खोज खबर लेना – डाॅ संजु झा : Moral stories in hindi

बेटी  मीता की करतूत के कारण रमाकांत जी सिर झुकाए  भींगी आँखों से शून्य में निहार रहें हैं।जब दर्द अत्यधिक गहरा होता है,तो आँसू बिना रोएँ,बिना आवाज के ही बहने लगते हैं।आँसू को हाथों से पोंछते हुए रमाकांत जी सोचते हैं कि समाज में किस तरह अपना मुँह दिखाऊँगा?सारी इज्जत, प्रतिष्ठा बेटी के कारण धूल में मिल गई!

उनके सामने बैठी उनकी पत्नी शीलाजी पति की मनःस्थिति से बखूबी वाकिफ हैं,परन्तु अपने दिल को कैसे सांत्वना दें?फिर पति को उलाहने देती हुईं कहतीं हैं -“अगर आपने पहले से ही बेटी मीता की खोज-खबर ली होती,तो आज ये दिन नहीं देखने पड़ते!परन्तु आप तो उसे मुंबई भेजकर हाथ पर हाथ धरे भगवान भरोसे बैठ गए।”

पत्नी की ओर देखते हुए अपमान और क्षोभ के कारण उनके आँसू निकल पड़े।उनकी उदास और निष्प्रभ आँखें गम के समंदर में डूबी हुईं थीं।वह मन-ही-मन सोचते हैं कि सुसंस्कृत और प्रतिष्ठित परिवार में पली-बढ़ी उनकी बेटी मीता इतनी संस्कारहीन कैसे हो गई?उन्होंने तो उसकी परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ी थी!

एक बार फिर  उनकी पत्नी शीलाजी व्यथित होकर अपने दिल की भड़ास निकालते हुए पति से कहतीं हैं -“मैंने तो शुरु से ही बेटी मीता के मुंबई जाने का विरोध किया था।अगर उसकी जिद्द के आगे आप झुक भी गए ,तो उसकी खोज-खबर बराबर लेनी थी न!”

पत्नी की बातों का जबाव देते हुए रमाकांत जी कहते हैं -“शीला!तुम तो जानती हो कि तुम्हारी बेटी शुरु से ही जिद्दी रही है।अगर उसे मुंबई नहीं जाने देता,तो वह उसी समय घर छोड़कर भाग जाती।उसी समय समाज में थू-थू हो जाती।”

शीला जी-“आज तो हमारी इज्जत का जनाजा निकल ही गया,जब टेलीविजन पर सारी दुनियाँ ने उसे वेश्यावृत्ति के अपराध में गिरफ्तार होते हुए  देखा।हम कहीं मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहें।”

रमाकांत जी भी एक माँ की तड़प को समझते हैं,परन्तु कुछ न बोलकर बेबस -से खामोश हैं।पर मन में विचारों का मंथन जारी है।बेटा-बहू परदेस में रहते हैं।बस फोन से खोज-खबर लेते रहते हैं।इस उम्र में मुंबई जैसे शहर में बराबर बेटी की खोज-खबर लेना क्या आसान था?इस बात को वह किसे समझाए?

पत्नी शीलाजी उनके हाथ में चाय का प्याला पकड़ाते हुए कहतीं हैं -” चाय पी लो।अगर अच्छे दिन नहीं रहें,तो ये बुरे दिन भी नहीं रहेंगे।आगे भगवान जो दिन दिखलाएँ!”

हाथ में चाय का प्याला पकड़े हुए रमाकांत जी की यादों की धुंध गहराने लगी।पुरानी बातें बाढ़ के पानी की तरह हर हद को तोड़कर उनके दिलो-दिमाग को भिंगोने लगीं।उनकी बेटी मीता बचपन से ही चुलबुली और खूबसूरत थी।जैसे-जैसे वह बड़ी होने लगी,वैसे-वैसे उसका रुप-यौवन निखरने लगा।उसकी कमनीय काया और  नागिन-सी बलखाती चाल को देखकर लोग बरबस कह उठते -“रमाकांत जी!आपकी बिटिया में तो हीरोइन बनने के सारे लक्षण हैं।क्यों नहीं इसे मुंबई भेज देते हो?”

लोगों की ऐसी बातें सुनकर मीता के मन में हीरोइन बनने के अरमान जाग उठे,परन्तु माता-पिता का विरोध देखकर वह कुछ समय शांत रही।पढ़ाई-लिखाई में तो उसका मन खास नहीं लगता था,परन्तु योजनाबद्ध तरीके से वह मुंबई जाकर पढ़ने की जिद्द करने लगी।माता-पिता की ओर से स्वीकृति नहीं मिलने पर एक दिन उसने विद्रोह करते हुए कहा -“अगर आपलोग मुझे मुंबई जाने की इजाजत नहीं दोगे,तो मैं घर से भाग जाऊँगी।”

मनुष्य भले ही किसी से हारे या न हारे,परन्तु अपनी संतान से जरुर हार जाता है।माँ शीला जी ने कहा -”  कुछ पता है!इतने बड़े शहर मुंबई में अकेली कैसे रहोगी?”

मीता ने उतनी ही दृढ़तापूर्वक जबाव देते हुए कहा -“उसकी चिन्ता आपलोगों को नहीं करनी है!मेरी एक सहेली वहाँ है,उसी के साथ रहूँगी।”

रमाकांत जी ने गुस्से में कहा -” मीता!किसी तरह तुम्हें दो साल पढ़ाई के पैसे दूँगा।उसके बाद पैसे देना मेरे वश में नहीं है।”

मीता तो अभी सतरंगे ख्वाबों के घोड़े पर सवार थी,इस कारण उसने कहा -”  पिताजी!ठीक है।दो साल से पहले ही मैं अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊँगी।

 मीता  माता-पिता को आश्वस्त कर पढ़ाई के बहाने फिल्म में काम करने मुंबई निकल गई।परन्तु वहाँ जाकर मीता को समझ में आया कि सचमुच दूर के ढ़ोल ही सुहाने होते हैं।वहाँ जाकर उसे यथार्थ से सामना हुआ। देखते-देखते दो साल गुजर गए। काफी हाथ-पैर मारने पर भी उसे धारावाहिक में छोटे-मोटे रोल ही मिले।मुंबई जैसे शहर में कम पैसों में टिकना बेहद मुश्किल है।मीता अब घर लौटकर भी नहीं जा सकती थी।काम के लालच में वह देह-व्यापार के दलदल में फँसती

 चली गई।यदा-कदा माता-पिता को पैसे भेजकर झूठ कहती कि अब उसे अच्छा काम मिल रहा है।माता-पिता भी उसकी खोज-खबर लेने के बजाय उसकी बातों पर आँखें मूँदकर भरोसा कर लेते,परन्तु झूठ की नींव तो कच्ची होती है,उसपर बने महल भी कच्चे ही होते हैं।जब सच सामने आता है,तो पल में सब ढ़ह जाता है।

रमाकांत दम्पत्ति की बेटी के प्रति भरोसे की कड़ी एक ही झटके में टूट गई। टेलीविजन पर बेटी को पुलिस के साथ जाते देखकर उनकी आँखें  सावन-भादो की मानिंद बरस पड़ीं। दोनों की आवाजें भर्रा उठीं,मानों दोनों पश्चाताप करते हुए एक-दूसरे से कह रहें हों कि बच्चों को बाहर भेजकर खोज-खबर न लेने का परिणाम ऐसा ही होता है।परन्तु ‘अब पछताए होत क्या,जब चिड़ियाँ चुग गई खेत।’ 

समाप्त। 

लेखिका-डाॅ संजु झा(स्वरचित)

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