कभी गम की धूप कभी खुशी की छाँव – किरन विश्वकर्मा

शाम को पतिदेव ऑफिस से आए और मुझसे बोले जरा जल्दी से तैयार हो जाओ मेरे दोस्त ने आज शाम चाय पर हम दोनों को बुलाया है अब उसका ट्रांसफर फिर से इसी शहर मे हो गया है

तो आज उसका फोन आया था, तुम चलोगी तो तुम्हारा परिचय भी हो उन लोगों से हो जायेगा और हो सकता है कि उसकी धर्म पत्नी और तुम दोनों में भी दोस्ती हो जाय तो मेरे और मेरे दोस्त के लिए और अच्छा हो जायेगा क्योंकि हम दोनों के साथ साथ तुम दोनों को भी आपस में मिलना अच्छा लगेगा। यह सुनते ही मैं भी तैयार हो गयी।

मैं इनके दोस्त के घर गई तो उनकी तीन साल की प्यारी सी बेटी ने अपनी तोतली जुबान से हमें नमस्ते कहा…. और मेरे पास आ गई। मैं भी उसे अपनी गोद में उठा कर प्यार करने लगी। मैने देखा कि उनकी पत्नी अर्पिता की उम्र और मेरी उम्र लगभग समान ही थी। मेरे बच्चों की उम्र लगभग अट्ठारह से बीस वर्ष के बीच थी और उनकी बेटी तीन साल की मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ। वह पानी देकर रसोई में चाय बनाने चली आई…. तो मैं भी उनकी बेटी को गोद में लेकर उनसे बात करने के उद्देश्य से रसोई में आ गई।

अर्पिता चाय बनाने के बाद आलू के पकौड़े बनाने लगी तो मैने उनकी सहायता करते हुए कलछी हाथ में लेकर पकौड़े तलने लगी। पकौड़े तलते हुए मैने कहा…. आपकी बिटिया बहुत प्यारी है।

“हां सही कह रही है आप”….” हमारे घर की खुशियों की चाभी है ये। ” अर्पिता मुस्कराते हुए बोली।

फिर वह चाय नाश्ता ड्राइंग रूम में देने के बाद हम लोगों का नाश्ता लेकर अपने बेडरूम में आ गई।

मैंने अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए सबसे पहला प्रश्न पूछा ?

“आपकी शादी को कितने साल हो गए?” मुझे समर जी बता चुके थे परंतु बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से मैने पूछा।मेरी शादी को तेइस साल हो गए हैं… अर्पिता ने जवाब दिया।

अगर आप बुरा ना माने तो मैं यह पूछना चाहती हूं…. कि आपकी बेटी तो तीन वर्ष की है और आपकी शादी को तो इतने वर्ष हो गए हैं।

” हां मैं आपको शादी होने के बाद से अपनी कहानी सुनाती हूं” मेरा जब ब्याह हुआ…. तो ससुराल में जेठ, देवर और दोनों ननद और सास-ससुर सभी लोगों से भरा-पूरा ससुराल था मेरा। सभी लोगों का प्यार मुझे मिला और सभी लोगों को मैंने प्यार व सम्मान  दिया। यह तो दूसरे शहर में रहकर नौकरी करते थे।




बीस-पच्चीस दिन बाद ही घर आ पाते थे या फिर तीज- त्यौहार पर घर आते परंतु मुझे कोई शिकायत नहीं थी क्योंकि ससुराल में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी। धीरे-धीरे मेरी शादी को दिन, दिन फिर महीने में, महीने फिर साल और फिर कई साल हो गए… यानी कि दस साल हो गए थे।  मेरे देवर और ननद की सभी की शादी हो गई थी। पहले तो मां न बन पाने की वजह पर दबी जुबान से चर्चा होती रही किंतु फिर आस-पड़ोस वाले रिश्तेदार और घर वाले अब अक्सर उसे एहसास कराते रहते की वह अगर अभी तक मां नहीं बन पाई है तो उसमें उसकी ही कमी है।  ससुराल वालों का व्यवहार भी धीरे-धीरे बदलने लगा था।  बाहर वालों की बातों का तो मैंने ध्यान नहीं दिया किंतु ससुराल वालों के तानों को सुनकर मेरा कलेजा छलनी होने लगा।  जब भी ताने सुनती तो आंखों से आंसू गिरने लगते, आंखों से आंसू तो कुछ देर बाद बंद हो जाते पर उस अंतर्मन का क्या करती…. जो ताने सुन-सुन कर लूहुलुहान हुआ पड़ा था। 

जब भी मैं किसी स्त्री को अपने बच्चे को प्यार करते देखती…. तो मेरा भी मन करता कि काश!! मेरी गोदी में भी बच्चा होता, तो मैं उसे बाहों में लेती उसके गालों को चूमती। उसके ऊपर अपनी ममता उड़ेलती।  वह मेरे आंचल से खेलता और मेरे आगे पीछे डोलता, हे ईश्वर!! यह कमी मेरे हिस्से ही क्यों आई?  सबसे ज्यादा दुःख तो मुझे तब हुआ जब देवरानी को बच्चा हुआ और छठी की रस्म चल रही थी। मैं उस बच्चे और बच्चे की मां के पास न जाऊं,  इसलिए मुझे रसोई के कामों में लगा दिया गया। पर मैं यह बात समझ नहीं पाई और काम से फ्री होने के बाद मैं भी देवरानी के पास बैठ गई और बच्चे को लेने लगी तभी देवरानी की मां ने मुझे बच्चा लेने से मना कर दिया…. सभी लोग यह दृश्य खड़े होकर देख रहे थे किंतु कोई भी कुछ नहीं बोला…. यह देखकर मेरी आंखों से आंसू गिरने लगे। इन्होंने जब यह सब देखा तो मेरा हाथ पकड़ा और जहां यह नौकरी करते थे वहां मुझे अपने साथ ले आए। अब पानी सर के ऊपर हो चुका था… अब यह भी बच्चे के लिए गंभीर हो गए थे। 

फिर हम लोगों ने कई डॉक्टर को दिखाया और इलाज भी करवाया…. किंतु कोई फायदा नहीं हुआ।  हार कर हम लोगों ने ऊपर वाले पर ही सब कुछ छोड़ दिया।इस तरह दस वर्ष और गुजर गए। हम हार मान चुके थे किंतु कभी-कभी ईश्वर का ऐसा चमत्कार हो जाता है कि उसके आगे विज्ञान भी फेल हो जाता है। दो महीने बाद मुझे पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।तभी अर्पिता के पति समर भी आ गए और बैठते हुए बोले कि…  “जब अर्पिता को पता चला कि वह मां बनने वाली है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।” हमारी प्रार्थना भी ईश्वर ने सुन ली थी, हम दोनों ही बहुत खुश थे हमारे घर भी खुशियाँ आने वाली थी।




अर्पिता अपनी बेटी को गोद लेते हुए बोली…….देखो अब तो मेरी बेटी तीन साल की हो गई है अब मेरे माथे से बांझ शब्द भी हट चुका है… लोगों के ताने अब मुझे सुनने को नहीं मिलते।अब मुझे शुभ कामों से दूर भी नही रखा जाता। पहले जहाँ ग़मों ने डेरा डाल रखा था वही अब खुशियों का बसेरा है। जीवन में अगर गमों की धूप तन मन को जलाती है तो खुशियों की छाँव मन को ठंडक भी देती है। परंतु समाज से मेरा सवाल है कि…..

मेरा कोई दोष नहीं……. और न ही थी मैं अपराधी

फिर भी लोगों ने तानों से आहत किया

सुनाएं कठोर निर्मम शब्द मुझे

मेरे अंतर्मन को घायल किया

बांझन शब्द की उपाधि देकर

मेरे दामन को आंसुओ से भर दिया

पुरुष में भी तो हो सकती है कमियां

क्यों नहीं उन्हें किसी उपाधि से विभूषित किया

कभी उंगली क्यों नहीं उठी उनकी ओर

उनकी कमियों को समाज में क्यों नहीं उजागर किया

औरत को कहना है आसान इसीलिए

उसके कलेजे को ही हमेशा छलनी किया

अर्पिता के आंखों से बीती हुई बातों को याद करके निरंतर आंसू गिरे जा रहे थे। हम सभी उसकी बातों को सुनकर निरुत्तर हो गए। यह सब सुनकर मेरी आंखों से आंसू गिरने लगे। हमने तो सिर्फ उसकी कहानी सुनी, उसने तो उन पलों को जिया है और महसूस किया। यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिस पर हमें गंभीरता से सोचना चाहिए। ताकि कोई और अर्पिता इस तरह प्रताड़ित न हो।

 #कभी_खुशी_कभी_ग़म 

किरन विश्वकर्मा

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