मैं कौन हूं (भाग 2) – शिव कुमारी शुक्ला  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi :

गोविंद जी बोले आपको कुछ नहीं सोचना है न करना है। आप परेशान न हो सारी व्यवस्था  हम खुद कर लेंगे। आप तो अपनी यह होनहार लड़की का हाथ मेरे बेटे के हाथ में दे दीजिए बस। बेटी के अलावा हमें कुछ नहीं चाहिए।आप चिंता न करें हम उसे अपनी बेटी की तरह ही पलकों पर बिठा कर रखेंगे।

शचि के पिता बोले पर अभी तो वह पढ़ रही है । उसकी परीक्षा तो हो जाने दो । वैसे तो उसे कौनसी नौकरी करनी है। हमारे घर में ही तो रहना है क्या करेगी परीक्षा देकर। 

महेंद्र जी -पूरी साल पढाई की है अब सिर्फ  दो महिने की ही बात है ग्रेज्यूयेशन की डिग्री मिल जायेगी।

गोविन्द जी ठीक है फिर हम बात पक्की समझें, आप निश्चिंत रहें आप को कोई परेशानी नहीं होगी।

महेंद्र जी फिर भी एक बार मैं शचि की राय  पूछ कर आपको बताता हूं।

उनके जाने के बाद महेन्द्र जी ने शचि एवं पत्नी  मधु से इस बारे में राय मशविरा किया। सभी को हिचक थी  कि इतने बड़े परिवार से हम रिश्ता निभा पायेगे। शचि उस परिवार में घुल मिल पायेगी । सारी शंकाओं, समस्याओं के ऊपर जीत हुई धन की। बेटी  के सुखद भविष्य की कल्पना करके उन्होने इस रिश्ते की स्वीकृति दे दी।

परीक्षा खत्म होते ही तीन माह बाद शचि बिरला बिरला परिवार की बहू बनकर आ गई। पन्द्रह दिन तो आवभगत, स्वागत सत्कार में पंख लगा कर उड गए। फिर वो हनीमून पर चले गए। दस दिनों बाद जब लौट कर आए तो ठोस धरातल से शाचि का सामना हुआ ।अनिश एवं पापा  सुबह अपने काम पर निकल जातो तो शाम तक ही लौटते। पीछे रह जाती सास बहू, बेटी भी अपने कालेज चली जाती।

अब दौर शुरु हुआ उस पर पाबन्दियों का, वह कहीं घर से बाहर आ जा नहीं सकती थी। हर समय भारी भरकम  साड़ी,गहने पहन कर  सिर पर पल्ला ले कर रहो। घर में खाने पीने  की कोई कमी नहीं थी। काम  करने के लिए नौकर-चाकर भी थे किन्तु उसका दम घुटता  । एक-एक साँस भी उसे उन लोगों की मर्जी से लेनी पड़ती।

कब खाना है. कब उठना है। कब सोना है सब समय से करना पड़ता। ऐसा लगता उडती, स्वच्छन्द चिडीया के पर काट दिये हों और उसे सोने के पिंजरे में कैद कर दिया हो ।वह खुल कर साँस लेने को भी तरस गई। न किसी से मिलना न फोन करना । सहेलियों से भी अनावश्यक बात करने की अनुमति नहीं थी ।

माता पिता के पास एक-  दो दिन भी रहने की अनुमति नहीं थी, बडी सी गाडी में भेजा जाता और घंटे भर में बापस आ जाओ। वह अपने जीवन से घवरा गई। धीरे-धीरे उसने उन परिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया। बाद में उसके दो बच्चे हुए जिनके पालन पोषण में उसने अपने को डूबो दिया। उसका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं रहा।

अनिश और मोनिशा उसे निपट अनपढ़ गंवार समझते । अनिश उसे अपने साथ ले जाने में शर्म महसूस करता। ताना मारता की  तुम छोटे घर   की क्या समझोगी ये बड़ी बड़ी पार्टीज कैसी होती हैं।  तुम तो घर में मुफ्त का खाना खाओ और  पडी रहो। बच्चों को सम्हाल लो उससे ज्यादा कुछ करने की  काबिलियत ही नहीं है  तुम्हारे पास।यह सब सुनकर वह बहुत दुखी  होती सोचती  सही ही  तो कह रहे हैं अनिश मेरा बजूद मेरी पहचान इन्हीं से  तो है ।

सेठ गोविन्दजी की बहू हूं, अनिश की पत्नी मिसेज बिरला हूँ, बच्चों की मां  हूँ इस  सबमें  में कहाँ हूँ। मेरी अपनी पहचान कहां है। ससुर जी ने उसकी जिस योग्यता को देख कर उसे अपनी बहू बनाने का फैसला लिया था उसे ही कुचल दिया गया, और वह विवश केवल एक घरेलू महिला बना दी गई जो सिर्फ अपने परिवार वालों के इशारे पर कठपुतली बन नाचे।

आज जब फिर अनिश ने उसकी योग्यता पर उंगली  उठाई तो सहन नहीं कर सकी और एक निर्णय लिया कि अपनी पहचान बनाऊँगी। बच्चे बड़े हो गए थे वे अपने कामो मे व्यस्त  थे  सो उन्हें उसकी अब उतनी जरूरत नहीं थी। सास ससुर भी अब उम्रदराज हो चले थे सो उनका नियंत्रण भी अब शिथिल हो गया था।

उसके सामने समस्या थी बाहर जाकर कुछ नहीं कर सकती थी। उसने सोचा आजकल सोशल मिडिया का जमाना है क्यों न घर में ही कुछ करुं। फेस बुक  पर सर्च करने के बाद उसे कई ग्रुप मिले, जिनसे वह जुड सकती थी। उसमें लेखन प्रतिभा गजब की थी वह पहले लिखती भी थी। कभी कभी लोकल पत्रिकाओं, कालेज मेगजीन में उसकी  रचनाएं प्रकाशित होती रहती थीं, सो वह  एक ग्रुप

कथा कुंज  साहित्य सेवा परिषद  (रजि )से जुड गई और बेटियां .इन पर अपनी रचनायें भेजने लगी। यह ग्रुप साप्ताहिक प्रतियोगिताएं भी करवाता था सो उसमें रचनाएं भेजने पर वह कई बार विजेता भी रही।  उसकी रचनाओं को पाठकों द्वारा  पढा जाता और उनके लाइक और   कमेंट्स उसका उत्साह वर्धन करते। इससे उसका खोया आत्मविश्वास लौटने लगा अब वह जी-जान से लेखन में  जुट गई। उसकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो गई।  जिन पर श्रीमती शचि बिरला के स्थान पर केवल उसका नाम शचिअग्रवाल था जो उसकी पहचान था।

 आज जब उसके पास लेखक सम्मान 

समरोह में सम्मिलीत होने का निमंत्रण पत्र आया क्योंकि उसे भी सम्मानित किया जाना था तो उसने अनिश को निमंत्रण पत्र दिखाया और साथ चलने को कहा। निमंत्रण पत्र देखते ही  अनिश की आँखे फटी की फटी रह गई। वह कभी शचि को देखता तो कभी निमंत्रण पत्र को। उसे विश्वास ही नही हो रहा था कि शचि और एक लेखक के रूप में।

खैर वे दोनों वहां पहुँचे और जब स्टेज पर शचि का नाम पुकारा गया तो बरषों पुराना दृश्य उसकी आंखों के आगे घूम गया जब कालेज में ऐसे ही पुकारने पर वह स्टेज पर जाती थी। उसे सम्मानित कर दोनों पुस्तकों की एकएक प्रति भी भेंट में दी गई। जब अनिश ने पुस्तकों पर शचिअग्रवाल  देखा तो शचि की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा ।

वह बोली हां,यह नाम ही आज  मेरी पहचान है।जो नाम मेरे माता पिता ने जन्म से मुझे दिया  था,जो मेरी पहचान था  कुछ दिनो के लिए श्रीमती अनिश बिसरला में खो गया था अब वह उभर कर वापस आ गया है और  मैं अब अपने इसी नाम से पहचानी जाऊंगी।

शिव कुमारी शुक्ला 

11-1-24

स्व रचित मौलिक अप्रकाशित 

बेटी के माता-पिता आजकल भेदभाव  न करके बेटी की भी अच्छी परवरिश करते हैं। फिर शादी के समय वे यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस बेटी को आत्म निर्भर, एवं स्वतंत्र विचारों वाली बनाया वो  कैसे  इतना अकुंश सह पायेगी। केवल  अच्छा घर बर ही माप दंड न मानकर बेटी के विचारों को जानकर उसी के अनुरूप रिश्ता  करें जहाँ वह खुल कर जी सके। उसे अपनी इच्छानुसार  कुछ करने की आजादी हो। अपनों से सम्बन्ध बना कर रख सके। जीवन साथी , साथी  हो न कि  केवल  दम्भ से भरा पति। ऐसे में तो वो घुट-घुट कर नित्य बेमौत  मरेगी। बेटी को ससुराल भेजो कैद में नहीं। 

ये मेरे अपने विचार हैं यदि आप लोग मेरे विचारों से सहमत है तो अपने कमेंट्स द्वारा जरूर अपनी सहमति प्रकट करें।

1 thought on “मैं कौन हूं (भाग 2) – शिव कुमारी शुक्ला  : Moral stories in hindi”

  1. Bilkul sahi kaha aapne jb betiyon ko bhi achi sikhsha di jati h aaj kal ke time pe to shadi ke time pr sirf ghar var ya phir dhan daulat hi kyu dekhte h mata pita??….

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