पहले करवा चौथ का नया चांद – शुभ्रा बनर्जी

आज शुभदा बहुत उत्साहित थी।और हो भी क्यों नहीं?कल बहू का पहला करवाचौथ है।जैसा उसने चाहा था,सुरभि तो उससे भी बढ़कर खूबसूरत है।शालीन है।कितना ख्याल रखती है उसका।यही सोचते सोचते कब आंख लग गई,पता भी नहीं चला।

मां! मां! शुभदा हड़बड़ाकर उठ गई।क्या हुआ बेटा?

कुछ नहीं मां,सुरभि उसके गले में झूलती हुई बोली।अभी आपके बेटे का फोन आया था।तैयार रहने के लिए कहा है।हम शाॅपिंग पर जाएंगे।हां तो अच्छा है ना।जल्दी से तुम तैयार हो जाओ।मैं नहीं आ रही तुम लोगों के साथ।मैं घर पर ही रहूंगी।आस पड़ोस की सुहागनों को निमंत्रण दे दूंगी मैं,कल आने का।सुनो बेटा सभी के लिए कुछ ना कुछ उपहार जरूर लाना तुम। अच्छा लगेगा सभी को।मैंने तुम्हारी मम्मी को भी फोन कर दिया है।

अच्छा मां।सुरभि खुश होकर तैयार होने चले दी।शुभदा अपने कमरे में आकर सोचने लगी।इतनी जल्दी समय कैसे बीत गया,सुधीर।अभी पिछले बरस तक तो हम दोनों ने यह व्रत हर साल किया था।कैसे हर साल तुम घर वालों को बेवकूफ बनाकर मेरे लिए व्रत रखते थे।पूरे घर में बदनाम थे”जोरू के गुलाम”नाम से। संयुक्त परिवार में रहकर भी,तुम्हारी रग रग में रोमांस बहता था।किसी न किसी बहाने रसोई में आकर मुझे निहारना और फिर अम्मा के हाथों पकड़े जाना।एक महीने पहले से मेरे लिए साड़ी और श्रृंगार का सामान लाकर छिपाकर रखते थे तुम।और मुझसे क्या मांगते थे” रात सबके हो जाने पर तुम्हारे साथ बाग में लगे पारिजात के पेड़ के नीचे,घंटों बतियाना।

अब देखो न कुछ भी पहनने का मन नहीं करता।एक भी साथी साड़ी नहीं हैं मेरे पास।पूरी आलमारी भरी पड़ी है चटक साड़ियों से।सुधीर से शिकायत करते करते शुभदा उनकी फोटो को हाथों में लेकर ध्यान से देखने लगी।सुन रहे हो सुधीर,अब मैं कल कैसे पानी पिऊं?चांद कैसे देखूं मैं।बोलते बोलते शुभदा की आंखों से आंसू सुधीर के फोटो पर पटकने लगे।

अरे ये क्या मैंने तो वादा किया था तुमसे,कभी नहीं रोऊंगी।उफ्फ सुयश आता होगा।तुम भी न।

और हां मैं अब भी मालकिन ही हूं।रानी हूं मैं अपने गांव वाले घर की।जैसे ही सुयश फुर्सत में होगा,मैं तुम्हारे पास आ जाऊंगी गांव में।पारिजात भी तो खिल रहें होंगे अब।सुनते हो , तुम्हारी बहू बहुत ही अच्छी है।मेरा बहुत ध्यान रखती है, बिल्कुल बेटी की तरह।कल उपवास भी रखेगी।पर एक बात बताऊं “यहां चांद नहीं दिखता जी,बड़ी बड़ी बिल्डिंग हैं ना।छत पर आता ही नहीं चांद।”चलो अब मैं जाती हूं।बेटा बहू बाजार जा रहें हैं।नहीं मैं क्या करूंगी ?

शुभदा आंखें पोंछ ये हुए सुधीर के फोटो को सलीके से मेज पर रखकर जैसे ही पलटी,दरवाजे पर सुरभि को देखकर चौंक उठी।अरे सुरभि !तुम वहां क्यों खड़ी हो बेटा?अंदर क्यों नहीं आईं?




“मां आप पापा को मिस कर रहीं हैं ना?”

अरे !नहीं तो,मैं भला उन्हें क्यों मिस करूंगी?मैं बहुत खुश हूं बेटा तुम्हारे साथ।

“हम्मम”सुरभि चुपचाप बाहर आ गई जहां सुयश गाड़ी में प्रतीक्षा कर रहा था।

अरे सुरभि ये करवा क्यों देखने लगीं भी?मां ने तो तुम्हारी पूजा की सारी तैयारी कर ली है पहले ही।

“सुयश,ये मैं मां के लिए ले रहीं हूं”।

क्या !पागल हो गई हो क्या तुम?तुम अनजान बनने का नाटक कर रही हो क्या सुरभि?मां अब सुहागन नहीं,वो ये व्रत कैसे करेंगी।”

किसने कहा ये आपसे?मांएं कभी विधवा नहीं होतीं सुयश”।उनका सुहाग विश्वास बनकर उनकी धड़कनों में जिंदा रहता है।

“सुयश मां पापा को,उस घर को,गांव को,वहां के लोगों को बहुत मिस करती हैं”।

“कुछ कहा क्या मां ने तुमसे,सुरभि?”

“सुयश हर बात कही नहीं जाती।मैं सारा दिन उनके साथ रहती हूं।कल जब पड़ोस की आंटी ने आकर मां से पूछा”बहन जी अभी और कब तक रहेंगी आप यहां बेटे के घर”?

मैं तुम्हें बता नहीं सकती मां के चेहरे में मानो स्वाभिमान मर सा गया।

बिना कुछ बोले उनकी आंखों ने उनका दर्द बयान कर दिया।सुयश पापा नहीं हैं अब पर मां ने उन्हें गांव में, अपने घर के हर कोने में तराश रखा है।वो यहां खुलकर नहीं रह रहीं।तुम्हें बुरा लगेगा इसलिए तुमसे कुछ नहीं बोलतीं।पर मैंने देखा है उन्हें छिप छिप कर रोते,अपने घर को याद करते।।आज मैं मां को उनका स्वाभिमान लौटाना चाहती हूं।जब तक वे स्वस्थ हैं ,गांव में स्वतंत्र होकर रहें।वो हमारे घर में नहीं,हम उनके घर में जाएंगे।जहां उनकी गृहस्थी गुजरी रानी की तरह,वहीं उन्हें रहने दो सुयश।उन्हें कमजोर और लाचार बनाकर अपने फ्लैट रूपी डिब्बे में मत बंद करो।उन्हें उड़ने दो पंछियों के संग,खिलने दो पारिजात के नीचे,बहनें दो नदी की लहरों की तरह।




आज सुयश मन ही मन ग्लानि से भर गया,जो बात एक पराई लड़की समझ गई ,वो मैं खून का अंश होकर भी नहीं समझ पाया।मुझे यही लगा रहा था कि अब मां  को हमारे साथ रखेंगें।कितना गलत था मैं,मैं क्या मां को रखूंगा?मां को तो मैंने बचपन से, कितने बच्चों की मां बनते देखा है।

घर आते ही सुयश अपना बैग जमाने लगा।शुभदा हैरान होकर देखने लगी”अरे कल इतना बड़ा त्योहार है।बहू का पहला करवा चौथ है,और तू बाहर जा रहा।

हां मां,बहुत जरूरी काम है।आता हूं मैं।

शुभदा को सुरभि के लिए बहुत बुरा लगा।ये सुयश ऐसा कैसे हो गया?इसके पापा तो पूरा दिन मेरे आगे पीछे घूमते थे।रात में चांद देखकर मुझसे कहते मेरा चांद तो धरती पर है।और ये नालायक।

रात १२ बजे शुभदा सरगी तैयार करने जैसे ही रसोई में पहुंची,सुरभि को देखकर दंग रह गई।

सुरभि ने एक थाली सजाकर मां के हाथों में लिया और बोली।”लीजिए बेटी ने तो मां को सरगी दे दी,अब मां बेटी को भी तो दे”।

शुभदा ने थाली पर से लाल कपड़ा हटाकर देखा,लाल साड़ी,श्रृंगार की सामग्री और करवा रखा था।

ये क्या है बेटा?ये मैं कैसे लूं?

“क्यों नहीं मां?तुम हमेशा से पापा के साथ ये व्रत रखती थी ना,तो कल भी रखोगी।हम कल गांव जाएंगे।गांव पहुंच कर शुभदा हैरान हो गई,इतना पुराना घर सोने जैसे चमक रहा था।बाग भी साफ सुथरा।सुयश अंदर से पूजा की थाली लेकर उपस्थित हुआ।

“अरे!तू यहां आया है!तूने तो कहा था कि जरुरी काम है तुझे।”

हां मां ये तुम्हारी बहू का प्लान था,सुयश ने हंसकर मां की आरती उतारी।

शाम को सुरभि ने शुभदा को तैयार किया।छत पर ले जाकर बोली”मां जैसे आज मेरा पहला करवा चौथ है ,वैसे ही आपका भी ये नया नया पहला करवाचौथ है।मैं चांद देखकर आपके बेटे को देखूंगी और आप चांद देखकर ,उसी में अपने चांद को देखना।

ये रहा मेरा उपहार अपनी मां के लिए।

शुभदा भींगी पलकों से एकटक सुरभि को निहारती रह गई और तभी जोरों की हवा चलने लगी।पारिजात के ढेर सारे फूल उड़कर शुभदा के आंचल में गिरे।

सचमुच आज मेरा भी पहला करवा चौथ है।

शुभ्रा बनर्जी 

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