कहानी हर एक औरत की – रुचि पंत : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : बिना मंजिल बिखरते आंसुओ को सम्भाल सुलक्षणा अपना चोटिल चेहरा औरों की नजरों से छुपाकर, गुजरती हुई एक बस में जा चढ़ी।

उसे कोई शौक नही था, अपनी शादीशुदा जिंदगी समाप्त कर ससुराल से रातोंरात भाग खड़ा होना, जहा उसके मायके सामान पैसे, रुतबे, ऐशोआराम जरूर से ज्यादा मात्रा में थे, बस दोनों घरो में कमी थी तो पीढियों से अच्छे संस्कारों की नदारत लहर । 

इतनी सम्पन्नता के सामने संस्कारों का क्या मोल? जीने के लिए इतना तो बहुत होता है। क्या उसका यह कदम गलत हो सकता है? या शायद गलती उसी की हो? जैसा कि उसके परिवार वालों और ससुराल पक्ष को हमेशा से लगता आया है।

उसकी परिस्थितियों को समझने थोड़ा पीछे मूढ़कर उसकी पिछली जिंदगी में झाँकना होगा, क्योंकि इंसान की वर्तमान स्थिति उसके भूत में गुजरते और गुजारे गए दिनों के इर्द-गिर्द ही तय कर जाया करती हैं।

बहुत सालों पहले की बात है जब, उसके पिता का विवाह उनके किशोरावस्था में उसके दादाजी द्वारा संपन्न करा दिया गया था। दादा ने दहेज का धन जोड़कर एक सुनार की दुकान खोली, जो समय गुज़रते, सफलता के उच्चतम पायदान पर पहुँचने लगी ।

उनके निधन के बाद, पिता तुरंत उनकी संपूर्ण संचित संपत्ति के सीधे हकदार बन गए। धीरे-धीरे वे तीन बहने हो गई । पोते की ख्वाहिश पूरी करने दादी द्वारा विशेष पूजा- अनुष्ठानों के बाद कई सालों बाद उनके घर एक छोटा भाई आया।

उसके पिता जिस घर में जन्मे थे, वहां बहुओं को केवल रसोई और बच्चों की परवरिश तक सीमित रखा गया था।आगे के विषयों पर उनसे कभी कोई मशवरा नहीं लिया जाता था और यह प्रथा ज़माने से उनके खानदान में आज तक चली आ रही हैं।

लडक़े जो कि उनके बुढ़ापे का सहारा है उन्हें कोई बंदिशें नहीं। रही बात लड़कियों की तो उन्हें हल्का-फुल्का शादी योग पढ़ना होगा और घर गृहस्थी के कामों में निपुण,एक बार ब्याह गई फिर उनकी जिम्मेदारी खत्म, अपने भाग्य से जीती रहे। उनका इस घर से ना के बराबर सरोकार होगा क्योंकि अब उनका घर उनका ससुराल है।

अच्छे पैसेवाले घर से होने के कारण वे चारो शहर के सबसे नामी स्कूल में पढ़ने जाया करते थे, पढ़ाई लिखाई से दादी की तरह पिता को भी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

उनकी आगे कि रणनीति बिल्कुल पानी की तरह साफ़ थी, एक उम्र के बाद अच्छा दहेज देकर तीनों की संपन्न परिवार में शादी और भाई को जल्द से जल्द अपने पेशे में शामिल कर, अथाह दहेज लेकर उसकी भी शादी। वैसा ही जैसा दादा ने उनके साथ किया था ।

उसके पिता की दुनियाँ में सिर्फ पैसा ही एक मात्र ऐसी चीज थी जो अच्छी जिंदगी देने के लिए पर्याप्त है। ना तो पढ़ाई, संस्कार, सद्भावना, करुणा, ना ही कोई दान-पुण्य, यह सब उनके लिए समय और पैसे बर्बादी के रास्ते थे।

इन सब के बावजूद उपरवाला उनकी बरकत करते जा रहा था। धीरे-धीरे उनकी शहर में बहुत बड़ी आभूषण की दुकान हो गई, पिताजी का समाज और रिश्तेदारों में बहुत रुतबा बढ़ने लगा। दूर-दराज से लोग भारी ब्याज पर उनसे स्र्पये उधार लेने आने लगे। किसी का घर ही क्यों ना तबाह हो जाए मजाल है वे उनका एक पैसा भी माफ़ करदे!

समय गुजारता चला गया, उसकी दोनों बड़ी बहनों और भाई को शिक्षा रास ना आई, परंतु उसकी कई मिन्नतों और जिद्द के बाद दादी से वक़ालत करने की इजाजत इस शर्त पर मांगी कि जैसे ही उसकी पढ़ाई खत्म होगी, वो अपने पिता के कहे घर पर आँख बंदकर ब्याह कर लेंगी ।

हुआ भी कुछ ऐसा ही, एक के बाद एक दोनों बहनों को उनके ससुराल वालों की तिजोरी देख बिदा कर दिया गया।

कुछ सालों बाद अब वो एक वकील बनकर दादी को किये वादे अनुसार अपने पिता के नये बिजनेस पार्टनर के बेटे संग शादी के बंधन में बंध गई ।

वो मानती है कि उसकी परिवेश बाकी घरों की तुलना में बहुत संकीर्ण मानसिकता के बीच हुई है। जहाँ कोई अपना अलग रास्ता चुनने का साहस नहीं कर सकता, और खासतौर से बेटियों को तो कदापि नहीं, तब भी वो अपने भविष्य संजोने के सपने देखती रही।

वो अपने पूरे वंश की एकमात्र शिक्षित लड़की थी और आज के बाद एकमात्र ऐसी पत्नी भी, को गैर वक़्त अपना ससुराल छोड़कर भाग खड़ी हुई।

शादी तो उसने कर ली, मगर उसका मन उन चार दीवारों के अंदर कैद होकर अपनी शेष जिंदगी काटना बिल्कुल नहीं चाहता था ।

इसलिये वो समय देखकर अपनी वकालत को नियमित रखने अपने पति को मनाने की सोची, शायद उन्हें अपनी पत्नी की इच्छा, सपनों की परवाह हो! और वो उसके घरवालों की तरह बंधे विचार ना रखते हों।

लेकिन जैसा सोचा था, उसके विपरित उसने अपना जीवन मुश्किलों से भरा हुआ पाया ।

उसके पिता ने सिर्फ धन-संपत्ति और अपने बिजनेस को आगे बढ़ता देख उसकी शादी उस घर तयकर दी , लेकिन एक बार के लिए अपने बिगड़े दामाद के चालचलन पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। उसकी बहने इस मामले में खुशकिस्मत निकली, उनकी जिंदगी में उसके जैसी तकलीफें नहीं लिखी थी।

उसका पति शराबी, जुआ खेलने वाले,अन्य औरतों से शारीरिक रिश्ते रखने वाले और तो और बिना बात के उसपर हाथ उठाने वाले नासूर इंसान निकले! वो उन्हें पूरी तरह से समझते समझते टूटने लगी ।

क्या उसका बाकी जीवन ऐसे इंसान के साथ बीतेगा?? अपने आप को अनेकों बार सम्भाल कर, फिर से उनके सभी ऐब को दरकिनार कर वो उन्हें प्यार सम्मान देती रही, इस उम्मीद से की शायद वे एक दिन जरूर सुधर जाएंगे।

मगर उनके लिए सम्वेदना, प्यार, अपनापन कोई मायने नहीं रखते थे। हर बार संबंध बनाने के बाद वे उस प़र पैसे फेंकने लगे। एक-दो बार तो उसे समझ नहीं आया, जब लगा कि ये अपनी पत्नी को भी वैश्या समझते है! तो उनकी यह घटिया सोच उससे बर्दाश्त नहीं हुई ।

उसने उनके ऐसे बर्ताव करने पर ऐतराज जताया।

“तो क्या करेगी तू? मुकदमा करेगी? जा कर, अब देख तेरे साथ और क्या-क्या करता हूँ, आई अपनी वकालत झाड़ने!!”

उन्होंने जो कहा अखिरकार उसके साथ वैसा करने लगे।

,,,,उसकी बिना मर्जी के बार-बार वे उसकी देह पर वार करते रहे और उनके इस घिनौने कृत्यों को वो खून की प्याली समझ पीती गई।

उनके साथ एक कमरें में रहना उसके लिए असहनीय बनता जा रहा था। वो चाहती थी कि वो मर जाएँ, जिससे उसकी जिंदगी को यह सब झेलने से आजादी मिल सके।

उसने अपने मायके में अपने घुटन भरी यातनाओं का जिक्र हजार बार किया, मगर उनके घर में औरतों के दुख और तकलीफ से कोई सरोकार नहीं होता। पिता तक तो खबर ही नहीं पहुँचती, माँ और बहने सब उसे ही ज्यादा पढ़े लिखे होने की दुहाई देती रही थी।

” अरे जैसा है चला, सबको कुछ ना कुछ सहना तो पड़ता है”

“तू ज्यादा पढ़ लिख गई है इसलिए इतनी शिकायतें करती हैं”

“तुम्हारी दोनों बहन तो कुछ नहीं कहती!! “

“इसी वजह है हम औरतों को ज्यादा पढ़ने की छूट नहीं है!! “

“अपना सब छोड़ चाड कर यहा आ कर रहने की सोचना भी मत! ऐसा पीढ़ियों से नहीं हुआ और न होगा!! क्योंकि शादी के बाद बेटियों का घर ससुराल ही होता है, भले वो जैसा भी हो!!”

अपने मायके से वो आशाहीन थी, इसी वजह से उसकी हालत बद से बदतर होती चली जा रही थी। उसके शरीर से आत्मा जैसे निकलने के लिए तरस रही हो। इसी बीच उसे पता चला कि वो माँ बनने वाली है।

माँ बनना इन दुखों के पहाड़ के बीच उसकी जिंदगी का सबसे ख़ुशनुमा पल था, और सच पूछे तो उसे एक बेटी की चाहती थी जिसका नाम वो आकांक्षा रखती, उसे खूब पढ़ा लिखाकर अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने की आजादी देती। मगर ये खुशी भी उसके ससुराल वालों से देखी ना गई ।

जब उसने ये बात अपने पति से साझा की तो।

“लड़का ही होगा, अगर लड़की हुई तो कचरे में फेंक दूँगा समझी!!”

उसकी कोख में बेटी होने का पता लगाने के बाद, उन्होंने अपनी पहचान और पैसों के रौब से उसकी अधुरी आकांक्षाओं के साथ उसके भीतर ही उसका गला घोट देना बेहतर समझा।

इन छह सालों के बीच वो दो बार अपनी बर्दाश्त की सीमाएं पार होने पर ससुराल छोड़कर अपने मायके जा चुकी थी।

” तेरी कोख ही मनहूस है!! एक बेटा तक नहीं दे सकती!!” बेटा ना हुआ तो उसके लिए भी उसे जिम्मेदार ठहराया गया।

लेकिन हर बार सभी की एक ही समझाइश और ससुराल वापिसी करा दी जाती!

“धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा”

” दामाद साब अपने आप सुधर जाएंगे”

“तुम सब्र रखो, तुम दो बार घर छोड़कर वैसे ही आ चुकी हो, समाज क्या कहेगा?”

यहा लौट के आ गई तो बाकी बहनों के ससुराल वाले थू करेंगे हम पर!”

” कुछ नहीं तो पिता की इज्जत और उनके व्यापार का तो ख्याल करो”

इस घर में तलाक का नाम भी मत लेना!”।

पिता को भी सुलक्षणा की हालत का थोड़ा कुछ पता था, मगर वे अपनी पार्टनरशिप बचाने के चक्कर में जानबूझकर अनजान बनते रहे और साथ ही, उन्हें भी लगता था कि धीरे-धीरे चीजे समय के साथ ठीक हो जाएंगी, शादी करने के बाद सबको एडजस्ट करना होता है, वो भी एक ना एक दिन कर ही लेगी।

इतने वक्त सबका हटी व्यवहार देखकर सुलक्षणा को यह अहसास होते देर नहीं लगी कि उसकी परेशानियों से किसी को कोई वास्ता नहीं है। अपने घरवालों के द्वारा उसके साथ पराई औलाद जैसा बर्ताव करते देख उसे असहनीय पीड़ा होती थी।

उसे एक सोने के ऐसे पिंजरे में मजबूरन कैद होना पड़ गया था जहाँ से वो केवल नीले आजाद आकाश में उड़ते हुए खुशहाल पक्षियों को देख सकती थी । उड़ती कैसे? उसकी उड़ान तो शादी के पहले से नियत्रंण में रखी गई थी और शादी के बाद मानों उसके पंख ही काट दिए गए हों।

उस बीच उसके लोभी भाई ने शादी रचाई। उसके पिता,भाई और पति में खासा फर्क़ नहीं था ।

पिता के साथ भाई का पैसों को लेकर मतभेद आए दिन होते रहता था। रोज-रोज की कहा-सुनी से तंग वो अपनी शादी पर मिलने वाले पूरे दहेज पर अपना हक लेने की फिराक में था ।

उसके ससुराल वालों ने शर्त रखी कि,”

हमारी इकलौती बेटी से शादी के बाद आपका बेटा घर जमाई बनकर रहेगा, पूरा कारोबार संभालेगा, सारी प्रॉपर्टी पर अंत में उसका ही हक होगा, हम उसे अपना बेटा मानकर प्यार देंगे ” ।

उसका मतलबी भाई मान गया। घर पर कई दिनों की महाभारत और पिता के कई प्रलोभन देने के बावजूद भी भाई नहीं समझा । बड़ी धूम धाम से शादी संपन्न हो गई और उनके बुढापे का सहारा घर जमाई बनकर चलता बना ।

वही सुलक्षणा का जीवन नर्क से भी बदतर बनता चला जा रहा था, अपनी दूसरी बेटी की जुदाई उसे अंदर से खोखला करती जा रही थी। वो अपने हैवान पति और ससुराल वालों से नफरत करने लगी।

अपने पति के साथ बार-बार हमबिस्तर ना होने के बहाने बनती रही। वो नहीं चाहती थी कि वो गर्भ से हो और एक निर्दोष संतान फिर से मार दी जाए।

मगर उसका पति हवस का गिद्ध!! उनकी कामवाली के साथ अन्तरंग होते उसने उन्हें अपनी आँखों से देख लिया। जिस इंसान ने अनगिनत बार उसका विश्वास तोड़ा, इस बार, उनकी ये निछ हरकत वो बर्दाश्त नहीं कर पाई।

उसे पूरा विश्वास हो गया कि इस महल में कभी कोई सुधर नहीं सकता, शायद यही वो पल है, जो इतने सालों से यह कहने इन्तेज़ार कर रहा था कि, अब बस, उसने अपने सारे रिश्ते तोड़कर ससुराल छोड़ने का फैसला कर लिया।

उसने आज के दिन अपने आपको एक नया रूप में ढलते हुए महसूस किया। अंदर से जैसे एक अनवरत देवीरूपी ताकत उसका साहस भरते जा रही थी। वो आवेश में भी आकर कोई उल्टा-सीधा कदम नहीं उठाना चाहती थी।

वो घर छोड़कर पहले भी दो बार जा चुकी थी इस उम्मीद से कि उसके मायके वाले एक बार कह दे कि “बेटी तुम फिक्र मत करो यह घर भी तो तुम्हारा है” मगर इस बार अपने मायके कतई ना जाने का सूझबूझकर फ़ैसला लिया, क्योंकि वहां कहने को उसके खुद के भी अपनाने वाले कोई एक नहीं था। दो-चार दिन के बाद वही समझाकर फिर वापिस उस नर्क में धकेल देंगे। इसी रात वो अपने जेवर और पैसे लेकर घर से भाग निकली।

कहां जाती? कहां रहती? बिना कुछ परवाह किए वो निरंतर अपना मुंह छिपाकर चलती जा रही थी। एक बस गुज़रती दिखी और बिना सोचे उसपर सवार हो गई।

कहानी अब आगे-

,,,, दो दिन बाद, 

सुलक्षणा के मायके में उसकी सास ने फोन किया,

“नमस्कार बहनजी, बहू की दो दिन पहले बेटे से छोटी सी बात पर थोड़ी कहा सुनी हो गई थी, तब से घर से गायब है, पक्का आपके पास आ गई होगी, जब गुस्सा शांत हो जाए तो समझाकर वापिस भेज दीजियेगा “।

“नहीं वो तो यहां नही आई!! उसे गए हुए पूरे दो दिन हो गए और आप मुझे अब बता रही हैं? “

“आप चिंता ना करे, आ जायेगी, चलिए मैं बाद में फोन करती हूँ “।

औरों को लगता होगा कि इतना शानदार संगमरमर का घर!! अंदर सब कितने ख़ुशहाल होते होंगे, इन्हें किसी चीज की कमी क्या होगी? मगर कभी भीतर आकर सच्चाई देखना, इन बड़े घरों की ऊंची इमारतें अक्सर दुख की दिवारों से घिरी होती है।

अपने बेटे को किसी और के लिए उसे छोडकर जाते देख वो अवसाद में आ चुकी थी। जैसे जीवन की व्यथा सुलक्षणा उसे सुनाती थी उससे कम बुरी जिन्दगी उनकी भी कम नही थी, फर्क इतना था की उन्होने अपना नर्क काट लिया था और वो अपना नर्क जी नही पा रही थी।

इतना बिगड चुका अब और कितना चुप रहना, जब किसी की आवाज बरसों से दबाई गई हो तो वो जब अपने बर्दाश्त का बांध तोड़ता है तो तुफान आना सुनिश्चित है और उनके घर हुआ यही।

“यह सब आपकी गलतियों का नतीज़ा है, पैसे और अपने फायदे के लिए अपनी लड़की का सौदा अपने जैसे संस्कारों से वंचित घर में कर आए, वही बेटे को एक व्यापारी बनाने से पहले एक अच्छा इंसान बनाया होता तो वो अपना खुद का सौदा ना करता!” 

माँ ने पिता से जीवन में पहली बार कुछ कहने की हिम्मत की, जिनकी बात सुनकर पिता मायूस हो सिर पर हाथ रखकर बैठ गये, जानते वो भी सब थे, कैसे उनका खुद का खुन, बुढ़ापे, व्यापार का सहारा अपने सामने बिदा होते देख उनका घमंड अंदर ही अंदर चूर हो चुका था। छोटी सी दिखने वाली संस्कार की कमी

, भविष्य में कितना विकराल रुप ले आपको ही आपक  द्वारा डस सकती है? उसे कैसे किसी के सामने स्वीकार करते?

आज वे अपने बच्चों और खुद के लिए हर चीज आसानी से खरीद सकते थे, काश वे संस्कार जो बच्चो को छुटपन से दिये जाने थे उन्हे आज खुद के परिवार और ओरो के लिए खरीद सकते तो उनकी खुशहाली ऐसे बेघर होती दिखाई नही देती। 

अगर समय रहते उन्हे नैतिकता, संवेदनशीलता, समय-संबंधितता, सद्भाव, सहयोग और सम्मान की सीख मिलती होती और ऐसे ही परिवार में ब्याह किया होता तो आज उनकी बेटी कम सुख सुविधा में भी सुखी होती ना की इतनी प्रोपर्टी के बावजुद दर-दर की ठोकर खाने मजबूर होती ।

कुछ दिनों के मंथन के बाद वे अपनी प्रतिष्ठा, रूतबा सब दर किनार कर अखबार में इश्तेहार दे आए।

“सुलक्षणा बेटी, तुम जहां कहीं भी हो हम आशा करते है तुम सुरक्षित होगी। तुम्हारी ससुराल छोड़कर जाने की खबर सुन हम सब बहुत दुखी है। तुम अपने घर वापिस आ जाओ” तुम्हारे इन्तेज़ार में तुम्हारे पिता।

उस दिन बस में उसकी निम्न हालत देखकर एक भले आदमी ने पीड़ित महिलाओं के लिए काम करने वाली एक गैर सरकारी संस्था का पता दिया, वो बेबस थी आगे क्या करे कुछ समझ नहीं आ रहा था, डर भी था कि वे उसे कहीं ना कहीं से ढूंढ निकाल लेंगे, सिर के नीचे एक सुरक्षित जगह भी चाहिए इसलिए उसने वही जाना उचित समझा।

वे उसे अपने साथ रखने सहमत हो गए और उसके ससुराल वालों को सबक सिखाने कोर्ट केस करने की पेशकश की।

कुछ दिनों बाद पिता द्वारा अखबार में छपी वो खबर उस तक पहुंची। मगर उसे अनेकों बार पढ़कर भी वो, अब किसी की बातों पर विश्वास करने की स्थिति में नहीं थी।

कुछ दिन के सोच विचार के बाद उसकी उनसे क्या अपेक्षा है एक अंतिम बार संस्था द्वारा जोर देने अपने घर बात करने विचार करने लगी ।

“हैलो माँ! मैं सुलक्षणा। “

“बेटी तुम कहां हो? ऐसे ससुराल छोड़कर क्यु गायब हो गई। कुछ नहीं तो अपने घर ही आ जाती” उसकी माँ पहली बार उसे उसकी वजह से परेशान मालूम पड़ी।

“आप किस लहजे से इसे मेरा घर कहती है? ये घर हम बेटियों के लिए कहा होता है!! और खासतौर से उस हताश बेटी का तो बिल्कुल नहीं जो आप लोगों को रोज अपनी नई समस्या बताती फिरें !!”

” ऐसी कौनसी बात तुम्हारी माँ ने नहीं सुनी ??बताओ??”

” बस सुनी भर!!मगर किया क्या? सुनकर अनसुना! और ज्यादा हुआ तो थोड़ा कुछ समझाती रही !!”

” तुम अब क्या चाहती हो “

“मैं उस घर वापिस हरगिज़ कभी नहीं जाऊँगी, सीधी सी बात है कि, मुझे उस आदमी से तलाक चाहिए, क्या आप लोग मेरे इस फैसले में मेरा साथ देंगे??अगर हाँ तो ही मैं वापिस आऊंगी “

पाठकों, भले आपको ये सब बात कड़वी लगे, मगर भारतीय समाज में एक लड़की को तलाक लेने की भी सोचना, तलाक ले भी लेना और उन सभी लंबी चौड़ी कोर्ट कचहरी की प्रक्रिया के बाद फिर से अपनी बिखरी हुई जिंदगी को समेटकर पुनः शुरू करना! उफ्फ!!! क्योंकि आप अंदेशा नहीं लगा सकते, ये एक तरह से खुद की मर्जी से नुकीले बाण के रास्तों पर चलते रहने को चुनने समान है।

“बेटी पूरे शहर में सिर्फ तुम्हारी वजह से हमारा नाम मिट्टी में मिल जायेगा और पिता के व्यापार का क्या? । “

“माँ मैं तुम्हारा उत्तर समझ गई, फोन काट रही हूँ क्योंकि आपलोग अपनी इस बेटी की तकलीफों को दरकिनार कर बस अपना ही नफे-नुकसान देखते आए है। “

” रुको सुलक्षणा से मेरी बात कराओ!!”

“आज आप दुकान से इतने जल्दी वापिस आ गए? इतने परेशान क्यों दिख रहे हैं? “

“बताता हूं! बेटी सुलक्षणा!!”

उनकी बात के बीच पिताजी ने फोन माँ से ले लिया।

“पिताजी आप!!”

“हाँ मैं!! मुझे माफ़ करना, तुम्हारी हालत का जिम्मेदार केवल मैं हूँ, आज से पहले मैं तुम्हारी मुश्किलें कभी कम ना कर पाया और ना समझ पाया , एक आखिरी मौका अपने पिता को देदो?”

अपने पिता को इस तरह जीवन में पहली बार बात करते सुन वो भावुक हो उठी। ये वो एहसास था जिसके लिए वो ताउम्र तड़पती रही, जिसका वास्तविकता में उसे कभी अनुभव करना इस जन्म में मुमकिन नहीं था।

ये कुछ चंद शब्द उसकी चिंता लिये हुए, उसे एक पल में सुकून दे गए। और वो चुप फोन पकडी अपने आँसु पोछने लगी।

उसके पिता आगे कहने लगे।

“बेटी जबतक तुम्हारे पिता जिवित है, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा, तुम्हें तलाक के साथ तुम्हारे साथ हुई हर यातनाओं का बदला हम मिलकर लेंगे”

उसे सन्देह हुआ कि मेरे पिता!! वो भी इस तरह से अचानक कैसे बदले से मालूम पड़ रहे है? जिनके लिए हर रिश्ता केवल पैसों के लेखे झोंके समान है।

” पिताजी क्या हुआ? आप ठीक तो है? “

“ठीक तो नहीं? अभी घर आया हूं, किस्मत से तुम फोन पर ही थी इसलिए तुम्हें बताना सबसे पहले चाहा “

“ऐसा क्या हुआ? कृपया कर बताये?”

“तुम्हारे अपने ससुराल छोड़ने के बाद, अगले दिन तुम्हारे ससुर या यू कहें कि मेरे पुराने बिजनेस पार्टनर ने मेरी चाय में जहर डालने की नाकाम साजिश रची, वो तो वक़्त रहते मुन्शी जी ने पैंट्री वाले को कोई पुड़िया खोलकर डालते रंगे हाथ पकड़ लिया और पुलिस के डर से उसने तुम्हारे ससुर की सबके सामने पूरी पोल खोल दी ।यह बात सुनकर मेरा माथा घूम गया।”

“पिताजी वो तो अच्छा रहा कि समय रहते चीजें उजागर हो गई, अगर आपको कुछ हो जाता तो? ?”

“वे तो मौका देख रहे थे कि जैसे ही तुम उनका घर छोड़ती और उसी अगले पल मेरा यहाँ काम तमाम करवा देते, वैसे भी उन्हें रिश्तेदार होने के नाते तुम्हारे भाई के अलग हो जाने कि बात सालो से पता थी । उनका इस परिस्थिति में पूरी पार्टनरशिप हथियाना बहुत आसान काम था। तुम भी आक्रोशित थी, मगर मेरे जिंदा ना रहते हुए तुम उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी और आजीवन उनकी यातनाएं सहने को मजबूर हो जाती। तो कुल मिलाकर बेटी, दुनियाँ ऐसी ही है। “

“अभी वे कहा है? “

” जहां उनके पूरा खानदान होना चाहिए!!जैल में! हमारे वकील द्वारा उन्हें मेरे कत्ल करने की साज़िश और व्यापार में जालसाजी करने का केस दर्ज कर दिया है। तुम भी घर वापिस आ जाओ और अपना पहला केस अपने ही तलाक से शुरू करो। ” पिता ने सुलझे हुए मन से कहा ।

जिस घर में पैसों की खुशबु को औरतों की खुशियों से ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाने लगे तो देर-सबेर किसी ना किसी रूप में सर्वनाश होना तय है । झोंका उनके यहा भी आया वे डगमगा भी गए, कुछ चीजें नहीं सुधर पाई पर जिसे तबाही से बचाया जा सकता था उसे सम्भालने वे अब एकजुट हो गए।

अगली सुबह उसके जीवन का नया सूर्य उदय हुआ, वो अपने घर आ पहुंची। अपनों के भावपूर्ण स्वागत से उसके साथ जो भी घटा वो बुरी यादें रहकर कहीं खो गई और उसकी आगे की लड़ाई में उसके अपने, उसके साथ हमेशा खड़े मिले।

उस दिन से, सुलक्षणा अपने माता-पिता के साथ रहने लगी जो अब बखूबी समझ चुके थे कि ये घर उसका भी है। 

उसने अपने घरवालों के सकारात्मक बदलाव देखते हुए उन्हें माफ़ कर देने में समझदारी समझी। इसमें ज्यादा गलती उनकी भी नहीं थी वे अच्छे संस्कार ना मिलने के अभाव से सही-गलत का फैसला लेने में असक्षम थे।

उसने सफलतापूर्वक अपने खुद के तलाक का मामला जीत लिया और ससुरालवालों पर अनेकों धाराएं लगवाकर सह परिवार जैल की हवा खाने मजबूर कर दिया। आगे भी वो अपनी जैसी पीड़ित औरतों को न्याय दिलाने में अपने परिवार का नाम रौशन करती रही और उसके जीवन से प्राप्त सीख बाकी माता-पिता, बेटियाँ उसकी कहानी औरों को बताते रहे।

देखा जाये तो सुलक्षणा कोई और नहीं, छोटे-बड़े रूप में ऐसी कई नारियों की कहानी है जिन्हें –

  • दहेज देने के नाम से बोझ समझा गया
  • घरेलु हिंसा का सामना करना पड़ता
  • मानसिक, शारीरिक यातनाओं सहनी पड़ी,
  • अबॉर्शन के लिए दबाव डाला गया
  • लड़की पैदा होने पर माँ को जिम्मेदार ठहराया गया
  • पढ़ने की आज़ादी छीनी गई,
  • लड़का-लड़की की परवरिश में भेदभाव किया गया,
  • ससुराल में एडजस्ट करना सिखाया गया ना कि अपने पैरों पर खड़ा होना,
  • उनकी अंतरात्मा की आवाज को नज़रंदाज कर, अपने आप बदलाव होनी की निरर्थक उम्मीद के साथ उन्हें पूरा जीवन उसी तरह घुटते हुए काटने मजबूर किया गया।
  • उसकी हिम्मत ना बनकर उसे ही दोषी ठहराया गया।

मगर वे महिलाये अपनी प्रकृति अनुसार उन सामाज में सदियों से चली आ रही रीति से लड़ कर अपने नारीत्व को और मजबूत करती चली आई रही है।

अपनी –

रुचि पंत

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