माँ का आँचल – आरती झा आद्या

लॉक डाउन क्या हुआ, गोविंद घर ही बैठ गया। एक नामचीन फैक्ट्री में सुपरवाइजर था समीर। तनख्वाह भी अच्छी थी। रहने के लिए फैक्ट्री के अहाते में ही दो कोठरी मिली हुई थी, जहाँ वो अपनी पत्नी और तीन साल का बेटा समीर के साथ रहता था। वही कुछ जमीन पर पति पत्नी मिलकर थोड़ी बहुत सब्जियाँ भी उगा लेते थे। रहने और खाने की समस्या हल हो जाने के कारण तनख्वाह के कुछ पैसे वो गाँव में रहने वाली माँ के लिए भेज देता था। गोविंद और उसकी पत्नी ने कई बार कोशिश कि माँ उनके साथ ही आकर रहें.. अकेली ना रहे। लेकिन माँ गाँव में थोड़े बहुत जमीन की देखभाल का हवाला देकर आने से मना कर देती थी।

     अच्छी भली जिंदगी चल रही थी कि कुदरत के बरपाए इस कहर ने सब कुछ छिन्न भिन्न कर दिया। फैक्ट्री बंद होने से काम का नुकसान होने लगा। जिससे मालिक ने भी कई कामगारों की छुट्टी कर दी। बदकिस्मती से उन कामगारों में एक गोविंद भी था। कुछ दिन बचाए पैसों से दिन रात कटता रहा और अब फांकें पर जिंदगी गुजरने लगी थी। पति पत्नी खाली पेट पकड़ समय गुजार लेते लेकिन तीन साल का बच्चा आधे पेट खाकर अब अधमरु सा लगने लगा था। उन्हें गमों की बदरी ने पूरी तरह से घेर लिया था।

     क्या करेंगे अब हमलोग। तुम दोनों के लिए एक वक्त का खाना भी नहीं जुटा पा रहा हूं… गोविंद अपनी पत्नी आभा से चिंतित हो कहता है।

     कल एक बस यही पुलिया पर से अपने गाँव के लिए जा रही है.. क्यूँ ना हम लोग भी चले चलें.. आभा कहती है।

     माँ को क्या मुँह दिखाऊँगा.. क्या कहेंगी वो.. गोविंद सुबकने लगता है।

     यहाँ भी काम कर रहे थे। वहाँ भी कुछ ना कुछ काम देख लेंगे, पहले घर तो चलो.. आभा सांत्वना देती हुई कहती है।




     ठीक है.. सामान बाँध लो.. मैं पुलिया पर जाकर पता करता हूँ। 

     नहीं माँ.. ये क्या कर रही हो.. तुम्हारे गहने बेच कर मैं काम शुरू करूँ.. नहीं ये नहीं हो सकता है.. गोविंद अपनी माँ के आँचल को बांधते हुए माँ से कहता है। 

      काम नहीं होने के कारण बेटे को रोज घुटते देख गोविंद की माँ आँचल भर कर गहने ले आकर सामने रख देती है। 

      तेरी ही मेहनत की कमाई से ही बनवाए हैं मैंने ये पगले.. तेरे ही तो हुए… बहू तुम ही समझाओ इसे.. माँ आँचल के गाँठ को फिर से खोलती हुई आभा की तरफ देखती हुई कहती है। 

 पर माँ.. गोविंद की पत्नी भी हिचकिचा रही होती है। 

कर्ज मान ले इसे.. जब पैसे आ जाए.. लौटा देना इसे.. कहकर सारे गहने बेटे को दे देती है। 

गोविंद भी पूरी हिम्मत से काम पर लग जाता है। एक छोटी सी कोठरी में अपनी पत्नी के साथ मास्क बनाने का काम शुरू कर देता है। पत्नी सिलाई के काम में माहिर थी तो आसपास के मास्क बनाने वाली फैक्ट्री से भी जुगाड़ कर वो काम लाने लगा। दोनों पति पत्नी दिन रात एक करके मेहनत करने लगे। अब स्थिति ये हो गई कि एक कोठरी का काम दो से तीन कोठरी में आ गया। साथ ही गोविंद और आभा ने उन लोगों को भी अपने साथ ले लिया, जो इस लॉक डाउन की वजह से दाने दाने को मोहताज हो गए थे। 

आज अब गोविंद के लिए जश्न था क्यूँकि उसने पाई पाई जोड़कर पैसा जमा किया था और माँ के सारे गहने ले आकर माँ के आँचल में डाल रहा था। शनै: शनै: मेहनत की खुशियों से गम परास्त होने लगा था।

सच ही है आभा… माता पिता को अपना मान उनके लिए सोचने से संस्कार बढ़ते ही हैं.. कितनी भी शूल हो रास्ते में.. फूल बन ही जाते हैं.. जैसे आज हमारे रास्ते के सारे शूल फूल बन गए.. खुशी हो या गम हर समस्या का समाधान होगा, जब संग होंगे हम..बोलकर गोविंद अपनी माँ और पत्नी को अपने आलिंगन में ले लेता है। 

 #कभी_खुशी_कभी_ग़म 

आरती झा आद्या (स्वरचित व मौलिक) 

दिल्ली 

सर्वाधिकार सुरक्षित

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!