इंद्रधनुष – मंजू सक्सेना : Moral stories in hindi

मेहमानों की गहमागहमी, हँसी-मज़ाक और शोरशराबे के बीच जैसे ही सुनील ने वधू वेश मे बैठी कामिनी की उँगली मे अँगूठी सरकाई कि सारा कमरा तालियों से गूँज उठा।कामिनी ने लजा कर झट धीमे से हाथ खींच लिया और पास खड़े सागर के नथुनों से एक गहरी राहत भरी साँस बाहर निकल कर फैल गई।

मेहमानों की भीड़ मे सागर ने इधर उधर देखा पर प्राची उसे कहीं नज़र नहीं आई…उदासी की एक लकीर चेहरे पर खिंचने से पहले ही सागर ने उसे भीतर समेट लिया क्योंकि वह जानता था कि सामने नज़र न आने पर भीवह ज़रूर किसी कोने मे छिपी कामिनी की सगाई का सारा कार्यक्रम देख रही होगी।

पर उस पल भी किसी अनदेखे झरोखे से प्राची को तलाशती सागर की आँखों को उन अदृश्य पुतलियों मे अपने प्रति उबलता घृणा का सैलाब साफ़ नज़र आ रहा था।खिन्नता से मन भर उठा उसका ‘उसी के कारण तो प्राची अपनी दीदी की सगाई तक मे सम्मलित नहीं हो पा रही है’।

कमरा फिर हँसी मज़ाक के ठहाकों से भर उठा था।सुनील की बहिन रीता कामिनी के कानों मे न जाने क्या फुसफुसाई कि आधे घूँघट से झाँकता उसका चेहरा सिन्दूरी हो उठा और अधरों पर लजीली मुस्कान नाच गई।सागर की दौड़ती दृष्टि क्षण भर को उस लजीले सौन्दर्य पर फिसल गई।

“प्राची….”,भीड़ मे से किसी ने पुकारा तो हड़बड़ा कर सागर बाहर की व्यवस्था देखने के बहाने कमरे से बाहर निकल गया।बरामदे मे बैरे मेजों पर प्लेटें सजा रहे थे।

“सागर…”,उसको देखते ही कामिनी के बाबूजी लपक कर उसके पास आए

“आप चिंता मत कीजिए… सब कुछ ठीक है”,सांत्वना के हल्के हाथों से उनका कंधा थपथपा कर सागर बाहर निकल गया।कृतज्ञता का बोझ ढोने का उसमे साहस नहीं हुआ।

बाहर लान मे अपेक्षाकृत शांति थी।पछुवा के झोंके से गेट के दोनों ओर लगे बाटल पाम के ऊँचे बृक्षों के पत्ते मस्ती मे झूम रहे थे।सागर के जलते मन को सुकून सा मिला तो वह बाहरी बरामदे की सीड़ी पर ही बैठ गया।भीतर के शोरशराबे से दूर उसका मन शून्यता के दायरे बनाने लगा।एकांत का दामन थामते ही चेहरे पर घिर आई उदासी की लकीरों ने उसके सम्मुख अतीत के द्वार खोल उसे भीतर धकेल दिया।…..’नौकरी मे उसकी पहली नियुक्ति इसी शहर  मे हुई थी जहाँ न कोई उसका संबंधी था और न परिचित ।मकान की अलग समस्या थी क्योंकि इस छोटे शहर मे सागर द्वारा हर शर्त मानने के उपरांत भी जब मकान मालिक को ये पता चलता कि वह कुंआरा है तो सब के दरवाज़े बंद हो जाते।

होटल मे ख़ानाबदोशों की तरह रहते रहते जब वह परेशान हो गया तो उसने अपने अधिकारी से अपनी समस्या का ज़िक्र किया।फिर उन्हीं की मदद से तीसरे दिन ही उसे अपने बैंक के कैशियर बाबू दीनानाथ के घर मे एक कमरा बतौर पेइंग गैस्ट किराए पर मिल गया।

दीनानाथ जी 4-5माह मे ही अवकाश प्राप्त करनेवाले थे।जीवन भर चरमराती आर्थिक व्यवस्था का बोझ अब अवकाश प्राप्ति के करीब उन्हें और भारी लगने लगा था।बीमार पत्नी और ऊपर से दो युवा बेटियों के ब्याह की चिंता उन्हे हरदम सताती रहती थी।

‘चलो इसी बहाने कुछ अतिरिक्त आय हो जाएगी’,यही सोच कर उन्होंने जवान बेटियों के रहते भी सागर के लिए हामी भर दी थी।फिर सागर व्यवहार मे भी उन्हें अच्छा लगता था।

आरम्भ मे तो सागर उनके परिवार से कटा कटा ही रहा।पर कुछ ही समय मे उस के व्यवहार से आत्मीयता झलकने लगी तो दीनानाथ जी की पत्नी के साथ उनकी बेटी कामिनी भी अछूती नहीं रह पाई।

अब प्रायः ही कामिनी बिना काम भी सागर के पास गपशप मारने आ जाती।साधिकार उसे खरीदारी के लिए ले जाती।संभवतया इसी अधिकार की भावना को परख दीनानाथ जी आँखों मे भी कुछ नये सपने मचलने लगे थे।

सागर को आज भी याद है…उस दिन होली थी।विभागीय परीक्षा के कारण वह इस बार घर नहीं गया था।सुबह से ही वह पढ़ाई मे लगा था तभी पीछे से कामिनी ने आकर उसके दोनों गालों पर रंग पोत दिया….”होली है,”कह कर वह भाग गई।पढ़ाई मे जुटे सागर को अचानक पड़े व्यवधान से एक क्षण को क्रोध आया, पर दूसरे ही पल कुछ निर्णय ले,किताबें बंद कर,स्याही अपने दोनों हाथों मे उड़ेल वह दरवाज़े के पीछे खड़ा हो गया।उसे मालूम था कि अभी कामिनी किसी न किसी कारणवश उधर से अवश्य गुज़रेगी….’खट…खट….’,पैरों की आहट हुई और लाल डुपट्टा जैसे ही सागर को नज़र आया, वह उछल कर कमरे के बाहर था।

“ये क्या बद्तमीजी है…”,चेहरे पर रंग का यूँ अचानक हमला होते ही लाल डुपट्टा तेज़ी से लहराया और सागर पलक झपकते ही जैसे बुत बन कर रह गया,’सियाह रंग पुते चेहरे वाली लड़की कामिनी नहीं थी।’

पर उस घबराहट मे भी सागर की दृष्टि उन आँखों मे जम के रह गई जो सियाह रंग के बीच कमल सी खिलीं थीं…पर मकरंद की जगह इस वक्त आग उगल रही थीं।

“मैं पूछती हूँ कौन हो तुम?तुम्हारा इतना साहस कि….”,क्रोध की परिणति शायद उसके नयनो से जल बन कर उतरने ही वाली थी कि उसी समय प्रातः भ्रमण से बाबूजी लौट आए,

“अरे प्राची बेटा तू….? तू कब आई…?”बेटी को कंठ लगाते ही उनकी दृष्टि पास खड़े सागर पर पड़ी जो अब असमंजस मे था।

“बेटी…ये सागर है…और ये है मेरी छोटी बेटी प्राची…देहली मे अपने नाना के घर रह कर बी.एस.सी.कर रही है।”

“अरे बिटिया….”,उसी पल पास आती मांजी का स्वर सुनाई पड़ा तो नज़र बचा कर सागर वहाँ से खिसक लिया।

 उस घटना के बाद प्राची से उसकी यदाकदा ही भेंट होती थी बोलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था क्योंकि प्राची सदैव उसकी उपस्थिति को उपेक्षा की ठोकर से झुठलाने का प्रयत्न करती।पर न जाने क्यों, अब जब भी वह तन्हाई मे होता, सियाह चेहरे से दो बड़ी-बड़ी आँखें उसे घूरती नज़र आतीं।हाँ…कामिनी से ही उसे ये पता चला था कि प्राची अब यहीं रह कर आगे की पढ़ाई करेगी।

छोटी बेटी की उपस्थिति, आयु से ज़्यादा स्वास्थ्य मे जर्जर होते पिता को संबल का अहसास करा गई और उपयुक्त अवसर देख उन्होंने कामिनी की लजीली स्वीकृति ले कर सागर के सम्मुख उस के विवाह का प्रस्ताव रख दिया।

“पर बाबूजी… मैने तो कामिनी को कभी इस दृष्टि से देखा तक नहीं….”,इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से सागर हड़बड़ा गया।

“लेकिन… कामिनी और तुम एक दूसरे को…..”,दीनानाथ जी के शब्द असमंजस के पथ पर लड़खड़ाने लगे तो सागर ने आगे बढ़ कर उन्हें संभाल लिया,

“बाबूजी….आप कामिनी के साथ मेरे व्यवहार को दूसरे रूप मे ले रहे हैं… पर सच मानिये मैने कामिनी को सदैव एक मित्र और भाई की दृष्टि से देखा है…आप कामिनी से पूछ लीजिए… कभी मैंने उसके साथ कुछ ऐसा व्यवहार किया हो या कुछ कहा हो….पर आपको अगर मेरे खुले व्यवहार से कोई ग़लतफ़हमी हुई है तो मैं उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ”,सागर के स्वर मे सच्चाई साफ़ झलक रही थी।

“पर कामिनी… वह तो…”,पीड़ा से भीगे पिता के स्वर को सागर ने बीच मे ही पकड़ लिया,”उसकी चिंता मत कीजिये.. मैं उसे समझा दूँगा… आखिर हम मित्र हैं”,कह कर सागर हँस दिया पर दीनानाथ जी के चेहरे से स्पष्ट था कि सुयोग्य दामाद मिलने का सपना अचानक टूटने का अहसास उन्हें भीतर तक हिला गया था।पर उनके भीतर पड़े भद्रता के अंश ने बात आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा,

”ठीक है”,कह कर वह थके क़दमों से चले गए।

        उसी शाम प्राची से फिर एक बार सागर की भेंट हुई थी।शाम की चाय आज कामिनी के स्थान पर उस के हाथों मे थी।पर सागर को विस्मय तो तब हुआ जब चाय देकर लौटने के स्थान पर वह उसके सामने पड़ी कुर्सी का सहारा ले इत्मीनान से खड़ी हो गई,” आज आप ये नहीं पूछेंगे कि दीदी क्यों नहीं आई”?

व्यंग्य का पहला तीर प्राची ने छोड़ा और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही कड़वाहट की समूची गागर ही सागर के कानों मे उड़ेल दी,”अब पूछने की ज़रुरत भी क्या है..आपका खेल समाप्त हो चुका है..और बाजी सदैव की भांति पुरुष यानी आपके हाथ मे है”।

“मैं समझा नहीं….”,अचानक हुई क्रोध की बरसात से सागर हड़बड़ा गया पर प्राची को यह सब उसका अभिनय मात्र ही लगा,

“मैं आप जैसे इंसानों को,जिन्हें इंसान कहना भी इस बहुमूल्य शब्द का अपमान करना है, समझाना भी नहीं चाहती।पर ये अच्छे से जान लीजिए कामिनी दीदी बहुत भोली हैं उनको धोखा देना आपको बहुत मँहगा पड़ेगा।”

“पर ..मेरी बात तो सुनो…”,सागर ने कहना चाहा पर तब तक प्राची कमरे से बाहर जा चुकी थी।विवशता के घूँट पी कर रह गया वह।’क्या कुंआरी लड़की और अविवाहित पुरुष के बीच संबंधों की राह केवल एक ही मंज़िल पर जाती है?’

      उस घटना के बाद सागर को उस घर मे एक पल भी काटना दुश्वार लग रहा था।दीनानाथ जी की धुंधलाई आँखों मे टंगे हुए सपनों की कीलें हर पल उसके सीने मे गड़ती सी लगतीं।उदासी के साये मे काँपता कामिनी का पीला चेहरा और प्राची की जिब्हा से निकले विष बुझे तीर उसे हर क्षण उस अपराध बोध का अहसास कराते जो उसने किया ही नहीं था।पर परिस्थितियों के इस विषम मोड़़ से मुँह छिपा कर भागना भी उसके स्वाभिमानी पौरुष के विपरीत था।फिर माँजी तो अभी भी तटस्थ भाव से उस पर अपनी ममता का आँचल फैलाए थीं।एक माँ की ममता का मोल वह कायरता का लिबास ओड़ कर कैसे चुका सकता था।

बहुत सोचने विचारने के उपरांत सागर ने अपने बचपन के मित्र सुनील को तार भेज कर बुलाया।सुनील भी सागर की भांति आकर्षक व्यक्तित्व और अच्छी नौकरी का स्वामी था।सागर और सुनील दोनों एक दूसरे के लिए खुली किताब से थे।

          सुनील को दरवाज़ा खोलने आई कामिनी पसंद आ गई थी।फिर सागर की योजना अनुसार दीनानाथ जी से विचार विमर्श करके सुनील और कामिनी की शादी की तिथि भी पक्की हो गई।कामिनी को भी कोई एतराज़ नहीं था।

आर्थिक मदद के तौर पर सागर ने बैंक से दो लाख रुपए की राशि अग्रिम ले कर दीनानाथ जी के हाथों मे सौंप कर उन्हें गले तक आभार मे डुबो दिया,”बेटा… तुम्हारे अहसानों का कर्ज हम किस तरह उतार पाएंगे,”आगे के शब्द आँसुओं मे डूबते ,इससे पहले ही सागर ने उन्हें दिलासा दिया,”बाबूजी….बेटे के साथ अहसान शब्द जोड़ कर इस रिश्ते को अपमानित मत करिए…..मेरे परिवार मे बस हम दो भाई हैं… एक बहिन का अभाव सदैव ही मुझे रहा इसीलिए जब कामिनी से भेंट हुई तो हृदय का वह रिक्त कोना भी भर गया।अब आप ही बताईये बाबू जी…मेरी कोई अपनी बहिन होती तो क्या मैं उसके लिए इतना भी न करता….”।

“अरे…आप यहाँ छिप कर बैठे हैं और उधर दूल्हे मियाँ आपके बिना खाना नहीं खा रहे हैं…”,अचानक प्राची के तेज़ शब्दों के प्रहार ने सागर को चौंका कर यथार्थ मे आने को विवश कर दिया।क्षण भर को चेतना शून्य सी दृष्टि उस संगमरमरी चेहरे पर टिकी रह गई जो शोख़ रंग के सूट मे अंगारे सा दहक रहा था।व्यंग्य के खिंचाव से काली आँखें कुछ और शोख़ हो गई थीं।

सागर का मन हुआ पल भर को ही सही, वह इन कटोरों मे डूब जाए।पर वह जानता था कि उस देहरी के द्वार उसके लिए घृणा के तालों से बंद हैं।इतना सब होने पर भी प्राची के व्यवहार से स्पष्ट था कि वह अपनी दीदी के दिल तोडऩे वाले को कभी क्षमा नहीं कर सकती।पर सागर ने ख़ुद ही तो बाबूजी से प्रार्थना की थी कि वह इस बारे मे कामिनी या प्राची को कुछ न बताएँ।

पर जल्द ही कामिनी की तरफ से तो उसका ये भ्रम टूट गया।सगाई के पन्द्रह दिन बाद शादी थी।घर मे पुत्र न होने के कारण सागर ने वह दायित्व भी अपने कंधों पर ओड़ लिया था।

      शादी की अगली सुबह,विदाई के समय, वह थका माँदा अपने कमरे मे आकर बैठा ही था कि वधूवेश मे कामिनी को अंदर आता देख चौंक गया,” अरे तुम…”,तभी कामिनी ने आगे बढ़ कर उसके पाँव छू लिए,” बाबूजी ने मुझे सब कुछ बता दिया है….मेरे कारण आपको बहुत कष्ट सहना पड़ा….मैं बहुत शरमिन्दा हूँ… मुझे माफ़ कर दीजिए”।

“पगली….”,भरे कंठ से सागर इतना ही कह पाया था कि वह फिर बोल उठी,”मैंने एक साधारण नारी की भांति आपको भी एक साधारण इंसान समझ सपने संजोने शुरू कर दिये थे…..भैया… मुझे माफ़ कर दो”,कामिनी का चेहरा आँसुओं से तर था।

“पगली… तू मुझे इतना आदर दे रही है…….और कोई मुझे इंसान भी कहलाने लायक नहीं समझता…”,उसी समय पीछे से आती हुई प्राची पर सागर की नज़र पड़ी और अंदर की उदासी अधरों पर बिखर गई।अंजाने मे कहे इन शब्दों का अर्थ पता नहीं कामिनी समझी या नहीं… पर हाँ.. कमरे से बाहर निकलते समय एक बार फिर क्षमा पाने की ललक मे उस की पलटी दृष्टि ने ये अवश्य देखा था कि हड़बड़ाहट मे प्राची के हाथ से गिरे रूमाल को सागर ने ज़मीन से उठा कर अपनी पलकों पर सहेज लिया था।

कामिनी की विदाई हुए चार दिन बीत चुके थे।हैरान था सागर कि किसी एक व्यक्ति की अनुपस्थिति भी रंगों को यूँ फ़ीका कर सकती है।

    “बाबूजी… मैं यहाँ से जा रहा हूँ।एक पुराना मित्र मिल गया है उसी के साथ रहने का विचार है”,एक शाम सागर ने अपने विचार पर निश्चय की मुहर लगा दी तो वृद्ध दम्पति के जैसे कलेजे दहल गए,”बेटा… हमसे कोई भूल हो गई तो हमें चाहे जो कह लो पर यूँ छोड़ कर तो न जाओ,”माँजी बिलख उठीं थीं।

पर यह कमज़ोर होने का समय नहीं था।किसी तरह से समझा बुझा कर सागर ने उन्हें इस बात पर राज़ी कर लिया कि वह हर इतवार को दोपहर का भोजन उनके साथ करेगा।

दूसरे दिन दोपहर के समय सागर जाने के लिए सामान बाँध ही रहा था कि कामिनी और सुनील आ गए।हनीमून के लिए जाते समय वे कुछ घंटों के लिए यहाँ रुक गए थे।

“कहीं जाने का इरादा है क्या”,सुनील ने पूछा।पर सब कुछ भाँप कर सागर के उत्तर की प्रतीक्षा किये बग़ैर ही कामिनी सीधे प्राची के पास पँहुच गई,”प्राची… तुझे मालूम है सागर जा रहे हैं”?

“तो मैं क्या करूँ,”उत्तर मे उपेक्षा से प्राची ने कंधे झटकाए तो कामिनी झल्ला उठी,” प्राची… सागर तुझ से प्यार करते हैं”।

“सागर और प्यार”?व्यंग्यों का तुणीर जैसे अनचाहे ही खुल गया,

“तुम्हें यह कैसे भ्रम हो गया कि उस जैसा इंसान किसी को प्यार भी कर सकता है”?

“भ्रम नहीं यह हक़ीक़त है।मैने ख़ुद अपनी आँखों से इसका प्रमाण देखा है”। कामिनी के स्वर मे तैश का स्पर्श आ गया तो प्राची जैसे बिफर उठी,” दीदी… कल तक वह तुम्हारे सामने अपनी मुहब्बत के प्रमाण पत्रों के ढेर लगा रहा था और आश्चर्य है आज तुम उन्हीं प्रमाण पत्रों मे मेरा नाम देख रही हो…क्या ब्याह होते ही तुम्हारी दृष्टि भी बदल गई… याद करो जब मैं दिल्ली मे थी,तब तुम ही मुझे अपने और सागर के प्रेम के बारे मे ढेर सारी बातें लिख कर नहीं भेजती थीं”?

“चुप रहो…”,बीच मे ही कामिनी का स्वर तार सप्तक की उँचाई छू गया तो क्षण भर को प्राची भी हतप्रभ हो उठी।

कुछ पल संयत होने के उपरांत कामिनी का स्वर ठोस धरातल से उभरा था,” हाँ…लिखती थी…पर वह सब एक तरफ़ा था।मैनै उससे प्रभावित हो उस की मित्रता को प्यार समझने की नादानी कर दी थी।…..उसने कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया  जो मर्यादा के परे होता।और जानती हो सुनील से मेरी शादी करवाने मे भी सागर का ही हाथ है…क्योंकि मेरी ग़लतफ़हमी और तेरे आरोपों के बाद इस कार्य को पूरा करवाना उसने अपना नैतिक कर्तव्य समझ लिया।इतना ही नहीं, शादी के खर्च के लिए दो लाख रुपये बैंक से अग्रिम लेकर उसने बाबूजी को दिये….प्राची.. गलती मेरी थी पर प्राश्चित सागर ने किया”,कामिनी का स्वर पाश्चाताप मे भीगा हुआ था।

एक के बाद एक अप्रत्याशित बंद दरवाज़े खुलते ही प्राची की चेतना जैसे विक्षिप्त हो उठी,’ उफ,…ये मैने क्या कर दिया?अंजाने मे कैसा अपराध कर बैठी’?

कुछ ही देर मे सागर चला गया।चलते समय प्राची ने उस के सम्मुख दृष्टि की झोली पसार कर ही क्षमा याचना की चेष्टा की..पर सब से प्रेम पूर्ण अभिवादन कर जब वह उसकी ओर देखे बिना ही टैक्सी मे बैठ गया तो कमरे मे आ कर बिलख पड़ी वह।माँ,बाबूजी और दीदी का स्नेह ले जाते समय वह उसकी उपेक्षा उसी को लौटा गया था।

  उस पूरी रात बिस्तर उसके लिए तपता रेगिस्तान बन गया,जिसे हर पल वह अपने आँसुओं से ठंडा करने का प्रयत्न करती रही।पर हृदय के ज्वालामुखी से निकली एक भीषण आग सी सच्चाई सुबह होने तक उसे पूरी तरह गिरफ्त मे ले चुकी थी।

वास्तव मे प्राची सागर से बेहद् प्रेम करती थी।और वह प्यार आज का नहीं बल्कि उस दिन का परिणाम था जब रंगों के बीच सागर से उसकी पहली भेंट हुई थी।उस के प्रति कौतुहल तो दीदी के पत्रों मे लिखी उसकी प्रशंसा ने ही जगा दिया था और व्यक्तित्व की पहली छाप घर की देहरी पर पाँव रखने के साथ ही उसके हृदय पर पड़ी थी।

पर संभवतया अवचेतन मे दीदी के प्रति अंकुरित ईर्ष्या के बीज ने यथार्थ मे क्रोध का रूप ले अपनी शाखाएं सागर के ऊपर ही फैला दीं।फिर दीदी के प्रति बेवफाई के खादपानी ने उसमें घृणा के फलफूल उगा दिये।पर आज उसे भलीभांति एहसास हो गया था कि जिस सामीप्य के इर्दगिर्द वह दूरियों की खाई खोद रही थी आज उसी से दूर होने की कल्पना भी हृदय को घायल करती जा रही थी।

अगले इतवार को सागर आया पर केवल माँ और बाबूजी के लिए।प्राची सामने हो कर भी उसके लिए अनुपस्थित थी।उधर प्राची को सागर के सूने कमरे मे भी हर पल उसकी उपस्थिति का अहसास होता था।

इस वर्ष होली पर सागर को अपने घर जाना था।अतः दो दिन पहले ही वह माँ से मिलने आया था।चाय के प्याले के साथ ही प्राची ने कागज़ का एक मुड़ा टुकड़ा उसकी ओर धीमे से खिसका दिया तो हैरान नज़रों और लापरवाह हाथों ने उसे पैंट की जेब तक पँहुचा दिया।….।पर घर से निकलते ही कागज़ उसके हाथ मे था और एक उदास मुस्कान अधरों पर…कि नफ़रत का कोई नया सिला होगा।पर खुले कागज़ पर दृष्टि पड़ते ही वह उसे कई बार पढ़ गया… लिखा था’ कल शाम को पाँच बजे मैं आपकी प्रतीक्षा करूंगी’…प्राची

अजीब ऊहापोह मे पड़ गया सागर…’कल सुबह ही तो घर जाना है उसे….और ये निमंत्रण’? रात भर मस्तिष्क और मन का युद्ध चलता रहा और सुबह उसने घर तार भेज दिया कि काम की अधिकता के कारण वह दो दिन बाद आएगा।

पशोपेश के घेरे मे कै़द वह दूसरे दिन ठीक समय प्राची के घर पँहुच गया।दरवाजा भीतर से बंद नहीं था अतः हाथ लगाते ही खुल गया।सामने आँगन मे फूलों के घेरे के बीच रंगबिरंगे गुलाल से बड़े बड़े शब्दों मे लिखा था ,”मैं तुमसे प्यार करती हूँ”…प्राची।

गुलाब की खुशबू का मीठा झोंका सागर को एक पल के लिए भीतर तक सराबोर कर गया।पर तभी शंका का नुकीला काँटा अपना सिर उठा बैठा….कहीं उसका उपहास करने का कोई नया षड्यंत्र तो नहीं….अपनी नादानी पर मन ही मन झल्ला कर वह वापस क़दम मोड़ने वाला ही था कि दो कोमल हाथों ने उसके मुँह पर ढेर सा गुलाल मल दिया।

“तुम….?”खुली दृष्टि मे एकबारगी विस्मय के ढेरों रंग सिमट आए…सामने मुस्कुराती प्राची खड़ी थी।

“मुझे यहाँ क्यों बुलाया है”?सागर का स्वर स्वतः ही कठोर हो उठा पर उसकी गम्भीरता से परे गुलाल से लिखी इबारत की ओर दृष्टि फेंक प्राची फिर हौले से हँसी,” यह पढ़वाने”।

“क्या”?इतने दिन का अवसाद अचानक ही गरमी पाकर जैसे ज्वालामुखी बन फट पड़ा”, तो…तुम मेरा मज़ाक उड़ाना चाहती हो?मुझे अपनी नफ़रत और क्रोध के शोलों मे जला कर चैन नहीं मिला, जो इस तरह मुझे नीचा दिखाने पर तुली हो….आख़िर मैंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा…”?

सकते मे आ गई प्राची?उसके प्यार के खुले इज़हार को इस रूप मे लेगा सागर इसकी तो उसने कल्पना भी नहीं की थी।

“ठहरो..”,कुछ सोच कर धीमे से उसने फूलों का ढेर एक ओर खिसका दिया… अब इबारत साफ थी..’सागर.. मै तुमसे प्यार करती हूँ…..तुम्हारी प्राची

कुछ पल को दृष्टि गुलाबी इबारत और प्राची के बीच बंधे अदृश्य तारों मे उलझी रही।पर अगले ही पल वह दीवानों सा प्राची के कंधे झकझोर रहा था,” प्राची… क्या यह सच है?कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा”।

“सागर.. यह सच है कि पिछले वर्ष तुम्हारे द्वारा लगाए रंग ने क्रोध के कुछ छींटे अवश्य उड़ाए थे,पर वह रंग इतना कच्चा नहीं था जो इतनी जल्दी छूट जाता।बस ईर्ष्या के कारण उपजे क्रोध और घृणा के रंगों के बीच मे मैं प्यार के रंग को पहचान नहीं पाई थी”,प्राची ने सागर के वक्ष मे मुँह छिपाते हुए कहा तो प्रसन्नता के वेग मे उस ने प्राची को अपनी बाँहों मे समेट लिया।

“जानती हो प्राची….जब कई रंगों के मिश्रण से एक रंग बनता है तो वह अमिट हो जाता है… समय की बरसात भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती… तुम्हारा प्यार भी ऐसा ही है जैसे…”

“इन्द्र धनुष…”,प्राची ने उसकी आँखों मे झांक कर कहा तो सागर उन पुतलियों मे देखता ही रह गया, जहाँ प्यार के सातों रंग उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

उसके हाथों की गिरफ्त से छूटने का असफल प्रयास करते हुए प्राची ने कहा,”अब छोड़ो भी…और हाँ यह रंग धो डालो,माँ और बाबूजी बाहर से आते ही होंगे”।

लेकिन सागर ने उसे और कस लिया जैसे उसे डर हो कि उसका सपना न टूट जाए…अपने गाल प्राची के गुलाबी कपोलों पर धीमे से रगड़ते हुए वह हँसा,” अच्छा है वह भी हमें एकरंगी देख लें”।

    प्रेम के अनूठे स्वाद मे लीन सागर की मुंदी आँखें दरवाज़े पर उसी समय पँहुचे माँ और बाबूजी की उपस्थिति से एकदम बेखबर थीं।उधर इस दृश्य को निहार दो जोड़ी वृद्ध आँखों मे इन्द्र धनुषी सपनों का समूचा संसार ही उग आया था।

(मौलिक)

मंजू सक्सेना

लखनऊ

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