किस्मत का करिश्मा – मुकुन्द लाल : Moral stories in hindi

देवांश अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करने के बाद रोज़ी-रोटी के लिए प्रयत्न करने लगा। लम्बा-चौड़ा सुगठित बदन और मजबूत कद-काठी होने के कारण उसने सिपाही और दरोगा की नौकरी के लिए प्रयास शुरू कर दिया, किन्तु कभी वह फिजीकल में छट जाता तो कभी लिखित परीक्षा में। इस तरह उसकी आकांक्षा पूरी नहीं हो सकी । उसका स्वप्न, स्वप्न ही बनकर रह गया।

   उसकी आर्थिक पृष्ठभूमि कमजोर थी। उसके पिता शिवांशु एक स्थानीय प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करते थे। किसी तरह उनके परिवार का गुजारा हो रहा था। उसका छोटा भाई राहुल और छोटी बहन चंदा मिडिल स्कूल में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। पाँच जनों का यह छोटा सा परिवार मुश्किल से गुजर-बसर कर रहा था। उसके परिवार के लोग छोटे-मोटे शौक भी पूरा नहीं कर पाते थे। कभी-कभार पास-पड़ोस के साथियों के सहयोग से ऐसे शौक पूरा करने का मौका उन्हें मिलता था। हर चीज के लिए उन्हें तरसना पड़ता था।

   अगर आमदनी नहीं हो तो एक आदमी का खर्च चलाना भी मुश्किल होता है। 

   कुछ इसी तरह की स्थिति देवांश के परिवार की भी थी।

   सरल जिन्दगी जीने वाले ये लोग छोटे से खपरैल मकान में रहते थे। गर्मी का मौसम हो, चाहे बरसात का या जाड़े का, हर मौसम में यह घर तकलीफदेह ही साबित होता था।

   जाड़े के मौसम में लोगों को गर्म कपड़ों की किल्लत तो थी ही, ऊपर से उसके घर के बगल में एक कांटेदार वृक्ष भी उनके दुखों में इजाफा कर देता था। उसके कारण उसके आंगन में धूप नहीं आती थी, जबकि बारिश के दिनों में वृक्ष की डालियों और पत्तों से टपकने वाले पानी की बूँदों से हमेशा घर व आंगन गीला रहता था। गर्मी और पतझड़ के मौसम में वृक्षों से गिरने वाले पत्तों का आंगन में ढेर लग जाता था। जिसकी सफाई करते-करते उसकी अधेड़ मांँ  हेमलता की कमर में दर्द होने लगता था।

   उस वर्ष जब वृक्ष की डालियों व पत्तों के कारण आंगन में धूप आना बंद हो गया और आंगन पत्तों से गंदा रहने लगा।  तब उसकी सफाई के कारण उसकी मांँ के हाथों और कमर में दर्द रहने लगा तो देवांश ने अपने अंतर्मन में फैसला किया कि जिन डालियों के कारण उसके आंगन में तकलीफों और मुसीबतों की बारिश होती है, उनको छांट(काट) देगा । अपने निर्णय को अंजाम देने के लिए वह कुल्हाड़ी लेकर कांटेदार वृक्ष पर चढ़ गया। उसकी मांँ मना करती रही लेकिन वह नहीं माना।

   डालियों को छांटने के क्रम में ही, जब एक डाली कटकर गिर रही थी तो उस डाली का कांटा बदकिस्मती से उसकी बांयी आंँख में चुभ गया बुरी तरह से। कुल्हाड़ी नीचे फेंककर वह असहनीय पीड़ा से चीखने लगा। किसी तरह वृक्ष पर से नीचे उतरा। तुरंत कारखाने में ड्यूटी कर रहे उसके पिताजी को मोबाइल से खबर की गई। कुछ देर के बाद ही वे साईकिल से घर पहुंच गए।

   आते ही उसने अपने पुत्र को डांँट पिलाई गैरजरूरी काम करने के लिए। उसने यह भी कहा कि जब उनलोगों का समय खराब चल रहा है तो उसे संभलकर चलना चाहिए। उसकी मांँ ने भी बतलाया कि कमर में दर्द होने के बावजूद उसने भी डाल काटने से मना किया किन्तु उसने जिद्द पकड़ लिया। 

   उसने घायल आंँख पर कपड़ा रखते हुए खिसिया कर कहा, “आपलोग शांत हो जाइए किसी का दोष नहीं है, सारा दोष मेरा है। मैं अपनी इच्छा से डालियों को काटने गया था।”

   उसके पिताजी ने बहस और विवाद की ज्वाला पर अपने शीतलऔर मृदु वचन का  ठंडा जल डालकर तुरंत उसको आंँख के डाॅक्टर के पास ले गए। उसने फौरन इलाज शुरू कर दिया। थोड़ी राहत मिली। दो सप्ताहों तक इलाज करवाने के बाद भी जब आंँख स्वस्थ नहीं हुआ तो बड़े शहरों में भी इलाज करवाया लेकिन आंँख ठीक नहीं हुई। उसकी बांँई आंँख की रोशनी स्थायी रूप से चली गई। अंत में डाॅक्टर की सलाह से बांई आंँख का औपरेशन करके एक नकली खूबसूरत आंँख लगा(फिट कर) दिया। फिर डाॅक्टर ने विकलांगता का सर्टिफिकेट देकर हौस्पीटल से विदा कर दिया।

   इस तरह एक हट्टा – कट्टा खूबसूरत नौजवान दिव्यांग(विकलांग) की श्रेणी में आ गया।

  वह आँखों पर हमेशा रंगीन चश्मा लगाये रहता था। सामान्य ढंग से देखने पर उसमें कोई कमी नजर नहीं आती थी। 

   आंँख के इलाज में समय तो बर्बाद हुआ ही किन्तु आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए काट-कपट कर रखी गई बची-खुची धनराशि भी समाप्त हो गई। कुछ कर्ज भी शिवांशु के सिर पर चढ़ गया।

   घर की माली हालत चरमरा गई। देवांश में अपराध-बोध की भावना घर कर गई। वह सोचने लगा कि घर की ऐसी हालत के लिए वह ही जिम्मेवार है।

   अपने पुत्र के गिरते आत्मबल की स्थिति और उसकी अवसादग्रस्त मनोदशा को दूर करने के लिए उसे ढाढ़स बंधाता यह कहकर कि वह घबराये नहीं, इस दुनिया में हजारों-लाखों लोग एक आंँख के हैं जो सफलतापूर्वक अपने कार्यों को निपटाते हुए जीवन जी रहे हैं। उसकी किस्मत ठीक थी, जिसके कारण एक आंँख इस घटना में बच गई और बच गई उसकी दुनिया उजड़ने से। वह चिन्ता नहीं करे, जो होना था सो हो गया।

   समय-समय पर उसे हेमलता भी समझाती व सांत्वना देती। 

   लाख माता-पिता के समझाने के बावजूद भी उमंग-उत्साह ने भी उसका पिंड छोड़ दिया। उसे ऐसा महसूस होने लगा कि उसे अब कौन नौकरी देगा। सरकारी जाॅब तो दूर की बात है, प्राइवेट फर्म में भी शायद ही कोई उस पर दया दिखाए। घर में बैठा-बैठा यही सब सोचता रहता। उसकी सरकारी नौकरी की उम्र भी तेजी से निकलती जा रही थी। वह विवश होकर अपनी किस्मत को कोस रहा था। उसके मित्रों की टोली भी उससे दूर हो गई। उसके संपर्क-क्षेत्र के लगभग सभी साथी किसी न किसी रोजगार से जुड़ गए, प्राइवेट सेक्टर में या सरकारी-क्षेत्र में। अधिकांश की शादी भी हो गई। सभी अपने-अपने घर-परिवार में  व्यस्त हो गए।

   उसके युवा और शिक्षित होते ही उसके परिवार के सदस्य आशा-भरी निगाहों से उसे देख रहे थे किन्तु उनकी आशा पर तुषारापात हो गया।

  शिवांशु किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ अपने परिवार को मुहैय्या करा रहा था। 

   ऐसे ही माहौल में उस दिन शिवांशु एक अखबार लेकर घर पहुंँचा, उसमें बैंक से भकेंसी निकली थी, जिसमें अत्यंत अल्प प्रतिशत दिव्यांग लोगों के लिए भी रिक्ति में आरक्षण था।

   उसे घनघोर अंधेरे के बीच आशा की एक पतली सी किरण दिखलाई पड़ने लगी थी पिता-पुत्र को। उत्साहित होकर उस रिक्ति के लिए आवेदन दिया। फिर लिखित परीक्षा में भी शामिल हुआ, जिसमें वह सफलतापूर्वक उत्तीर्ण हुआ। इस तरह लम्बे अंतराल के बाद उस कुनबे को सुखद क्षण नसीब हुए।

   बगल के शहर में ही उसे बैंक में एकाउंटेंट के पद पर उसकी बहाली हो गई।

   उस घर के माहौल में रची-बसी उदासी की जगह हर्षोल्लास ने अख्तियार कर लिया। बहुत दिनों के बाद उसके दिन फिर गए। उसके रहन-सहन में बदलाव आ गया। गर्द और गरीबी शनैः-शनैः अपने-अपने बोरिया बिस्तर को बांधने के लिए मजबूर हो गए। उसका पारिवारिक माहौल उमंग-उत्साह से सराबोर रहने लगा।

   बैंक में नौकरी लगने के पहले जवानी के दिनों में उसके दिल में उठने वाले प्यार-मोहब्बत की तरंगें जो मृतप्राय हो गई थी, वह अब पुनः उसके अंतस्तल में उठने लगी।

   उस दिन जब उसके टेबल के पास एक युवती आई, जो देखने में खूबसूरत तो थी ही, इसके साथ उसकी वाणी में सुगंधित फूल की तरह मधुरता व कोमलता भी मौजूद थी, जिसने उसके दिल को हौले-हौले स्पर्श करके, उसमें गुद-गुदी पैदा कर दी थी। उसके चलने के स्टाइल और चेहरे की भाव-भंगिमा आकर्षक थे। उसने पल-भर के लिए अपने चश्मे की ओट से उसको देखा, फिर उसने कहा, ” इस फार्म पर आपका हस्ताक्षर चाहिए।”

   उस युवती ने फार्म पर हस्ताक्षर करके दे दिया उसे। कुछ क्षण के बाद ही उसने उसका काम कर दिया।

   वह उस बैंक की कस्टमर थी। बराबर उससे उसका वास्ता पड़ता था। कभी पैसे निकालने, कभी पैसे जमा करने के क्रम में।

   इसी तरह के कार्य निपटाने के समय एक बार उसने तिरछी नजरों से देखते हुए कहा, ” आपका नाम आभा है?”

   “जी!”

   “आप शायद मेरी ही बिरादरी के हैं…”

   “कैसे मालूम हुआ आपको?”

   “टाइटिल से…”

   “आप तो बहुत दूरदर्शी मालूम पड़ते हैं।”

   “बिना दूरदर्शी बने यहांँ के काम का सफलतापूर्वक निपटारा करना मुश्किल है….”

   “आपके विचार तो बहुत सुलझे हुए हैं… कर्तव्यनिष्ठ भी हैं ” मुस्कुराते हुए आभा ने कहा।

   ” मुझे बेवकूफ़ मत बनाइए…”

  ” मैं सत्य कह रही हूँ। “

   जब-जब सप्ताह दो सप्ताह के अंतराल पर वह अपने काम से बैंक आती और अगर उसके काउंटर पर भीड़ नहीं होती तो  अक्सर उसके साथ उसी प्रकार विचारों का आदान-प्रदान होता। कालांतर में आपसी चर्चा की परीधी बढ़ते-बढ़ते पारिवारिक सीमा में प्रवेश कर गई। इस तरह दोनों एक-दूसरे के परिवारों के बारे में अवगत भी हो गए। 

नजदीकियां बढ़ने लगी जो प्यार में तब्दील हो गई। 

   बातचीत के क्रम में ही पता चला कि उसकी भी आर्थिक स्थिति कामचलाऊ है। उसके पिताजी कोई छोटा-मोटा व्यवसाय करते हैं, जिससे आमदनी बहुत कम होती है। किसी तरह उसके परिवार की दाल-रोटी चल जाती है। उस हिसाब से देवांश की आर्थिक स्थिति उस समय उससे कई गुना अच्छी थी।

   अब छुट्टियों में मौका निकालकर बैंक के बाहर भी दोनों मिलने-जुलने लगे, घुलने-मिलने लगे छुप-छुप कर, पार्कों, होटलों और शहर के बाहर प्राकृतिक परिवेश में।

   ऐसे ही एक मौके पर शहर से बाहर कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित जंगल की हरी-भरी वादियों की मादक फिजाओं और पहाड़ पर से गिरने वाले झरनों की संगीतमय नशीली ध्वनि का लुत्फ उठा रहे थे दोनों पत्थर की शिला पर बैठकर कि अचानक आभा ने सशंकित होकर कहा, ” कहीं ऐसा तो नहीं होगा देवांश कि तुम कालांतर में मुझे भूल जाओ!…”

   ” ऐसा कदापि नहीं होगा आभा… किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि तुम मुझसे अपना पिंड छुड़ा सकती हो।”

   “ऐसा कैसे हो सकता है… मैंने तुमसे दिल की गहराइयों से प्यार किया है… तुम्हारे साथ मैं कोई नाटक नहीं खेल रहा हुंँ… तुम्हारी शंका निराधार है। स्त्री एक बार अपने मन-मंदिर में जिसको अपने जीवन-साथी के रूप में बसा लेती है, उसको छोड़ना लगभग असंभव सा होता है। “

  ” हांँ आभा!… तुम्हारा कथन सत्य है, लेकिन… “

  ” लेकिन क्या?… “

  ” अगर कोई युवती मुझे अपने जीवनसाथी के रूप में अपना लेती है तो मैं अपने को भाग्यशाली समझूँगा और उसका जिन्दगी भर एहसानमंद रहूंँगा। “

   उसकी बातें सुनकर आश्चर्य से उसके चेहरे की ओर देखने लगी।

   कुछ क्षण के बाद उसने पुनः कहा,” मैं तुमसे सच कह रहा हूँ… मुझे माफ करना!… मैं तुमसे एक बात चालाकी से छिपाए हुए था, उस पर से जब पर्दा उठेगा तो शायद तुम उस सच्चाई का सामना नहीं कर सकोगी और मुझे छोड़कर जाने के सिवा तुम्हारे पास कोई रास्ता नहीं होगा” कहते हुए उसने अपनी आंँखों पर से चश्मा उतार दिया था।

   वह विस्मय से उसकी बांयी नकली आंँखें स्तब्ध होकर देखती रह गई थी कुछ पल तक।

   फिर उसने कहा कि महाशय ऐसा इसलिए ही कह रहे थे। 

   वातावरण में खामोशी छा गई थी। जिसको भंग करते हुए आभा ने कहा,” उसने प्यार किया है, कोई मजाक नहीं किया है देवांश के साथ। अगर मेरी आंँखें भी शादी के बाद किसी घटना में खराब हो जाती या अंधी हो जाती तो क्या वह मुझे छोड़ देता मुझे घुट-घुट कर मरने के लिए, मेरा त्याग कर देता?.. नहीं न!…”

   “वैसे यह तुम्हारी मर्जी है… तुम स्वतंत्र हो आभा, मुझे छोड़कर दूसरे के साथ घर बसा सकती हो, मुझे कोई आपत्ति नहीं है।… एक विकलांग को अपनाने से अच्छा है तुम मुझे भूल जाओ!… मुझे छोड़ दो अपने हाल पर… “

 ” ऐसा नहीं कहो देवांश!… मैंने प्यार किया है, सौदेबाजी नहीं की है।… प्रेम दिव्यांग नहीं होता है, वह सागर की तरह विशाल होता है। ऐसी छोटी-मोटी बातों के लिए उसमें जगह नहीं होती है। “

   उसकी बातों से देवांश का दिल उमंग-उत्साह से भर गया। उसका मन-मयूर नाच उठा। वह अपने को रोक नहीं सका आभा को अपने आलिंनपाश में बांध लिया।

   देवांश के घर पर उसकी जाति-बिरादरी के लोग उसके साथ अपनी लड़की की शादी करने के लिए आने लगे। शिवांशु खुशी से फूले नहीं समा रहा था। जीवन में उसे पहला मौका मिला था लाभ अर्जित करने का। आने वाले अगुओं के सामने ऐसी डिमांड रखी, जिसको शायद किसी को भी पूरा करना मुश्किल था। उसने लोगों के सामने शादी में सहयोग करने के नाम पर पन्द्रह लाख नगद, सोने के जेवरात और अन्य बेशकीमती सामग्रियों की मांग की।

   देवांश ने अपने पिता को समझाया कि अगर उसकी, नकली आंँख पर से पर्दा उठ गया तो क्या होगा कभी सोचा है इस बारे में, बीच में ही शादी टूट जाएगी। किसी तरह से हो भी गई तो लड़की तलाक ले सकती है।

   अधिकांश लोग तो उसके दरवाजे पर से निराश होकर लौट गए। किन्तु एक उच्च पदस्थ पार्टी आई, जिसने उसके पिता की मांगों को सहर्ष स्वीकार कर लिया किन्तु लड़की आभा की तरह खूबसूरत और व्यवहार कुशल नहीं थी। फिर भी उसके पिताजी लोभ के वशीभूत होकर उस लड़की से शादी करना चाहते थे जबकि देवांश उस शादी के खिलाफ था।

   पिता-पुत्र में इस मुद्दे पर मतभेद हो गया। अन्त में देवांश ने शिवांशु के सामने अपने प्यार को उजागर किय कि वह आभा से दो वर्षों से प्यार कर रहा है। वह जब भी शादी करेगा तो उसी से करेगा। 

   शिवांशु ने उसे लाख समझाया कि ऐसा मौका बार-बार जिन्दगी में नहीं मिलता है कि घर आ रही लक्ष्मी को मत ठुकराओ कि मत चूको कि धन तो मिलेगा ही कि घर सोने के जेवर और अन्य बेशकीमती सामान से भर जाएगा।

   इस पर देवांश ने जवाब दिया कि किसी के लेने-देने से कोई धनवान नहीं बनता है। किस्मत में धन आना होगा तो अपने-आप लक्ष्मी मेरे घर आ जाएगी।

   उसका पिता अपने पुत्र का जवाब सुनकर निरुत्तर हो गया। 

   देवांश ने अपने पिताजी को समझाते हुए कहा कि अगर किसी तरह से दूसरी लड़की से शादी हो भी जाए तो वह लड़की उसको छोड़कर जा भी सकती है। उस वक्त समाज में उसकी कितनी बेइज्जती होगी सो अलग से। किन्तु आभा मेरी नकली आंँख के बारे में सब कुछ जानती है। 

      अंत में एक सादे समारोह में देवांश और आभा शादी के बंधन में बंध गए।

      #छठवीं बेटियाँ जन्मदिवस प्रतियोगिता 

           पहली कहानी

   स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित

            ©®  मुकुन्द लाल

              हजारीबाग(झारखंड)

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