हमारी नयका : एक अव्यक्त प्रेम कहानी(भाग-3) – साधना मिश्रा समिश्रा : hindi stories with moral

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शर-शैय्या…

आंगन में बाध की खाट पर लेटे हुए खांसते हुए पिता को नजरअंदाज करते हुए रघु मां-मां कहते हुए घर में प्रविष्ट हो गया। नयका रसोई में छोटी सी प्यारी गुदबुदी सी बहू के साथ रोटी-पानी में व्यस्त थी।

एक वर्ष पहले ही रघु का ब्याह कर दिया था।

दो महीने पहले बहू का गौना करवा ले आई थी। बहू की पायल की रूनझुन से तप्त हृदय में पानी के कुछ चंद छींटे

पड़े थे लेकिन चंदा के सामने पड़ते ही मन के ज्वालामुखी फूट पड़ते थे।

कैसे भूले कि इसी चंदा के कारण मात्र तीस वर्ष की वय में विधवा का वेष धारण करना पड़ा था।

महीन तांत की पाट की साड़ी, हाथ में सोने के दो मोटे कड़े, माथे पर चंदन का टीका… कितना कुछ उलाहना सुना था इस परिवेश के लिए गांव वालों से, रिश्तेदारों से कि पति के जीते जी विधवा बनी है। इतना घमंड…

नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी।

नयका ने सब सुन सह लिया। यह तो दंड था उस पति के लिए जो उसके रहते उनकी छाती पर सौत बैठा दिया था।

अब देखो कि तुमने तो मुझे छोड़ा ही था।

मैंने तो तुम्हें अपने जीवन से ही मिटा दिया। अपने जीवन में तुम्हारा अस्तित्व ही खत्म कर दिया।

चाहती थी कि जिस आग में मैं जल रही हूं। वही आग तुम्हारे हृदय को भी दग्ध करता रहे और दस साल से देख रही है कि जल रहा है  उसका पति उसी धोखे की आग में।

जो धोखा  देने में अपनी विजय समझ रहा था। अब दिन-रात हारा हुआ लगता है।

इस कदर हारा कि दस साल में ही खाट से लग गया है। दिन रात उसी पर पड़े हुए कातर दृष्टि से उसे और अपने बच्चों को देखते रहता है।   

कभी नहीं सिखाया नयका ने कि बच्चे अपने पिता से विमुख हों पर बच्चे स्वाभाविक रूप से मां की तरफ ही रहे। पिता ने प्यार से निहारा भी तो छटक गए।

मां में ही पिता को ढूंढ़ लिया। पिता सामने रहते हुए भी नहीं रहे।

रघु आगे कुछ कहता उसके पहले ही आंगन से लगातार खों-खों की आवाज आने लगी।झुंझलाकर रघु ने कहा… उफ…इस खांसी की आवाज ने परेशान कर रखा है। काहे नहीं जाकर अपनी कुठरिया में मरते।

धक से रह गया नयका का जी।

कितना घृणा भरा है इस स्वर में, कहीं बेटे की पिता के प्रति इस घृणा की वही जिम्मेदार तो नहीं।

बेटे की झुंझलाहट देख नयका का मन किया कि वह भी खांसी की इस आवाज को नजरअंदाज कर दें। लेकिन महीना दिन से लगातार सुन मन उनका विचलित था।

कुछ तो जुड़ा है वहां उनका। शायद कुछ बचा हुआ है जो चैन से रहने नहीं दे रहा है।

वह भी नहीं समझ रही कि वह क्या है जो पति की बढ़ती खांसी, बढ़ती बीमारी उसे परेशान कर रही है। वह झपटी आंगन की तरफ। सांसों की धौंकनी में डूबे पति को लगातार खांसते देख उसने जोर से आवाज लगाई…

रघु… बाबू को तुरंत अस्पताल ले चलो।

रघु मां की आवाज पर दौड़ा हुआ आया…

कुछ कहना चाहा पर मां की आंखों ने डपट दिया।

तुरंत चार आदमियों का इंतजाम कर बैलगाड़ी में डाल अस्पताल को रवाना हुआ। यह क्या…

मां भी उसी गाड़ी में सवार हो गईं…

रघु के आंखों में तैरते प्रश्न तैरते ही रह गए।

दस दिन की दवा-दारू और नयका के मौन सेवा ने जैसे कमलकिशोर को नया जीवन दे गए…

वे कातर निगाहों से क्षमा याचना करते रहे पर पत्नी का हाथ भी न छू पाए।

दस दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिल गई… तबियत बहुत संभली हूई थी।

मन प्रसन्न था कि शायद भूल सुधार का मौका मिल गया है। शायद नयका ने क्षमादान दे दिया है।

दस सालों में कमजोर हुए मन ने हिम्मत बांध पहली बार पत्नी को संबोधित किया…

दोनों हाथ जोड़कर कहा…

नयका…मुझे क्षमा कर दो। मैं भटक गया था…

एक मौका दे दो। हर भूल का प्रायश्चित कर दिखाऊंगा।

मुझे इस तरह जीते जी न मारो।

तुम्हारा यह रुप मुझे क्षण-क्षण मारता है…

आदमी हूं भगवान नहीं… हो गई गलती…मैं हर वह प्रायश्चित करने तैयार हूं जो तुम बोलो पर बिना सिंगार तुम्हें देखना हर पल मुझे मार रहा है।

कुछ तो बोलो, शिकायत करते मुझे कोसो… बहक गया था मैं…मुझे माफ कर दो।

एक क्षण के लिये नयका ने आंखें उठाईं… सिहर उठा कमलकिशोर….

सूनी आंखे, कोई भाव नहीं…

न उदासी न हर्ष…अजीब सा ठंडा सूनापन…उफ…

तभी घर के सामने बैलगाड़ी रूकी….

नयका उतरी और रघु से कहा…रघु…दवा-दारू, सब का पूरा इंतजाम देख लेना बेटा….

कोई कितना भी अनजाना क्यों न हो तड़पते को देख कभी मुँह नहीं मोड़ना….

हम आदमी जात हैं। पत्थर को भी ठोकर मारते हमें दर्द होना चाहिए…

कमलकिशोर के चेहरे पर जैसे स्याही पुत गई…

रघु को उसके मन में घुमड़ते सवालों के सारे जवाब मिल गए। सामने आंगन में खड़ी चंदा कुछ समझी और कुछ नहीं समझने वाले भाव में ठगी सी रह गई।

घर के अंदर जाते हुए नयका को लगा कि कहीं कोई एकांत मिल जाता तो वह इतना दहाड़े मारकर रोती कि यह जमीन… यह आसमान हिल जाता लेकिन आंख से एक बूंद भी आंसू गिरने नहीं देती…क्यों ?

क्योंकि आज वह विजयी है…

मन की सारी पीड़ा शांत पड़ रहीं हैं पर क्या सचमुच…

बीते दस साल में हर रात नयका आंसुओं के सैलाब में डूबती उतराती हैं। एक दीवार पार आंगन में पति का अलग घर हो, यह सहना किसी भी स्त्री के लिये आसान नहीं है।

बीती हर रात नयका के लिये कांटों की सेज बन जाती है। मन में उठा यह ख्याल भी कि दीवार पार पति किसी गैर स्त्री के साथ रंगरेलियां मना रहा है तो यह नरम रूई का गद्दा भी कांटो की सेज बन जाता है।

इस शर शैय्या की चुभन भीष्म पितामह की शर शैय्या की पीड़ा से कम नहीं है। भीष्म पितामह तो इस पीड़ा से चार महीने में ही उऋण हो गये थे। वह तो दस साल से दिन-रात इस पीड़ा को भोग रहीं हैं। क्यों सह रहीं हैं पता नहीं,

लेकिन दस सालों से रघु कहता रहा है , क्यों सहती हो अम्मा इन लोगों को।

पैरों में चुभे कांटों को आप ही सहलाती फिर रही हों। या तो इन्हें आंख ओट करो या आप ही इनके आंख ओट हो जाओ।

लेकिन वह क्यों नहीं ऐसा करने देना चाहती हैं कि पति आंख ओट हो। वह ऐसा क्यों सोचती हैं कि कांटों की शैय्या तो तब भी इतनी ही चुभेगी। जरा भी इसकी पीड़ा कम न होगी क्योंकि धोखा तो धोखा ही होता है। कहीं दूर जाने से वह वफादारी में नहीं बदलता है। वह उस दिन को भी उसी पराकाष्ठा के साथ रोज महसूस करती हैं जब पहली बार पति चंदा की मांग भर, गेंदों की माला पहिना, बाजा बजवाते घर ले आया था।

जिसकी इतनी हिम्मत हो, वह उनके निर्णय के खिलाफ एक शब्द भी मुंह से नहीं उचारे, ऐसा क्यों कर हो सकता था…

जब कड़कते हुए नयका ने भरे समाज में ऐलान कर दिया था कि उन्हें इस जमीन की कमाई के एक चौथाई का हिस्सा ही मिलेगा और उनके घर में उनको कोई स्थान नहीं मिलेगा।

वह साम्राज्य तो कमलकिशोर का ही था लेकिन एक शब्द नहीं बोला था पति ने कि तुम होती कौन हो मुझे मेरे जमीन से बेदखल करने वाली।

मालिक ने मुआवजा नहीं बांटा था।

बांटा तो नयका ने था कि अपना गुजर-बसर लो और दफा हो जाओ।

वह तो उसी एक कमरे में दस साल से जी-मर रहे हैं और वह इस बड़े से घर में हुक्मरानी कर रहीं हैं।

क्या उनकी भी वह शैय्या, शर शैय्या नही बन गई होगी। यह सवाल दस सालों से उनका पीछा कर रहा है।

तो क्या दोनों एक ही नाव की सवारी कर रहे हैं।

पति की नई बसाई गृहस्थी का बदला तो नयका ने तभी ले लिया था जब दूसरे दिन ही अपना सारा क्षृंगार त्याग दिया था। न सिंदूर, न हाथ में कांच की चूड़ियां, न माथे पर बिंदी।

जब महीन तांत की हल्के रंग की साड़ी, माथे पर चंदन का टीका और हाथ में दो मोटे सोने के कंगन पहन पति के होने की सारी निशानी मिटा वह निकलीं तो सारा गांव त्रास खा गया। पति के जीवित रहते यह वेषभूषा देख बहुत सी बातें बनीं परंतु नयका ने किसी भी बात की परवाह नहीं किया।

दस दिनों की थकावट थी। मन कर रहा था कि वह एक गहरी नींद लें लें लेकिन हृदय में तो जैसे भावों की खलबली मची हुई थी।

वे सोना चाह रहीं थीं और भाव जागना…

क्रमशः ….

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साधना मिश्रा समिश्रा

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