जाने कब जिन्दगी में कौन सा मोड़ आ जाए ये कोई नहीं जानता – मुकुन्द लाल  : Moral Stories in Hindi

   श्रीमन अपनी पढ़ी-लिखी पुत्री मेधा की शादी अपने पड़ोसी शहर के बड़े व्यवसायी के लड़के ओमेश के साथ करके निश्चिंत हो गए कि एक जिम्मेदारी तो समाप्त हुई।

   शादी के बाद ससुराल में सारी पारम्परिक औपचारिकताओं का विधिवत नार्वाह किया गया। इस तरह दोनों पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन का शुभारंभ हो गया। 

  मेधा को सास-ससुर भी पसंद करते थे। वह किचन के साथ अन्य कामों में भी निपुण थी। किन्तु मेधा का मूड कुछ उखड़ा-उखड़ा सा रहता था।

   मायके में उन्मुक्त गगन में उड़ने वाली चिड़ियों की तरह उसका आचरण था। उसके पिता और दोनों भाई ब्यापार से चार पैसे कमाने में व्यस्त रहते थे। और वह अपने क्लासमेट पुष्कर और रानु के साथ  उस कस्बे के कभी बाग-बगीचों की सैर करती तो कभी नदियों-तालाबों के घाटों पर घंटों बैठकर पानी में तैरने वाली मछलियों को देखकर हर्षातिरेक में झूम उठती, मनोहारी प्राकृतिक दृश्यों को देखती। ऐसे मौकों पर अपनी सहेली रानु और पुष्कर के साथ गपशप में ऐसा डूब जाती कि उसे समय का भान ही नहीं रहता। जब घर में रहती तो मोबाइल से चिपकी रहती।

   उसके इस आचरण से उसके माता-पिता चिन्तित रहने लगे। जिसका नतीजा यह निकला कि उसके माता-पिता ने उसके हाथ पीले कर दिए। 

   ससुराल में उसे  ऐसा लगता था मानों वह पिंजरे में कैद हो गई है।

  उसने जब एक बार अपने कस्बे के साथी पुष्कर को फोन किया तो उसने बातचीत करने से साफ इनकार कर दिया। उसने चेतावनी देते हुए कहा कि वह कभी उसे दुबारा फोन न करे।

   उसे घूमने-फिरने की ऐसी लत लग गई थी जिसको त्यागना उसे बहुत मुश्किल मालूम पड़ता था। 

   उस दिन जब नास्ता करके ओमेश अपनी दुकान चला गया तो वह भी अपने हाथ में एक थैला लेकर कुछ सामान खरीदने के बहाने अपनी सास को खबर करके बाजार निकल गई।

   कुछ घंटों के बाद जब वह उमंग-उत्साह से लबरेज खुशी-खुशी घूम-टहलकर लौटी थैले में कुछ सामान लेकर तो उसके पति ने कड़ककर कहा, “इस तरह का चाल-चलन तुमको शोभा नहीं देता है… तुम इस घर की बहू हो। तुम्हारे साथ इस घर की मान-मर्यादा जुड़ी हुई है लोग-बाग क्या कहेंगे। किसी ने तुम पर उंगली उठाई दी तो हमलोगों का सिर शर्म से झुक जाएगा।… न जाने किस किस काम से घंटों भटकती रहती है कभी पार्कों में, बाजारों में, कभी इधर, कभी उधर… क्या घर में मनोरंजन के साधन नहीं है?

   “लोग-बाग कुछ नहीं कहेंगे… लोगों को अपनी-अपनी समस्याओं को सुलझाने से ही फुर्सत नहीं है, दूसरे के संबंध में कौन सोचता है… ये सब आपकी अपनी सोच है…”

   “तुम मेरे साथ बहस मत करो!… मैंने कह दिया अकेले घर से बाहर नहीं निकलना है और मैंने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर है। हमलोगों के घर का जो नियम है उसे तुम्हें पालन करना होगा अन्यथा तुम्हारा गुजर-बसर यहाँ होना मुश्किल है। “

   इस तरह के वाद-विवाद उसके घर में अक्सर होने लगे। उसे लगता वह घर में नहीं किसी जेल में है। कदम-कदम पर उसे अपनी सास और पति के तानो-उलाहनों का दंश झेलना पड़ता।

   ऐसे ही समय में उसे खबर मिली कि उसकी माँ के पैर टूट गए हैं। गिरने के करण। मांँ को देखने की नीयत से वह अपने पति के साथ मायके पहुंँची 

   ओमेश ने भी इस घटना पर दुख प्रकट किया और जल्द से जल्द स्वस्थ होने की कामना प्रकट की।

   ओमेश अपनी सास के स्वस्थ होने तक मेधा को  अपनी माँ की सेवा-शुश्रुषा करने के मकसद से उसे  अपने मायके में रहने की अनुमति दे दी। मेधा को तो

इतनी खुशी हुई मानो उसे लौटरी निकल गई हो। 

   मेधा की मांँ डेढ़-दो माह के बाद चलने-फिरने लगी। अपनी बेटी की सेवा-भावना से प्रभावित होकर ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ का आशीर्वाद भी दिया। यह तभी संभव था जब वह अपनी ससुराल जाकर अपने जीवनसाथी के साथ दाम्पत्य जीवन व्यतीत करती।

लेकिन वहाँ किस चीज से  उसको नफरत थी और मायके में किस चीज से प्रेम था कहना मुश्किल था जो उसके शादीशुदा जीवन में अवरोध उत्पन्न कर रहा था।

   यह तो स्पष्ट था कि एक सफल व्यवसायी जिसका बिजनेस चलने लगता है तो वह अपने घर में अपने जीवनसाथी को बहुत कम समय दे पाता है, यह कमी तो थी ही। 

   उस दिन बाग के मंदिर में  जब जा रही थी तो अचानक उसकी भेंट पुष्कर से हो गई। मेधा ने उसे ठहरने के लिए कहा तो वह ठहर गया यह कहते हुए कि ‘क्या बात है?’

  “बात क्या रहेगी, दो-चार मिनट ठहर नहीं सकते हो।”

   “मैं गाँव के प्राइवेट स्कूल में पढ़ाता हूँ, टिफिन में आया हूँ… जल्दी में हूँ।… तुम कैसी हो?”

   “मैं कैसी रहूंँगी तुम समझ सकते हो, शादी के बाद कभी फोन तक नहीं किया, इतने निष्ठुर निकले… स्कूल में पढ़ते थे तो कितना घूमते-टहलते थे इसी आम के बाग में… तुम कच्चा आम तोड़ते थे आम के चार फांक करते थे फिर आपस में बांटकर खाते थे।… कितना अच्छा लगता था…”

 ” वो सब बचपना था… फोन-फान मत करना और न मैं कभी करूंँगा… अपनी घर-गृहस्थी संभालो, अब और क्या है? मेधा की भींगी हुई आंखों को देखते हुए कहा।

   जब मौन होकर उसने पुष्कर को देखा तो उसकी आँखें भी गीली हो आई। 

   कुछ पल बाद उसने कहा, “तुम्हारी शादी हो गई, मेरी होनेवाली है… हमलोग अब अपना-अपना घर-बार संभालेंगे… हमलोगों के बीच कोई प्यार-व्यार नहीं था उसका भ्रम है तो तोड़ दो, बचपना था, किशोरावस्था था… मैं तुमको अच्छा लगता था, तुम मुझे अच्छी लगती थी। बस बात इतनी सी थी” कहता हुआ वह तेज गति से आगे बढ़ गया। 

   वह तब तक उसको देखती रही जब तक वह उसकी आंँखों से ओझल नहीं हो गया। 

  हलांकि घर लौटने के बाद एक बार फिर उसने अपनी मांँ से कहा कि वह उसे घर से दूर नहीं करे, तब मांँ ने कहा कि दुनिया की यही रीति और परम्परा है। 

   शायद ससुराल में उसे उतना प्रेम नहीं मिलता होगा जिसकी वह हकदार थी। 

  जब उसने अपने पिता के पास मायके में रहने की बातें की तो पहले तो उसकी बातों से नाराज हो गये फिर समझाया कि यह कस्बा है कोई बड़ा शहर नहीं  है, लोग तरह-तरह की बातें करेंगे, लोग प्रश्न करेंगे कि बेटी की शादी कर देने के बाद भी बेटी मायके में क्यों जमी हुई है। 

  अपने पिताजी की बातें सुनकर वह मौन होकर उनके चेहरे को देखने लगी। 

  उनकी बातों से खामोशी छा गई थी जिसको तोड़ते हुए उन्होंने आगे कहा, “देख मेधा!… प्रारंभ में हर लड़की को ससुराल में इस तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, अपनी बुद्धि और सामंजस्यता के बल पर वहाँ के वातावरण को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश करनी चाहिए।… हम दोनों की उम्र ढल गई है। साल-दो साल के अंदर तुम्हारे भाइयों की शादी हो जाएगी।… हो सकता है तुम्हारे यहां स्थायी रूप से रहने पर बहुओं का विरोध झेलना पड़े, उनका स्वभाव कैसा होगा कौन जानता है।… हो सकता है बुढ़ापे में हमलोगों को भी  गुजर-बसर करना मुश्किल हो जाए।… सोचो मेधा!… इस तरह की बातें तुम्हारे भविष्य को अंधकारमय बना सकता है#जाने जिन्दगी में कौन सा मोड़ आ जाए ये कोई नहीं जानता है। इस लिए अपना नफा-नुकसान सोचकर ही कोई कदम उठाओ। यह भी हो सकता है कि आगे चलकर तुम्हारे भाई ही घर से बाहर का रास्ता दिखा दें। कहना मुश्किल है भविष्य में क्या होगा। “

   मेधा का भ्रम टूट गया था हर तरफ से। मायके का मोह समाप्त हो गया था। उसने अपनी ससुराल जाने की इच्छा अपने माता-पिता के समक्ष जता दी थी। 

      स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                     मुकुन्द लाल

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