। पति बैंक में कार्यरत था। एक साल बाद ही बेटा हुआ। कहीं से कोई कमी नहीं थी। दोनों परिवारों में जैसे नित्य नये त्योहार मनाए जा रहे थे। ———–

कांता जब अस्पताल में प्रसव-कमरे से बाहर आई तो अपने बच्चे के बारे में जानने के लिए उत्सुक हो उठी, लेकिन नर्स ने गोल-गोल बातें कर उसे कमरे में सुलाकर चली गयी। नर्स को कुछ भी बताने से फिलहाल मना किया गया था।

पति से पूछने पर पति ने कहा-

” बच्चा थोड़ा कमजोर है। अभी नहीं मिलेगा।”

बेरुखी से दिए जवाब से कांता परेशान तो जरूर हुई।

“इतना तो बता दिजिए कि अनुज को भाई हुआ है या बहन?”

“जो तुम चाहती थी।”

छोटा सा उत्तर दे पति कमरे से बाहर निकल गए। दूसरे दिन भी बच्चा कांता को नहीं दिया गया। अब कांता इंतजार के सिवा कुछ कर नहीं सकती थी।अगले दिन सासु माँ घर जाने कि तैयारी करने लगी। कांता परेशान होकर चिल्लाती हुई डाॅक्टर्स के रूम में पहुँची तो उसके पाँव के नीचे की जमीन ही खिसक गयी।

“मैडम! आपके पति ने आपको बताया नहीं?

उन्होंने ने उसे पैदा होते ही उसे उसके समाज में देने का फैसला कर लिया था। कागजी कार्रवाई में दो दिन समय लगा।”


“उसके समाज में मतलब?”

“बच्चा, किन्नर था।”

कांता सुन्न सी हो गयी। पति ने इतना बड़ा धोखा दिया?

किसी तरह कमरे तक पहुँची। आते ही पति ने कहा-

” कांता, तुम मुझे गलत मत समझना। इस बच्चे के लिए अच्छा यही था कि वह अपने समाज में रहे।”

इतना सुनते ही कांता आपे से बाहर हो गयी और पास खड़े  पति को जोर से धक्का दिया। असावधान पति  वही बेड में लगे लोहे की सलाखों पर जा गिरे। लहूलुहान हो वहीं बेहोश हो गये। गर्म पानी के जग से सिर पर प्रहार कर दिया। चोट लगते ही बेहोश हो गये। डाक्टरों ने बचाने की बहुत कोशिश की पर होनी को कौन टाल सकता था। ससुराल वालों ने तो हत्यारिन ही घोषित कर दिया और सास ने स्वयं ही पुलिस बुला कर कांता को सौप दिया।

एक नारी के दर्द को दूसरी नारी समझ नहीं पायी। कांता की नियत पति की हत्या करने की तो नहीं थी।

क्रोध भले ही जायज था, लेकिन कानून की किताब में माँ की व्यथा की कोई जगह नहीं थी और आजीवन कारावास के रूप में प्रन्द्रह साल की सजा भुगतनी पड़ी। उसके नाम के आगे जुड़ गया, हत्यारिन। कांता को जेल की सजा का कोई गम न था, क्योंकि जो सजा तकदीर ने उसे दी है ,उससे बड़ी सजा तो कोई हो ही नहीं सकती है।

बाहरी दुनिया से तो कट ही चुकी, लेकिन उसकी परछाई ने कभी उसका साथ नहीं छोड़ी। इस अंधेरी जिन्दगी में सिर्फ परछाई हो तो साथ थी। यादों को भी वह अपने साथ नहीं रखना चाहती थी। उन्हीं यादों में अनुज भी तो था।

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय

राँची,झारखंड।

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