जीवनसाथी के साथ न होने का दर्द कोई नहीं बाँट सकता! (भाग 2)- डाॅ संजु झा: Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : मनीष ने उसे अपने और करीब लाते हुए कहा -” निभा!मैं भी तुम्हारे और बच्चों के बिना नहीं रह सकता हूँ,परन्तु इस उम्र में माँ-पिताजी अकेले कैसे रहेंगे?मेरे भाई की अभी पढ़ाई पूरी नहीं हुई है।बहन की भी शादी करनी है।सबसे बड़ी बात बच्चे यहाँ अच्छे स्कूल में पढ़ाई कर रहें हैं।बार-बार उनकी पढ़ाई में बाधा पहुँचाना ठीक नहीं है।मैं कोशिश कर तीन साल बाद  वापस पटना तबादला करवा लूँगा ।बस कुछ दिनों की ही बात है!”

निभा भी एक आज्ञाकारिणी पत्नी के समान पति की बातों को मानकर नम आँखों से दिल्ली विदा किया।आरंभ में तो मनीष  दो-तीन महीनों पर आ जाता।पति के प्यार में डूबकर  निभा बिछोह के एहसास को भूल जाती।दिल्ली जाने के बाद  से मनीष उसे प्रति सप्ताह प्यार से सराबोर चिट्ठियां भेजता ।पहले के समय तो चिट्ठियां  ही दिल की धड़कनों के समान होती थीं।इन्हीं के सहारे उसकी जिन्दगी अपनी रफ्तार ले रही थी।पाँच साल  का समय  बीत चुका था।ननद-देवर की शादी हो चुकी थी।देवर की नौकरी भी लग चुकी थी,परन्तु इन पाँच साल में मनीष अपने तबादले की बात भूल चुका था।धीरे-धीरे मनीष के पत्र आने बिल्कुल बन्द हो गएएक समय  ऐसा भी आ गया कि मनीष अपना घर और पता बदलकर न जाने किस क्षितिज में गुम हो गया?कुछ समय तक उसकी कोई खोज-खबर नहीं मिली।

निभा के मन रुपी आकाश  पर आशंकाओं की ढ़ेर बदली मंडराने लगी।एक दिन उसकी सहेली ने खौलते लावे के समान खबर सुनाते हुए कहा -“निभा!मैंने पता किया है।मनीष ने वहाँ  चुपके से एक पंजाबी लड़की से शादी कर ली है।”

इस खबर को सुनते ही निभा सन्न-सी रह गई। विश्वासघात के कारण क्रोध से उसके अन्दर जलती हुई ज्वाला उबलने लगी।फिर भी उसे इस खबर पर विश्वास नहीं हो रहा था।उसने अपने देवर के साथ दिल्ली जाकर सच्चाईयों की पता लगानी चाही।दिल्ली में उसने मनीष के घर जाने पर देखा कि उसके पति के साथ एक गोरी-चिट्टी लंबे कद की महिला सिन्दूर लगाए हुए खड़ी है।पति के सानिध्य से उसका दमकता चेहरा उसका मुँह चिढ़ा रहा था।वह भी तो उसी पति की सुहागिन है,परन्तु उसे छल-प्रपंच कभी नहीं आया।

निभा ने जब खुद अपनी आँखों से सबकुछ देखा ,तो उसकी आहत भावनाएँ दबी चिंगारी की भाँति सुलगने लगीं।पति मनीष उसे देखकर मुँह फेरकर अन्दर की ओर जाने लगें।उसने भावावेश में अवरुद्ध कंठ से  पति के हाथों को पकड़ लिया।उसने हिम्मतकर  अपने थरथराते होठों से कहा -” मनीष!आप मुझे जबाव  दो कि मेरी क्या गलती है?मेरे दोनों बच्चों का क्या कसूर है?आपने मेरे विश्वास को खंडित क्यों किया?”

मनीष के पास निभा की बातों का कोई जबाव नहीं था।वह पत्थर की मूर्ति की भाँति चुपचाप मौन खड़ा रही।जबाव में उसकी नई-नवेली पत्नी ने कहा -“इतने दिनों तक तो तुमने पति की शारीरिक और मानसिक जरुरतों का ख्याल नहीं रखा।एक बार भी ये नहीं सोचा कि जवान मर्द अपनी शारीरिक जरुरतों को कैसे पूरी करेगा?आज झूठ-मूठ का अधिकार जताने और रोने आई हो।अब मैं ही इनकी पत्नी हूँ।तुम तुरंत यहाँ से निकल जाओ, वरनाधक्के मारकर निकलवा दूँगी।”

निभा ने कातर दृष्टि से पति की ओर देखा।उसने पति के समक्ष अपने हाथ-पैर जोड़े।बच्चों की दुहाई दी,परन्तु पत्थर दिल पति नहीं पसीजा।

उदास -सी निभा कुछ देर तक घर के बाहर  छलावे में खड़ी रही।उसके भीतर बहुत कुछ टूट रहा था।एक जीवनसाथी के बिना जीने की कल्पना उसे डरा रही थी।उसे ख्याल  आ रहा था कि उसने जो दुनियाँ अपने लिए  बसाई थी, आज उसका तिनका-तिनका बिखर गया।वक्त की ऐसी आँधी आई ,जो एक ही छटके में उसकी जिन्दगी की सारी खुशियों को उसकी पहुँच से दूर ले गई। पति की बेवफाई ने उसके उपवन जैसे जीवन को काँटों की सेज  बना दिया।उसका दिल कर रहा था कि अभी यहीं जोर-जोर से फूट-फूटकर रोएँ,परन्तु उसने उस वक्त कठोरता से खुद को सँभाला।उसकी आवाजें भर्रा गईं थीं।वह अपनी आँखों में चमकते आँसुओं को छिपाने के लिए दूसरी ओर देखने लगी।सच में जिन्दगी ऐसे खेल दिखाएगी,ऐसा कभी उसने सपने में भी नहीं सोचा था।इतनी घुटन और बेचैनी उसे कभी नहीं हुई थी।

उसका देवर रमेश बुत बना तमाशा देख रहा था।जब निभा का अपमान चरम पर पहुँच गया ,तब रमेश ने उसका हाथ  पकड़ते हुए कहा -” भाभी!अब यहाँ से चलो।इनकी आँखों पर बेहया और वासना की पट्टी चढ़ चुकी है।इनके लिए सही-गलत का कोई पैमाना नहीं है!”

निभा भी अब उस घुटनभरे माहौल में नहीं रहना चाहती थी।लुटी-पिटी निभा खोखले मन से पटना वापस लौट आई।इस घटना ने उसकी जिन्दगी को पूरी तरह झिंझोडकर रख दिया।कुछ दिनों तक तो सास-ससुर, देवर का रवैया सहानुभूतिपूर्ण  रहा,परन्तु धीरे-धीरे सभी की नजरें बदलने लगीं।सच ही कहा गया है कि एक औरत को अगर पति का साथ हो ,तो वह दुनियाँ से लड़ने की क्षमता रखती है,परन्तु अगर ससुराल में पति का साथ न हो ,तो उसका जीवन पतवारविहीन नौका के समान हो जाता है।ससुराल में निभा की ऐसी ही स्थिति हो गई थी।सबके रहते हुए  भी वह ससुराल में बिल्कुल अकेली हो गई थी।उसके तन-मन में पति के रूप में बस मनीष की ही छवि अंकित थी।दस साल के खुबसूरत दाम्पत्य-जीवन को भूलना उसके लिए आसान न था।इस कारण उसने न तो कभी पति से तलाक माँगा,न ही पति ने उसे दिया।

आरंभ में जीवनसाथी के विरह का दंश उसे अंदर-ही-अंदर घुलाए जा रहा था ।दिन तो परिवार के कामों में कट जाता था,पर नागिन-सी काली रात उसे तड़पाती रहती।वह बच्चों की खातिर ससुराल में घुट-घुटकर जी रही थी।निभा के देवर की शादी हो चुकी थी।उसकी हैसियत घर में मात्र एक नौकरानी की रह गई थी।सास-ससुर का उपेक्षित व्यवहार तो वह किसी प्रकार झेल लेती,परन्तु जब बार-बार बेवजह जब उसके बच्चों को अपमानित किया जाता,तो उसकी ममता कराह उठती।अपमान और क्षोभ से उसके आँसू निकल पड़ते।बच्चे सहमकर कुंठित हो रहे थे।कठोर फैसला लेते हुए  निभा एक दिन बच्चों को लेकर  मायके पहुँच गई। मायके में माता-पिता ने उसका खुले दिल से स्वागत किया,परन्तु निभा जानती थी कि पिताजी की पेंशन से उनलोगों का गुजारा मुश्किल है।वहाँ उसने दोनों बच्चों का स्कूल में नाम लिखाया और खुद बी एड की तैयारी करने लगी।आखिर उसकी मेहनत रंग लाई। कुछ दिनों बाद उसे सरकारी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी लग गई। वक्त की यही अच्छी बात है कि सदैव गतिशील रहता है,रुकता नहीं है।अब निभा की जिन्दगी में ठहराव आने लगा।बढ़ती उम्र के साथ पति की स्मृतियों का बोझ विस्मृत हो चला था।बच्चों के साथ वह अपनी दुनियाँ में मस्त थी।अचानक से आई चिट्ठी ने एकबार फिर से उसकी दुनियाँ में हलचल मचाकर रख दी थी।चिट्ठी पकड़े हुए अनायास ही उसकी आँखों के कोर गीले होने लगे।

अचानक से बेटे की आवाज से निभा का ध्यान भंग हुआ। घर के अंदर घुसते ही माँ के कान्तिविहीन चेहरे को देखकर वह डर गया।उसने पूछा -” माँ!क्या हुआ?आपकी तबीयत तो ठीक है न!”

निभा ने चिट्ठी बेटे की ओर बढ़ा दी।चिट्ठी पढ़ते समय बेटे विपुल के चेहरे का रंग पल-पल बदल रहा था।उसने क्रोध में चिट्ठी एक ओर फेंकते हुए कहा -“माँ!जिस आदमी ने हमें बीच मझधार में मरने के लिए छोड़ दिया।बिना कसूर के अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़कर चला गया और कभी जानने की भी कोशिश नहीं की कि हम किस हाल में हैं!उस आदमी के बारे में सोचने की जरूरत क्या है?”

अतीत की कसैली यादें निभा को झकझोर रहीं थीं।वह द्विविधा में थी।उम्र के साथ-साथ वह जिन्दगी से इस अध्याय को विस्मृत कर चुकी थी,परन्तु एक जीवनसाथी के अभाव का दर्द अभी भी उसके चेहरे से झलक रहा था।आज वह एक बार  फिर  से जिन्दगी के दोराहे पर आकर खड़ी थी।एक पति के रुप में तो वह मनीष को कबका अपनी जिन्दगी से निकाल चुकी थी,परन्तु मानवता के लिहाज से एक मरते हुए व्यक्ति की इच्छा पूरी करना उसका फर्ज और धर्म बनता है।उसने अपने अंदर साहस बटोरने हुए कहा -” बेटा! दस साल  मैंने उस आदमी के साथ  खुशी-खुशी जिन्दगी गुजारी है।वे हमारे दोनों बच्चे के पिता हैं,इस बात को मैं कैसे भूल जाऊँ?आखिर  हमारा भी तो कोई दायित्व बनता है!”

विपुल-” माँ!उन्होंने अबतक कौन-सा दायित्व निभाया है?वे आपके पति हो सकते हैं,हमारे पिता नहीं!आपको जाना है,तो रोकूँगा नहीं,पर हम दोनों भाई-बहन नहीं जाऐंगे।”

निभा बेटे का कंधा पकड़कर जोर-जोर से रोते हुए कहने लगी -” बेटा!तुम  दोनों बताओ कि मैं क्या करूँ?”

आखिर  निभा की भावनाओं का कद्र करते हुए  दोनों भाई-बहन माँ को लेकर  दिल्ली रवाना हो गए। वहाँ पहुँचकर  निभा ने देखा कि उसका पति मनीष अस्थि का मात्र पंजर भर रह गया है।मनीष ने पत्नी और बच्चों को देखकर बिस्तर से उठने की कोशिश की,परन्तु नाकामयाब रहा।लेटे-लेटे मनीष ने निभा के दोनों हाथ पकड़ लिए  और कहा -” निभा!मैं तुमलोगों से माफी माँगने के काबिल  तो नहीं हूँ,फिर  भी माँगता हूँ।मैंने तुमलोगों के साथ  बहुत अन्याय  किए हैं,जिसकी सजा मुझे मिल गई है।”

निभा-” मनीष!अब इस माफी का कोई मतलब नहीं है।एक जीवनसाथी साथ न होने का दर्द भरी जवानी जो मैंने झेला है,उसे तुम क्या जानो? वे तिल-तिलकर गुजरी हुई रातें क्या तुम्हारी माफी से सुखद हो जाऐंगी?”

मनीष-” मैंने भावावेश में आकर  दूसरी शादी तो कर ली,परन्तु मुझे धीरे-धीरे एहसास होने लगा कि उसे केवल मेरे पैसों से प्यार है।वह मुझपर तुम्हें तलाक देने और सारी सम्पत्ति अपने नाम लिखवाने का दबाव बनाने लगी।मैं उसकी मंशा समझकर आना-कानी करने लगा।वह क्रोध में आकर मेरे खाने में थोड़ी-थोड़ी जहर देने लगी।तबीयत खराब  होने पर डाॅक्टरों द्वारा उसके षड़यंत्र का खुलासा हुआ। पकड़े जाने के डर से वह भाग खड़ी हुई।  “

निभा -” मनीष!तुम्हारे पछताने से हमारा गुजरा हुआ दुखद जीवन हमारी खुशियाँ वापस नहीं ला सकता है!” 

मनीष -” निभा!प्लीज दोनों बच्चों को एक बार  मुझे पापा कहकर  पुकारने

 बोलो,जिससे  अंतिम समय मेरी आत्मा को सुकून मिल सके।”

पिता की दर्दभरी करुण  पुकार से दोनों बच्चे भावुक हो उठे।दोनों ने एक साथ कहा-” पापा!आप बिल्कुल ठीक हो जाऐंगे।हम आपको अपने साथ  लेकर जाऐंगे।”

बच्चों की आवाज सुनते ही मनीष की आत्मा अनंतशक्ति में विलीन हो चुकी थी।निभा ने आजतक अपने गले से मंगलसूत्र नहीं उतारा था।आज उसने अपने हाथों से सिर का सिन्दूर पोंछ लिया और गले से निकालकर मंगलसूत्र मनीष की चरणों में रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगी।

बच्चों ने निभा को गले लगाते हुए कहा -” माँ! थाने चलकर पापा के गुनाहगार के खिलाफ रिपोर्ट  लिखवाने हैं।”

निभा जीवनसाथी के बेवफाई का गम भूलकर उसके गुनाहगार को सजा दिलाने के लिए उठ खड़ी हुई।

 

 सचमुच एक औरत के जीवन में जीवनसाथी का बिछोह सबसे बड़ा आघात है।

 

समाप्त। 

 

2 thoughts on “जीवनसाथी के साथ न होने का दर्द कोई नहीं बाँट सकता! (भाग 2)- डाॅ संजु झा: Moral Stories in Hindi”

  1. आजकल जो हो रहा है वहीं बात इस कहानी में दिखाई गयी है और हम सबको यही शिक्षा देती है कि चाहे पति हो या पत्नी, हमें अपने जीवनसाथी को कभी भी धोखा देकर किसी दूसरे के साथ अफेयर नहीं करना चाहिए नहीं तो आपको आपके इस ग़लत कर्म की सजा जरूर मिलेगी

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