फुलवारी – विभा गुप्ता  : hindi stories with moral

hindi stories with moral :  ” आंटी….आप लोगों को ज़रूर आना है।” अपने पिता के साथ आई नित्या सुनंदा जी को निमंत्रण-कार्ड के साथ चार प्रवेश-पत्र(पास)देते हुए बोली।

   ” कितने बजे का प्रोग्राम है बेटा..।”

  ” आंटी…कार्ड में पूरी डिटेल है।बाय आंटी…।” कहकर वह जाने लगी तो गेट पर श्रीधर और महेन्द्र जी को देखकर बोली,” श्री अंकल…आपका पास भी आंटी को दे दिया है।आपको भी आना है।” और वह तेजी-से निकल गई।

      सुनंदा ने कार्ड एक तरफ़ रखा और लाॅन में रखी टेबल पर चाय रखने लगी कि तभी ‘भाभी जी घर पर हैं ‘ कहते हुए श्रीधर हा-हा करके हँसने लगे।

    ” भाई साहब…, आप भी ना…इस उम्र में भी मज़ाक…।” सुनंदा श्रीधर को चाय देते हुए अपने चिर-परिचित अंदाज़ में बोलीं।तब महेन्द्र जी चाय पीते हुए बोले,” सुनंदा…इस उम्र में क्या… इतने वर्षों से यही लाइन श्रीधर बोलते आ रहें हैं…अब तक तो तुम्हारे कानों को इसकी आदत हो जानी चाहिए थी…।”

  ” आप भी…., अच्छा…कल शाम को नित्या का डांस- प्रोग्राम देखने जाना है…आप लोग इधर-उधर निकल नहीं जाइयेगा।” सुनंदा जी ने महेन्द्र जी को याद दिलाया।

     ” भाभी जी…कल जाना है ना..अभी तो हम एक-एक बाजी खेल लें..क्यों मित्र..।” शतरंज के बोर्ड पर गोटियाँ सजाते हुए श्रीधर ने महेंद्र जी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।दोनों मित्र खेल में मगन हो गये।सुनंदा जी कार्ड पर छपी नित्या की तस्वीर देखकर सोचने लगी…कल तक तो यह डांस का नाम सुनकर रोती थी और आज….।एक लंबी साँस लेकर बोली, दिन कैसे बीत बीत गया, पता ही नहीं चला।ऐसा लगता है जैसे कल ही की बात हो…

       महेन्द्र जी PWD में इंजीनियर के पद पर कार्यरत थें।उनके सरकारी आवास में पत्नी सुनंदा थीं जो सुघड़ गृहिणी थीं और दो आज्ञाकारी बेटे थें जो पढ़ाई के साथ-साथ स्कूल के अन्य प्रतियोगिताओं में भी हमेशा अव्वल आते थें।उनके पिता कस्बे के स्कूल में हैडमास्टर थें।बेटी सुशीला के ब्याह के साल भर बाद उनकी माताजी चल बसी, तब वे इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर में थें।उनकी नौकरी लगने के बाद उनके पिता कुछ दिनों तक बेटे के साथ रहें थें।बहू आने के बाद साल में एकाध चक्कर लगा लेते थें।

        एक दिन महेन्द्र जी के पिता ने उनसे कहा,” अब जब दोनों बच्चे स्कूल जाने लगे हैं तो तुम अपना घर बनवा लो।एक दिन सरकारी आवास छिन जायेगा तब…।” उनकी पत्नी ने भी ज़ोर दिया तो उन्होंने ज़मीन खरीदकर पहली ईंट की पूजा कर करवाकर कंस्ट्रक्शन शुरु करा दिया।नीचे का तल्ला तैयार होते ही वे सपरिवार अपने घर में शिफ़्ट हो गये।आगे में लाॅन बनकर भी तैयार हो गया था।एक दिन अमित-सुमित को बैंडमिंटन खेलते देख वे पत्नी से बोले,” सुनंदा…बच्चों के रहने से ही ईंट-पत्थरों का मकान घर बन जाता है।कुछ सालों में तुम बहू उतारोगी…पोते-पोतियाँ दादी-दादी कहकर तुम्हारे आगे-पीछे घूमा करेंगे…।” 

   ” बस-बस…बहू तो तब उतारूँगी ना, जब आप ऊपरी तल्ले पर दो कमरे बनवाएँगे।” 

   ” हाँ-हाँ…याद है।” पत्नी की बात पर वे हँसते हुए बोले थे।अमित एक प्राइवेट बैंक में जाॅब करने लगा।दो साल सुमित भी कंप्यूटर इंजीनियर बन गया।अमित ने अपने ही सहकर्मी से विवाह कर लिया।छह माह माता-पिता के साथ रहने के बाद ‘बैंक दूर पड़ता है ‘ कहकर अमित पत्नी संग अलग घर लेकर रहने लगा।जिस दिन अमित जा रहा था, सुनंदा जी बहुत रोईं थीं।दुखी तो महेन्द्र जी भी थें लेकिन अपने आँसू पोंछकर पत्नी को दिलासा देते रहे।

      कुछ महीनों बाद सुमित को कनाडा में जाॅब मिल गई तो वह भी चला गया।देखते-देखते सुनंदा जी का हँसता-खेलता घर मकान बन गया।वे डाइनिंग टेबल पर बैठतीं तो बेटों की खाली कुर्सियाँ देखकर उनकी सिसकियाँ बँध जाती।हालांकि अमित कभी-कभार मिलने आ जाता और सुमित भी फ़ोन करके हाल-समाचार पूछ लेता था लेकिन घर तो उनका सूना हो गया था।फिर एक दिन सुमित ने बताया कि उसने वहीं की लड़की से कोर्ट मैरिज़ कर ली है…सुनकर तो उनकी आँखों के सामने अंधेरा ही छा गया था।घर बनवाते समय उन्होंने क्या-क्या सपने देखे थें…सब चूर-चूर हो गये थें।अब सुमित के फ़ोन की लाइनें डिस्टर्ब रहने लगी और अमित भी अपने काम की व्यस्तता के बहाने बनाने लगा।पत्नी को उदास देखकर एक दिन महेन्द्र जी ने पेड़ पर बने एक घोंसले की तरफ़ इशारा करते हुए उन्हें समझाया, ” ये घोंसला देख रही हो ना सुनंदा…चिड़िया ने अपने बच्चों को उड़ना सिखाया और एक दिन वे घोंसला खाली करके फुर्र से उड़ गये….।हमारी कहानी भी ऐसी है।” कहते हुए उन्होंने एक ठंडी साँस ली थी।

      फिर एक दिन अचानक अमित आया। बेटे को देखकर सुनंदा जी फूली नहीं समाई।बेटे की पसंद की खीर परोसते हुए उससे पोते-बहू के बारे में पूछती तो अमित हाँ-हूँ…में जवाब दे देता।रात को उसे कमरे में दूध देने गई तो अमित उनका हाथ पकड़कर बिठाते हुए बड़े प्यार-से बोला,” माँ…अगले महीने तो पापा रिटायर हो रहें हैं….क्यों न आप दोनों हमारे साथ रहें।अंश हमेशा मुझसे कहता है कि डैड…ग्रैंडमाॅम को लेकर आओ।”

     ” तेरे पास….फिर इस घर का क्या…तुमलोग तो इसे खाली छोड़ गये…और अब हम भी….नहीं बेटा…।”

  ” खाली क्यों माँ….इसे बेचकर मैं एक बड़ा घर खरीद लूँगा।पश्चिमी एरिया में तो बहुत बड़े और हवादार घर मिल रहें हैं।” अमित ने चहकते हुए कहा तब सुनंदा जी को समझ आया कि बेटा तो अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये अपने माता-पिता से उनका आश्रय छीनने आया था।रोते-रोते उन्होंने महेन्द्र जी को बेटे की इच्छा बताई तो गुस्से-से वे तमतमा उठे।जी तो किया कि अभी जाकर साहबज़ादे के गाल पर एक चाँटा जड़ दे लेकिन पत्नी ने रोक लिया और उनकी पीड़ा घुटकर रह गई।

        अगली सुबह महेन्द्र जी जब पार्क में टहल रहें थें, तब न जाने कैसे उन्हें चक्कर आ गया और वे बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़े।तब श्रीधर ही उनके मुख पर पानी की छींटे मारकर उन्हें होश में लाये।उन्हें बेंच पर बिठाकर अपना परिचय देते हुए बोले, ” पास ही मेरा घर है, आप चलकर थोड़ा विश्राम कर लीजिये।” महेन्द्र जी उनके आग्रह को टाल न सके।अपनी व्यथा बताते हुए बोले,” बताओ श्रीधर…मैं क्या करुँ?”

   तब श्रीधर बोले,” मित्र….,अपने अनुभवों से कह रहा हूँ  कि पिता का फ़र्ज़ तो आपने पूरा कर दिया है।बच्चों से कोई उम्मीद न करके आप दोनों आपस में ही खुश रहना सीख लीजिए।मेरे भी दो बेटे हैं या यूँ कहिये कि थे।पूर्वी एरिया में मेरी स्टील फ़ैक्ट्री थी।बड़े शौक से यह घर बनवाया था लेकिन….।मैं और मेरी पत्नी खुश थें कि बेटों ने फ़ैक्ट्री संभाल ली है।एक दुर्घटना में घायल होने के कारण मैं पंद्रह दिनों तक फ़ैक्ट्री नहीं जा पाया…, बेटों ने घर पर ही फ़ैक्ट्री के नाम पर मुझसे कई हस्ताक्षर करवा लिये….।फिर जब ऑफ़िस गया तो पता चला कि बेटों ने फ़ैक्ट्री अपने नाम करवा ली है।बहुओं के भी तेवर बदलने लगे।पत्नी का कमज़ोर दिल यह दुख सह न सका और एक दिन मुझे अकेला छोड़कर….।बेटे की नज़र तो घर पर भी थी लेकिन अब मैं कठोर बन गया और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।अब मैं और ये खाली मकान….।”

       महेन्द्र जी ने भी अब अपना कलेज़ा मजबूत कर लिया और अमित को वापस लौटा दिया।कुछ दिनों बाद सुमित ने भी फ़ोन करके बेहयाई-से पिता से कहा कि रिटायर होने के बाद उस घर में अकेले रहने से क्या फ़ायदा…कनाडा आ जाइये…घर को मैं….।”

 ” क्या घर को मैं….।” गुस्से-से चीख पड़े थे महेन्द्र जी।उस दिन के बाद से बेटों ने उनकी कोई खोज-खबर नहीं ली।सुनंदा जी ने ही आगे बढ़कर उन्हें फ़ोन किया कि तुम्हारे पिता की तबीयत ठीक नहीं है…एक बार आकर मिल लेते….।लेकिन फ़ोन डिस्कनेक्ट हो गया और उनकी बात अधूरी ही रह गई।

      एक दिन सुनंदा जी सब्ज़ीमंडी से वापस आ रहीं थीं  कि एक औरत को बेहोश होकर गिरते देखा।उन्होंने तुरन्त अपना थैला रखा और पास की दुकान से पानी लेकर उसके चेहरे पर छींटे मारे।उसके चेहरे से उसकी बेबसी झलक रही थी।उसे अपने साथ घर ले आई और चाय देते हुए पूछा,” अब बताओ बेटी…तुम कौन हो? यूँ अकेली…।” स्नेह पाकर वह फ़फक कर रोने लगी,” मेरा नाम सुधा है।शादी के दो साल बाद ही एक दुर्घटना में मेरे पति चल बसे।सास मुझे ज़िम्मेदार मानकर प्रताड़ित करती रहतीं है।ससुर मौन रहते हैं।दिनभर खटती हूँ, फिर भी पेटभर खाना नसीब नहीं होता।इधर दो महीनों से तो…।”

” दो महीनों से क्या…।” सुनंदा ने आश्चर्य-से पूछा।

” मेरे नंनदोई आकर मेरे साथ बत्तमीज़ी करते हैं।किससे कहूँ…कहाँ जाऊँ…, माँ पहले ही चल बसी थी, दो माह पहले पिता भी…।सोचा कि कुछ काम मिल जाये तो ससुराल छोड़ दूँगी लेकिन सबकी आँखें तो मेरे शरीर…।वह चुप हो गई।

    ” क्या काम जानती हो?”

  ” आंटी…मैंने नृत्य का पाँच वर्ष का कोर्स किया है।मेरा नृत्य देखकर ही तो मेरे पति ने मुझसे विवाह किया था…पर अब…।” सुधा की व्यथा सुनकर ममतामयी सुनंदा जी का हृदय रो उठा।उन्होंने अपने पति की तरफ़ देखा जो बहुत देर से अपनी पत्नी के चेहरे के भावों को पढ़ रहें थें।उनकी मौन स्वीकृति मिलते ही सुनंदा जी बोली,” मेरे पास रहोगी बेटी।”

      स्नेह के प्यासे तो दोनों ही थें।सुधा ऊपर वाले कमरे में रहने लगी।घर में बत्तियाँ जलने लगीं,डाइनिंग टेबल पर बातें होने लगी और सुनंदा जी का मकान फिर से घर बन गया। महेन्द्र जी ने अपने मित्र के स्कूल में सुधा को डांस टीचर की नौकरी दिलवा दी।

        सुनंदा जी ने सुधा को बेटी बना लिया तो वह भी उन्हें माँ और महेन्द्र जी को बाबूजी कहने लगी थी।एक दिन सुधा महेन्द्र जी बोली,” बाबूजी…शाम के समय बहुत बोरियत होती है।आप कहें तो आगे के हाॅल में…।” वह चुप हो गई।

   ” हाँ-हाँ…कहो बेटी..।”

  ”  छोटे बच्चों को डांस सिखाती तो…।”

  ” नेकी और पूछ-पूछ…।ये घर मंदिर बन जायेगा।” सुनंदा जी चहक उठी थी।पहले दो बच्चे आये, फिर दो से चार और चार से चौदह हो गये।उन्हीं में से एक नित्या थी।माँ की इच्छा से यहाँ तक आ जाती थी लेकिन फिर सुनंदा जी कहती,” मुझे डांस नहीं करना…।” फिर धीरे-धीरे ताली की थाप पर उसके पैर थिरकने लगे थे।बच्चों के आने से उनका घर भी हँसने-बोलने लगा था।तब उन्होंने अपने घर को फुलवारी नाम दे दिया।

       पिछले चार वर्षों से सुधा उनके पास है और उनका घर बच्चों के नन्हें-नन्हें पैरों की थाप से गुँजाएमान रहता है।श्रीधर नियमवत आते हैं, महेन्द्र जी साथ शतरंज खेलते हैं और सुनंदा जी हाथ से बनी चाय पीते हैं।कोई कुछ पूछता है तो सुनंदा जी हँसकर कहती हैं, ” हमारा घर बनाना सार्थक हो गया।

     ” माँ…कहाँ खोई हैं…कब से आवाज़ लगा रही हूँ…चाय ठंडी…।” सुधा ने कहा तो सुनंदा की तंद्रा टूटी,” अरे हाँ…वो नित्या का डांस-प्रोग्राम है ना…।”

   ” जानती हूँ…इसीलिये कल 6 बजे वाली क्लास को दूसरे दिन शिफ़्ट कर दिया है।लीजिये…पीकर देखिये…ठंडी हो गई हो तो…।” चाय का कप देती हुई सुधा बोली।

  ” अभी भी गरम है…।” सुनंदा जी मुस्कुराई और दोनों चाय की चुस्कियों का आनंद लेने लगीं।

                                  विभा गुप्ता 

# घर                           स्वरचित 

          जब हमारे अपने घर में कलह करके हमें दुख पहुँचाते हैं, तब पराये हमें अपने प्यार तथा स्नेह से उस मकान को फिर से घर बना देते हैं।सुनंदा और महेन्द्र जी के बेटे तो उन्हें विस्मृत कर दिया लेकिन सुधा ने उन्हें घर का एहसास कराया।

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