एक पोस्टकार्ड –  मुकुन्द लाल

 मैं हवाई अड्डा के वेटिंग रूम में फ्लाइट का इंतजार कर रहा था। मेरा पुत्र सरकारी सेवा में कार्यरत था। हाल ही में प्रमोशन मिलने के कारण वह अपने विभाग में सुपरिटेंडेंट बन गया था। तरक्की मिलने के बाद पहली बार वह घर आ रहा था। 

  वहांँ पर गमलों में रंग-बिरंगी फूल खिले हुए थे, जिसकी खुशबू वातावरण को सुवासित करने के साथ ही उसमें ताजगी भी घोल रही थी। जिससे मुझे बहुत सुकून मिल रहा था। 

  मेरे जीवन के मंच पर कई दोस्त आये, उनलोगों ने अपनी-अपनी भूमिका अपने किरदार के अनुसार निभाई और फिर मुझसे दूर चले गये।

 जवानी के दिनों में मेरे दो मित्र नरेश और सुधीर आये, खेल, तमाशा, नाटक-नौटंकी का आनंद उठाया उनके साथ, मेरे पाॅकेट में पैसा रहे या न रहे उसकी परवाह नहीं थी। दोनों साथी दिल खोलकर मेरे पीछे पैसा खर्च करते थे, चाहे राजगृह का मलमास का मेला हो या गया और बोधगया में होने वाले समारोहों या सांस्कृतिक कार्यक्रमों के मौके हों उन लोगों ने कभी ऐसा मौका नहीं आने दिया कि पैसे के काउंटर पर भुगतान नहीं कर पाने के कारण मुझे शर्मिंदगी उठानी पड़े। उस समय मैं नहीं समझ पाता था कि उनकी दरियादिली उसकी गरीबी के कारण उपजी सहानुभूति थी या यदा-कदा पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों के प्रभाव के कारण था या चार-यारी का जोश-खरोश था।

  पड़ोसी शहर में , जब भी कोई मनोरंजक प्रोग्राम का आयोजन होता, चाहे सर्कस हो या प्रसिद्ध फिल्म देखने की बातें हो वे मेरे घर पर पहुंँच जाते। आर्थिक विवशता जाहिर करते हुए जब मैं इनकार करता तो वेलोग जबरन दोस्त के अधिकार से यह कहते हुए मुझे साथ कर लेते कि उसकी चिन्ता मुझे नहीं करना है। 

  दशहरा में नाटक खेलने का मुद्दा हो, दीपावली में पटाखा फोड़ने की बातें हो, होली में होलिका-दहन की लकड़ी जुटाने का दायित्व हो या लोगों को रंग लगाकर आनन्द मनाने के मौके हों, हम तीनों उसमें जी-जान से जुट जाते थे। उमंग-उत्साह और जोश-खरोश के साथ ऐसी गतिविधियों में भाग लेने  में ऐसी खुशियांँ प्राप्त होती थी, जिसको शब्दों में अभिव्यक्त करना नामुमकिन है। 

  तीनों मित्रों को कस्बे के लोग त्रिमूर्ति के नाम से पुकारते थे। कभी-कभी लोग व्यंग्य में ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी कहने से नहीं चूकते थे। हमलोग अपने कस्बे में जिस काम के लिए निकल जाते थे तो ऐसा शायद ही कभी मौका आया कि वह काम सफल नहीं हुआ हो। कभी-कभी कस्बे के वाशिंदों के गलत हरकतों के कारण उनसे उलझना भी पड़ता था, उनसे वाद-विवाद भी हो जाता था। उनमें मित्र नरेश बहुत हिम्मतवर था, वह खुलेआम ऐसे विरोधियों को चुनौती दे देता था। इसप्रकार संभावित दुखद घटनाओं के नहीं घटने से हमलोग राहत महसूस करते थे। 

  मेरे जीवन के मंच पर इनका रौल बहुत शानदार, प्रशंसनीय और खुशियाँ प्रदान करने वाला था

कालान्तर में मैं काॅलेज में पहुंँच गया था, आगे की पढ़ाई के लिए और वे दोनों व्यवसाय में लग गए थे।

  नरेश और सुधीर तीन-चार वर्ष व्यतीत होते-होते व्यवसाय के प्रति काफी गम्भीर हो गए। दोनों की फटाफट शादी भी हो गई।




  मैंने भी बी. एस. सी. कर लिया था। मेरे खुशियों के क्षण कैसे समाप्त हो गये कुछ पता नहीं चला।

  मेरे जीवन की असली चुनौती अब शुरू हो गई थी। पिताजी की उम्र लगभग ढल गई थी। मेरा बड़ा भाई प्राइवेट फर्म  में नौकरी करता था। उसके सिर पर अपने परिवार की जिम्मेवारी थी। उसका चौका-चूल्हा भी अलग था। मेरे पिताजी छोटा-मोटा धंधा करते थे। उनके पास बड़े व्यवसाय के लिए पूंँजी नहीं थी। मेरे इनकार करने के बाद भी वे चाहते थे कि अपनी जिन्दगी में ही शादी करके इस दुनिया से विदा लें जबकि मैं कहता था कि पहले मुझे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिए, स्वावलंबी बनने दीजिए। इस मुद्दे पर हमेशा उनसे तकरार हो जाती थी जिसको मांँ बीच में पड़कर मामले को सुलझाती थी।

  ना-नुकुर करते-करते एक-दो अगुआ भी पहुंँच गये। शादी भी तय हो गई किन्तु डांँवाडोल आर्थिक स्थिति और साधारण खपरैल घर देखकर कुछ दिनों के बाद ही लड़की पक्ष के लोगों को सुबुद्धि आई और उन लोगों ने शादी तोड़ दी। मैं बहुत खुश हुआ, पर मेरे पिताजी के दिल पर जबर्दश्त धक्का लगा क्योंकि इस घटना को वे अपनी मान-मर्यादा से जोड़कर देख रहे थे। उनको समाज और जात-बिरादरी में अपने अस्तित्व पर गम्भीर खतरा समझ में आ रहा था, जो मेरी समझ से बेबाहियात था। वे गमगीन रहने लगे। घर के लोगों के चेहरे की हंँसी-खुशी कपूर की तरह गायब हो गई थी।

  दो-चार दिनों के बाद ही फिर एक अगुआ का पदार्पण मेरे घर में हुआ। उसको न जाने किसने समझाकर उसके ज्ञान की पिटारी को ऐसा खोल दिया कि उसकी जुबान पर एक ही वाक्य चढ़ गई कि लड़का बी. एस. सी. है, बैठा थोड़े ही रहेगा, आज न तो कल उसे सर्विस मिल ही जाएगी।

  आखिरकार मेरी शादी हो ही गई। लड़की भी साधारण पढ़ी-लिखी थी। उस जमाने में खासकर कस्बों में बहुत कम प्रतिशत लोग लड़कियों को पढ़ाते थे। 

  शादी के बाद मेरी जिम्मेवारी बहुत बढ़ गई। बेरोजगारी मेरे सामने पहाड़ की तरह खड़ी थी। नौकरी के प्रयास में इधर-उधर दौड़ने लगा। कई लिखित परीक्षाओं में शामिल हुआ। दो-चार साक्षात्कारों का मुकाबला भी किया। जिस तरह सिर पर कफन बांधकर जवान युद्ध के मैदान में कूद पड़ते हैं, कुछ उसी अंदाज में मैंने भी एक मुहिम छेड़ दी। न मैं दिन देखता न रात, चिलचिलाती धूप हो या कड़ाके की ठंड, मैं परवाह नहीं करता, अनवरत प्रयत्नशील रहता।




  बहुत प्रयास करने और भटकने के बाद एक हाई स्कूल में जो मेरे कस्बे से दस-बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित था, वहांँ अस्थायी तौर पर सहायक शिक्षक के पद पर नियुक्त हुआ। वेतन भी बहुत कम था। उस समय हाई स्कूल कमेटी के द्वारा चलता था। लोगों को बहुत खुशी हुई। मेरे परिवार में आस बंधी कि कुछ तो शुरू हुआ, लेकिन यह मृगतृष्णा ही साबित हुई। प्रधानाध्यापक ने एक-दो माह का वेतन सुचारू रूप से दिया, फिर कोई न कोई बहाना लगा कर वेतन ही देना बन्द कर दिया। लेकिन मैं काम करता रहा बिना वेतन के ही। दस महीनों में उसने मात्र तीन माह के वेतन का भुगतान किया।

  मेरे घर में तंगहाली और बदहाली का साम्राज्य स्थापित हो गया। मेरी पत्नी पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गई। उसकी हालत देखकर मुझे ग्लानि होने लगी। मेरी अंतरात्मा मुझे धिक्कारने लगी। मैंने नाटक में सुदामा का रौल किया था किन्तु सुदामा का असली किरदार अब निभा रहा था।

  मेरा जीवन संकटों से घिर गया था। उस वक्त कभी-कभी मेरी कहानियाँ स्थानीय या बड़े-बड़े शहरों से निकलने वाली पत्रिकाओं में छपती थी। लोग-बाग प्रशंसा करते थे, कभी-कभी प्रशंसा-पत्र  भी डाक से आते थे। मुझे काफी खुशी होती थी। कस्बे में कुछ लोग पीठ पीछे यह भी कहते थे कि फलां का लड़का ग्रेजुएट करके ही कौन तीर मार लिया, उसका बेटा कम पढ़ा लिखा है, तो क्या हुआ, वह धुनकर पैसा कमा रहा है। जब मुझे लोगों द्वारा की गई टिप्पणी की जानकारी होती तो मैं मन में ही कहता कि सब समय का फेर है।

  जब उस रविवार को विद्यालय से घर आया तो पत्नी ने डाक से आया हुआ एक पोस्टकार्ड लाकर  दिया जो अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था। मैंने खिसिया कर कहा, “पहले चाय-पानी पिलाओ, तब यह पोस्टकार्ड पढ़ूंँगा, किसी रिश्तेदार का या किसी का होगा” कहते हुए मैंने पोस्टकार्ड वहीं पर रखी हुई एक किताब में डाल दिया।

  चाय-पानी पीने के बाद मैं किताब से पोस्टकार्ड निकालकर पढ़ने लगा। पत्र रांची से आया था। पढ़ने पर पता चला कि इसी कस्बे के जनार्दन बाबू का लड़का श्रीकांत ने पोस्टकार्ड लिखा है जो राँची में ही शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में प्रोफेसर है। पत्र में प्रकाशित एक-दो कहानियों की प्रशंसा संक्षिप्त रूप में लिखी गई थी, इसके साथ ही उन्होंने ने सलाह दी थी कि जब तक मैं बी. एड नहीं करूँगा, मुझे स्थायी नौकरी नहीं मिलेगी और न मैं विद्यालयों में सही मायने में शिक्षक बन सकता हूँ। उन्होंने बी. एड. करने के लिए मुझे रांची बुलाया था। प्रोफेसर साहब ने आश्वासन दिया था कि वे हर संभव सहायता करेंगे। वे नामांकन और रहने की भी व्यवस्था करवा देंगे।




  यही पोस्टकार्ड मेरे जीवन का टर्निंग प्वाइंट (निर्णायक परिवर्तन) साबित हुआ।

. श्रीकांत बाबू से एक कस्बे के होने के कारण मेरी जान – पहचान थी। रांची जाने के पहले मैं उनसे मिलता-जुलता था। वे बड़े घराने के अवश्य थे, थोड़ा रिजर्व भी रहते थे किन्तु थे वे प्रगतिशील विचारधारा के पोषक।

  रांची में रहते हुए भी उनका ध्यान मुझ पर था। वे नहीं चाहते थे कि  एक गरीब युवक का कैरियॅर बर्बाद हो जाए।

. मेरे जीवन के नाटक का दूसरा भाग एक सच्चे हितैषी के सहयोग से शुरू हो गया।

  रांची पहुंँचने पर उन्होंने अपने निवास स्थान में ठहराया। वे भी वहांँ अकेले रहकर पी. एच. डी. की तैयारी कर रहे थे।

  उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग काॅलेज  में नामांकन करवा दिया, खर्च चलाने के लिए दो-चार ट्यूशन खोजकर दिलवा दिया।

.इस तरह उनके डेरा में रहकर बी. एड. की परीक्षा भी एक वर्ष के प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उत्तीर्ण हो गया।

  उस दिन श्रीकांत बाबू ने मुझसे गुस्से में कहा,

 “अब मैं तुमको अपने डेरा में नहीं रखूँगा।” 

  “मुझसे क्या गलती हुई सर!” सहमते हुए मैंने कहा। 

  कुछ पल तक मौन रहने के बाद हँसते हुए उन्होंने कहा, “तुम्हारी नौकरी की व्यवस्था हो गई है, कल सुबह ही निकल जाना, स्कूल नया है लेकिन निकट भविष्य में उसको सरकारी मान्यता मिलने वाली है, वहांँ साइंस टीचर की सख्त जरूरत है। मैं एक पत्र प्राचार्य के नाम से दे देता हूँ।” 

पत्र लेते ही मुझे ऐसा महसूस हुआ मानों मुझे कारू का खजाना हाथ लग गया हो। 

  मेरा अंर्तमन गुनगुना रहा था

 ” कैसी है ईश्वर की माया 

  कभी धूप, कभी छाया। “

                   हवाई अड्डा से घोषणा होने लगी कि फ्लाइट आ गई है। 

  मैं उठा और तेज गति से चल पड़ा हवाई अड्डा के गेट की तरफ। 

      स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                    मुकुन्द लाल 

                    हजारीबाग (झारखंड) 

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