हमारी नयका : एक अव्यक्त प्रेम कहानी(भाग-2) – साधना मिश्रा समिश्रा : hindi stories with moral

hindi stories with moral : आज का पूरा दिन ही हंगामे की भेंट चढ़ गया। नयका को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि जिस व्यक्ति के साथ वह सुखपूर्वक पिछले पंद्रह साल से सुखी गृहस्थ जीवन गुजार रहीं थीं। वह पति कहीं और भी प्रेम की पींगे चढ़ा रहा था और इस पराकाष्ठा तक पहुंच चुका था कि उसके ही घर आंगन के सामने नगाड़ा बजवाते किसी दूसरी औरत को ला खड़ा कर दिया इस फरमान के साथ कि रख लो इसे भी इस घर में, पड़ी रहेगी घर के किसी कोने में हाथ बटायेगी तुम्हारा।

छिः, छिः, कोई कैसे इस कदर बेशर्म हो सकता है।

सर्वांग थरथरा रहा था नयका का।

पूरा दुबानपूरा नयका के साथ खड़ा था सिवाय उसके जिसका हाथ थाम वह इस दुबानपूरा की बहू बनी थी।

सभी तो उसके रिश्तेदार थे। यहाँ वह किसी की भाभी थीं तो किसी की जेठानी, किसी की देवरानी थी तो किसी की बहू। लेकिन जिसके नाते वह सबके साथ नातों से बंधीं थीं वह तो रिश्तों का पगहा ही तुड़ाने को आतुर था।

आज उसे न तो पत्नी से कोई मतलब था, न अपने बच्चों से।

वह तो  किसी और औरत के साथ खड़ा था।

उसकी आंखों के सामने उसका घर टूट गया था और वह धधकते हृदय के साथ झुलसने के अलावा कुछ नहीं कर पा रही थी।

पूरा गांव कमलकिशोर पर थू थू कर रहा था लेकिन अब इस भत्सर्ना का कोई अर्थ नहीं था। जो टूटना था वह तो टूट चुका था। जो बंटना था, वह तो बंट चुका था।

परिस्थितियों की गंभीरता समझ नयका की जेठानी उसके तीनों बच्चों को अपने घर ले गई थी। सारा गांव नयका के घर टूट पड़ा था।

सभी लोग नयका के साथ खड़े थे लेकिन नयका समझ रही थी कि आज से वह अकेली हो चुकी थी।

कुछ मर सा गया था उसके अंदर। यंत्रवत उसने रसोई के आधे बरतन, कुछ आनाज की टोकरियाँ और कमलकिशोर की आवश्यकता के सभी चीजें ढूंढ़ ढू़ंढ़कर आंगन के उस पार फिंकवा दिया। न आंखों में एक आंसू , न कोसना, न चीखना चिल्लाना।

कुछ भी नहीं…

उसके बाद वह अपने कमरे में दरवाजा बंद कर जमीन पर ही ढ़ह गईं क्योंकि जिस पलंग पर वह विवाह के पश्चात अपने पति के साथ सोती थी, उसे तो उन्होंने आज आंगन के उस पार पहुंचवा दिया था क्योंकि उसका पति दूसरी अंकशायिनी को जो घर ले आया था।

नयका जैसे प्रज्ञाशून्य सी हो गई थी।

दिमाग कुछ समझ नहीं रहा था। सारा अतीत जैसे नयका के संमुख फिल्म की रील जैसे गुजर रहा था। विगत जीवन जैसे मूर्तिमान हो उठा था।

सातवीं में पढ़ती उमा अपने माता-पिता के साथ अपनी नानी के घर छोटे मामा की शादी में सम्मिलित होने गई थी। उसे भान भी नहीं था कि क्या होने वाला है। उसकी किस्मत उनके जीवन में अपने नये अध्याय लिखने जा रही है यह उसे कैसे  मालूम हो सकता था।

वहीं सत्रह साल के कमलकिशोर के साथ बड़ी मौसी की ननद आई हुई थी। शादी में छुनछुन करती घूमती, सबके हाथों की करछुल बनी छोटे-छोटे काम करती, इधर-उधर डोलती उमा के रूप पर उनका मन डोल जाता है।

छरहरी काया… गंदुमी रंग…बड़ी-बड़ी मीन जैसी आंख…  सुबुक से चेहरे का लावण्य…सबसे ज्यादा उन्हें इस लड़की के चेहरे पर छाई दैदीप्यमान आभा ने मोह लिया। हंसती-खेलती उमा की गर्वीली चाल ने कब उनका मन हर लिया पता भी नहीं चला।

तीन दिन में लड़की को देख उन्हें भरोसा हो गया कि इस लड़की के हाथ उनका घर, उनका बेटा सदैव सुरक्षित रहेगा।

मन ने सर्वांग रुप से चाह लिया कि उनकी बहु ऐसी ही होनी चाहिए। शादी समाप्त होते ही उन्होंने कमलकिशोर के लिए उमा के ब्याह की बात छेड़ दी। उमा के पिता तो धन्य ही हो गये। बैठे-बिठाए पचास बिगहा जोत के होने वाले मालिक के साथ अपनी बिटिया का ब्याह…जाना-माना घर…रिश्तेदारी में ही रिश्ता… न करने का कोई सवाल ही नहीं था। उनकी बिटिया तो राजयोग लिखाकर लाई है।। वे आश्चर्यचकित थे। बड़ी भागवान है बिटिया।

एक घंटे की बातचीत में ही तय हो गया कि  नौ महीने बाद उमा और कमलकिशोर का ब्याह तय रहा। तब कमलकिशोर दसवीं में पढ़ रहे थे… उमा सातवीं में। कौन सा नौकरी करना था। सम्हालना तो घर की खेती-बाड़ी ही थी।

गांवों में ऐसे ही ब्याह होते थे लेकिन उमा के  होनी वाली ससुराल की संपन्नता ने कईयों के कलेजे सुलगा दिए थे।

खैर…परीक्षा के बाद तय तिथि पर बड़े धूमधाम से दोनों का ब्याह संपन्न हुआ। एक महीने तक सारे गांव का निमंत्रण रखा था उमा की सास ने। उनके ले-देकर एक ही संतान थी…कमलकिशोर।

जाने फिर कब धूमधाम का मौका आये।

जी खोलकर पैसे लुटाए उमा की सास ने इकलौते बेटे के ब्याह पर।

चढ़ाव तो ऐसा चढ़वाया कि दुनिया दंग रह गई।  गहनों के थान-पर थान…करीब किलो भर सोने के गहनों से अपनी इकलौती बहू का सर्वांग पीला कर दिया। पहली बार गांव के लोगों ने सोने की पायल देखी। ऐसी बड़ भागों वाली थी उमा।

सास ने ही उमा को नया नाम दिया था-नयका…जो सदैव नयी रहें…कभी पुरानी न पड़े। अब तो किसी को उमा याद भी नहीं… नयका सदैव के लिए नयका ही हो गईं।

ब्याह के बाद विदा होकर आई नयका पहली बार करीब दस दिन ही रहीं ससुराल में।

दस दिन तो फुर्रू से उड़ गये रीती-रिवाज निपटाने में। कभी कंगना छुड़वाई, कभी नई बहू की मुंह-दिखाई,  कभी बहू के हाथों के रसोई बनाने पर बहु भोज।

सास साथ सुलातीं, साथ उठातीं और नई-नई मसें भीगे किशोर बेटे को बालिका वधु के आगे-पीछे डोलते देख झिड़कतें रहतीं।

दस दिन बाद पिता शुभ मुहूर्त में पहली विदाई करा ले गये बेटी को। गौने की तिथि ठहरी साल भर बाद की।

आज पुराने दिनों को याद करते नयका के आंचल का छोर भीगा जा रहा था।

तब वह दुनिया के प्रपंच कहाँ समझतीं थी। गांव में उनकी उमर में सबका ब्याह होता था, उनका भी हुआ। नये-नये गहनें-कपड़े पहन सब इतराती थी, वह भी खुश थीं। अब मायका छोड़ ससुराल में बसना पड़ेगा, यह भी वह समझतीं थीं। बेटी के ससुरैतिन होने के दुख में रोते माई-बाबूजी के साथ वह भी रोतीं थी। मायके छोड़ने का जिकर कलेजा चाक कर देता था।

लेकिन वह जिस अवस्था में थीं उसमें प्रेम नाम की चिडिय़ा से वह अंजान थीं। किशोर पति को वह जानी-समझीं ही कितना थीं कि उसके अलगाव-विलगाव से दुखी होतीं।

लेकिन वह समय भी निकट आने वाला था जब वह प्रेम में पड़ने वालीं थीं।

बिना प्रेम को परिभाषित किए वह प्रेम की इंतहा को पार करने वालीं थीं। शायद प्रेम का प्रस्फुटन आकर्षण से ही होता है और शनैः शनैः कब आप उसके साथ ही जीने-मरने लगते हो पता ही नहीं चलता।

बिल्ली की चाल चलने वाले पति के कदमों की आहट सिर्फ उन्हें ही सुनाई देती थी। तन-मन सौंप दिया हो जिस पति को।

जिसके लिए जीने मरने लगे है अगर उसे प्रेम नहीं कह सकते हैं तो नयका की समझ में नहीं आता कि फिर प्रेम किस चिडिय़ा का नाम है।

और आज वही प्रेम है जो हृदय को दग्ध कर रहा है। वह आज स्थिर दिख रहीं हैं पर क्या सचमुच स्थिर हैं…हैं नहीं… सिर्फ दिखतीं हैं।

हृदय का संताप कहीं जाता नहीं है। जाता होता या गया होता तो उस किशोर अवस्था में पति के हाथों की पहली छुअन, उनके बलिष्ठ बाहों का वह पहला तीव्र बंधन, वह पहले चुंबन की हरारत, वह अहसास तो खो जाना था लेकिन वह तो आज भी उसी तरह से तन-मन को झनझना रहा है। सिहरा रहा है।

आज भी जब वह पल याद आ जाता है तो पता लगता है कि वह झनझनाहट, वह सिहरन, वह छूअन, वैसे के वैसे ही ताजी की ताजी है।

वही पहले छुअन का पहला अहसास, उसी तीव्रता से तन-मन को आज भी सिहरा देता है। वह पहले छुअन का पहला अहसास जैसे तन में, मन में उस दिन की तरह ही कुंडली मारे बैठा हुआ है, जरा भी कमजोर नहीं पड़ा है।

नयका को लग रहा था कि वह पति की उन्हीं बांहो के घेरे में हैं। वही अहसास, वही गरमाई, वही उनकी सांसों की महक जैसे उनकी सांसों को अभी भी महका रही हो।

उस अहसास को वह मन के घेरे में एक बार पुनः-पुनः फिर-फिर जी रहीं थीं और उसे जीते हुए सोचते रहतीं थीं कि अगर यही प्रेम है तो क्या यह सिर्फ उनमें ही जीवित है।

यही अहसास क्या उनके पति में मर चुका है। शायद,  यदि जीवित होता तो फिर वह कैसे किसी अन्य स्त्री को छू सकते थे।

आखिर वह कैसे उन्हीं हाथों से चंदा को छू सके। क्या प्रेम सिर्फ स्त्रियां ही करतीं हैं।

क्या समर्पण सिर्फ स्त्रियां ही करतीं हैं।

शायद पुरुषों में समर्पण का अभाव होता है तभी तो पुरुषों में वह प्रेम किसी भी अन्य स्त्री के लिए भी जाग जाता है।

स्त्री जिस क्षण अपना सर्वस्व किसी को मानने लगतीं हैं फिर उसी की होकर ही रह जाती हैं।

पुरूष इस गहराई से किसी को नहीं चाह सकता है तभी तो किसी नयका के रहते कोई चंदा उसके जीवन में प्रवेश पा जाती है।

आखिर क्यों प्रवेश पा जाती है…??

किस चाह का भटकाव है यह…??

क्रमशः….

 

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साधना मिश्रा समिश्रा

स्वरचित, सर्वाधिकार सुरक्षित

5 thoughts on “हमारी नयका : एक अव्यक्त प्रेम कहानी(भाग-2) – साधना मिश्रा समिश्रा : hindi stories with moral”

  1. bhut sunder lagi ye rachna mam ek aurat apna sab kuch dene k bad aadmiyon k liye khilona hi hoti h jab tak man kiya sath rakha nahi to dusra le aaya

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