मां का ससुराल- शुभ्रा बैनर्जी  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : शुभि अब डरने लगी थी अपनी बेटी से।अपनी मां के प्रति होने वाले हर अन्याय का पुरजोर प्रतिरोध करने लगी थी वह।परिवार में किसी भी सदस्य के द्वारा मां का अपमान उसने भी प्रतिकार से देना शुरू कर दिया था।शुभि सोचती कभी -कभी”हे भगवान!किस मिट्टी से बनाया है तुमने इसे।इतनी हिम्मत कहां से आती है इसमें?अपनी मां की ढाल क्यों बना कर भेजा इसे?

“बेटी के बड़े होने के साथ-साथ घर का परिवेश भी बदल रहा था।अब पति भी बात-बात पर डांटने से पहले सतर्क हो जाते थे कि कहीं बेटी ना सुन लें।सासू मां भी बहू की अनुपस्थिति में बेटियों के साथ फोन पर बात करते समय बहुत असहज होने लगीं थीं। विद्यालय से घर आते ही बेटी खबरी की तरह दिन भर की जानकारी देने लगती।

अक्सर चिढ़कर पूछती”मां,तुम क्यों नहीं कहती हो किसी से कुछ?क्यों विरोध नहीं करती हो ?हर बात सहजता से स्वीकार करना सही नहीं है।जिनके लिए दिन -रात सोचती रहती हो तुम,वही तुम्हारी बुराई करतें हैं।दादी हमेशा नानी की बुराई करती रहतीं हैं पापा के पास।तुम तो नहीं करती उनकी और दादाजी की बुराई।”

शुभि उसे अपने पास गोद में बिठाकर कहती”अरे मम्मा,यही तो है ससुराल।यहां अपनी जगह इतनी आसानी से नहीं मिलती।एक नए परिवार में आकर सामंजस्य बिठाने में बहुत समय लगता है।तू इतना अपने दिमाग पर जोर मत डाला कर।मेरी ससुराल है ना,मैं संभाल लूंगी।”हर बार चिढ़कर बोलती वह”हां!हां ,पता है मुझे कैसे संभालोगी तुम।

छिपकर रो लोगी।पापा के सामने तो आवाज ही नहीं निकलती,ना ही दादी के द्वारा नानी के लिए कहें गए अपशब्दों का विरोध कर पाती है।कैसी बेटी हो तुम मां?अगर कोई मेरी मां के बारे में ऐसा बोले तो, मैं तो मार ही डालूं उसे।नहीं चाहिए मुझे ससुराल।नहीं करना मुझे शादी।मैं तुम्हारे ही पास रहूंगी हमेशा।तुम्हारी तरफ से बोलने के लिए।”

शुभि अब सच में घबरा गई थी।ससुराल के प्रति ऐसी नकारात्मक सोच अगर बेटी के मन में घर कर गई,तो भविष्य में बेटी को बहुत परेशानी होगी। नहीं-नहीं कुछ तो करना पड़ेगा,नहीं तो परिवार के बाकी लोगों से बहुत दूर हो जाएगी वह।अब शुभि ने खुद ही रास्ता निकाला।रोना बिल्कुल बंद कर दिया था।पति की डांट पर अब असहज नहीं दिखती थी।

बेटी को पिता के छोटे-छोटे काम करने पर लगा दिया।तबीयत खराब होने पर देखभाल का जिम्मा भी बेटी पर ही डाल दिया।रात की रोटी बनवाना शुरू कर दिया। जानबूझकर ख़ुद गलती करने लगी थी वह,और तब पिता की जगह मां पर गुस्सा होने लगती वह।

देखते-देखते पिता की लाड़ली बन गई थी,मां की चमची।इससे एक पुरुष के चोटिल अहं को बहुत सांत्वना मिल रही थी,यह बात शुभि की समझ में आ रही थी।उसका नुस्खा काम कर रहा था।हम औरतें ख़ुद को बेचारी बनाकर बच्चों की सहानुभूति लेने के चक्कर में गलत संदेश दे देतें हैं ससुराल के प्रति।

अरे मायके में भी तो अनबन होती है,पिता ,मां ,भाई -बहनों के साथ।जब उनके साथ हुए अनबन या विवाद हम भुला सकतें हैं तो ससुराल‌में वही सब होने पर शोषण की बातें क्यों करने लगतीं हैं हम औरतें?

खुश रहकर मुस्कुराते हुए मां को परिवार  चलाते हुए देखना,बच्चों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होता।शुभि ने भी ससुराल को कुरुक्षेत्र का मैदान कभी नहीं बनने दिया। सास-ससुर के प्रति आदर और सम्मान का भाव अंतर से रखा।अब उसकी देखा-देखी बेटी भी दादी के पैरों में मालिश करने लगी थी।दादी की आंखों से आशीर्वाद स्वरूप बहते आंसुओं को देखकर शुभि को अपने मन के छाले सूखते हुए लगते।

बेटी को हमेशा समझाया उसने “ससुराल एक सबसे बड़ी संस्था है,जहां हम एम बी ए ,एम बी बी एस,होटल मैनेजमेंट,इवेंट मैनेजमेंट, वित्त मैनेजमेंट,और जीवन विज्ञान (लाइफ साइंस)सीखतें हैं ।फीस के रूप में हमें अपनी कुछ खुशियां,थोड़ा समय,और निजता त्यागना पड़ती है बस।इस संस्था की बॉस होतीं हैं सास।कितनी भी बात सुनाएं,पर प्रेम करती हैं बहुओं से।

आसान कहां होता है दूसरे की जायी बेटी को अपना बेटा सौंपना।असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होकर शुरू -शुरू में जरूर रौब दिखातीं हैं,पर धीरे-धीरे अपनी जमीन पर दूसरे के घर के पौधे को ममता से सींचकर हरा -भरा कर लेतीं हैं।कभी नीम कभी शहद होती हैं सास।”

“बस -बस,तुम्हें ही मुबारक हो सास और ससुराल।मुझे नहीं करना शादी,बस।”बिटिया खिसियाकर कहती।

“हां-हां,सभी के नसीब में मेरी बेटी जैसी बेटी थोड़े ही होती है,मत करना तू शादी।मां भी नहीं बन पाएगी तो अपनी बेटी का सुख कैसे जान पाएगी?”शुभि भी चिढ़ाने से बाज नहीं आती थी।

अब बेटी ने दसवीं पास कर लिया था।किसी भी समारोह में उसे ले जाना नामुमकिन था।उसे पसंद नहीं था‌लोगों से मेलजोल बढ़ाना,शुभि के व्यवहार के विपरीत।कुछ कहने जाओ तो तुरंत कहती”देखो मम्मी,सारे गुण तुम्हारे ही नहीं मिलेंगे ना,कुछ तो पापा के भी हैं मुझमें।तुम निपटाया करो यह व्यवहार,समाज और समारोह।

मैं तो घर में पापा के साथ ही रहूंगी।”शुभि अब निश्चिंत हो रही थी,अपनी बेटी के बदलते व्यवहार से।इन दिनों पति के स्वभाव में भी बहुत बदलाव दिख रहा था।अब गुस्सा बहुत कम हो गया था।शायद बेटी से मन की बातें कह पाने का सुख था।शादी के बारे में उसके विचार जाने कब बदलेंगे?ससुराल के प्रति कब सकारात्मक सोच आएगी उसकी।अरे मैं प्रताड़ित नहीं हूं।वह तो एक दौर होता है ससुराल में तालमेल बनाने का।वह तो उन कड़वी यादों से निकलना ही नहीं चाहती थी।

शुभि भी हार मानने वाली नहीं थी।हमेशा परिवार की छोटी -बड़ी परेशानियों से बेटी को अवगत कराती रहती।कैसे दादी ने उसे और भाई को संभाला, तब जाकर मां नौकरी कर पाई।कैसे डिलीवरी के दौरान दादी ने निःस्वार्थ सेवा की अपनी बहू की।कैसे खाना खाने के समय दादी हमेशा शुभि से पूछती कि उसने खाया या नहीं?ये सब कम बड़ी बात नहीं।

इस बार सावन महोत्सव में कॉलोनी की महिलाओं द्वारा संचालित एक विशेष कार्यक्रम आयोजित होना तय हुआ था।शिक्षक होने के नाते किसी ने यह हिम्मत तो नहीं की कि शुभि को हरी साड़ी में झूले पर बैठकर खाने या स्टेज पर नाचने के लिए कहें।हां सांस्कृतिक कार्यक्रम में जजों के पैनल‌ में उसका भी नाम था।उसी से नृत्य नाटिका का‌ विषय पूछा गया था।

“ससुराल”हां यही विषय उचित लगा था शुभि को।जितना चटखारा ले लेकर महिलाएं अपनी सासों की बुराई करती थीं,उनके बच्चों के द्वारा उसी विषय पर‌ प्रस्तुति अच्छा सबक होगी। कार्यक्रम नियत समय पर आरंभ हुआ। अलग -अलग समूह में‌ बच्चों ने अलग-अलग प्रस्तुति दी।आखिरी नृत्य नाटिका देखकर तो शुभि भी चकरा गई।

उसी की लिखी कविता को स्वरबद्ध करके नृत्य नाटिका संचालित हो रही थी।कभी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई बनकर आई बहू।दूसरे दृश्य में महाभारत का समर दिखाया गया।अगले दृश्य में सास-ससुर की सेवा करती दिखी बहू।फिर‌ सास की गोद में सर रखकर‌ सोती दिखाई गई बहू।दादी की गोद में बच्चों को खुश दिखाया गया।

मेरे शब्दों को भावों में इतनी अच्छी तरह से कौन पिरो‌ सकता है?शुभि सोच रही थी।नाटिका समाप्त हो चुकी थी।पूरा हाल‌ तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था।सभी खड़े होकर तालियां बजा रहे थे।उसी ग्रुप को प्रथम पुरस्कार मिला।संचालिका‌अपने समूह की लड़कियों के साथ सर नीचे किए आई।अरे!ये तो मेरी मम्मा है,मेरी बेटी। अच्छा ,तो‌ मेरी कविता को स्वरबद्ध करना ,उस पर नृत्य नाटिका संचालित करना इसी का काम था।उसने मंच से पुरस्कार‌ की ट्राफी लेकर धन्यवाद में कहा” यह है मेरी मां का ससुराल।”

अब शुभि निश्चिंत हो गई।बेटी ने ससुराल‌ के दूसरे पहलू को भी समझ लिया था।अब कोई डर नहीं।मेरी बेटी शादी जरूर‌ करेगी।उसे भी मां के ससुराल जैसा ससुराल मिले जल्दी।

शुभ्रा बैनर्जी

#ससुराल

2 thoughts on “मां का ससुराल- शुभ्रा बैनर्जी  : Moral stories in hindi”

  1. Hum ladies hi kyun samjhti hain sb kuchh.
    Gents kyun nahi samjh paate. Parivaar unka bhi hai . Bachche unke bhi hain.

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