हमारी नयका : एक अव्यक्त प्रेम कहानी(भाग-4) – साधना मिश्रा समिश्रा : hindi stories with moral

hindi stories with moral : भंवरजाल…

आज यह कैसा भाव जाग रहा है मन में। क्या यही प्रेम है जो न जीने दे रही है न मरने दे रही है।

उफ…कैसा भवंर जाल है। जितना भी ऊबरने का प्रयत्न करो और गहरे धंसते जाते हो। अब तो अंतिम परिणिति मर कर ही मिलेगी…

नयका की आंख भारी हो रही थी। नींद उन्हें अपने कब्जे में लेती जा रही थी। अब सो जाना चाहिए। यह सोच नयका ने चादर ओढ़ लिया।

जाने कब नयका तेइस साल पहले की दुनिया में जा पहुंची। वह देख रही हैं कि उनके घर में अफरातफरी का माहौल बना हुआ है।

एक तरफ हलवाई लगे हुए है। बड़े-बड़े भट्टे जल रहें हैं।

बड़े-बड़े-हथेली भर के बताशे, बूंदी के लड्डू और खाजा बन रहे हैं पाहुर के लिए।

क्योंकि तीन दिन बाद ही तो उनके गौने का सुदिन है। मां सास की पेटी बड़े चाव से सजा रहीं थीं।  उनकी पेटी भी नये-नये साड़ियों से भरी पड़ी है। शगुन के गीत गाए जा रहे हैं। स्त्रियों का हुजूम आंगन में हंसी-ठिठोली कर रहा है।

तरह-तरह की रस्मों को निभाने की तैयारी हो रही है और उमा इस सबके बीच भी निर्विकार है क्योंकि यही तो उसका मूल स्वभाव है।

मां साल भर से गृहस्थी के गुर सिखा रहीं थीं और बार-बार यही कहते रहीं थीं कि बिटिया… वहाँ सब कुशलता से संभाल लेना। सास को हमेशा प्रसन्न रखना। मां थीं वह, सास को प्रसन्न रखने के गुर में तो सिद्धहस्त कर दी थीं लेकिन पति को कैसे प्रसन्न रखना है, यह बताने में चूक गई थीं। शायद यही चूक उमा को भारी पड़ गई और कमलकिशोर के घर में चंदा ने अपनी जगह बना ली।

रेल से दो घंटे की दूरी पर ससुराल थी।

नियत समय पर कमलकिशोर पट्टीदारों के साथ गौना कराने पहुंच गए। क्योंकि पिता तो दिवंगत थे। सुदर्शन किशोर, धनी दमाद को देख गांव वालों की हाय निकल गई। शायद तभी से इस जोड़ी को लोंगो की नजर लग गई थी।

उमा उस किशोरावस्था में भी जितनी धीर-गंभीर थी। कमलकिशोर उतने ही बड़े खिलंदड़े स्वभाव के थे। उमा की सास ने संभवतः भांप लिया था कि उनके खिलंदड़े बेटे पर धीर-गंभीर स्वभाव की उमा ही राज कर सकती है। इसीलिये उन्होंने बहू के रूप में उमा को चुना था।

खैर…सब रीति-रिवाजों के बाद विदाई हो गई। स्टेशन पर ट्रेन में उमा को चढ़ाते समय कमल किशोर ने उमा के नाजुक हाथों को सबकी नजर बचाते हुए जोर से दबा दिया। पहली बार  पति के हाथों का वह स्पर्श, उमा की हथेली पसीने से भीग गई। माथा पसीने से भीग गया। आज भी वह पल याद करते भीग-भीग जातीं हैं।  वह पहला स्पर्श था पति का। सिहर उठतीं हैं वह आज भी याद कर, हथेली आज भी गर्म हो जाती है।

इतने पर ही बस नहीं था। खिलंदड़ा किशोर पति तो कुछ और सोचे बैठा था…

क्या…

दरअसल मायके से ससुराल के रेल के सफर में एक बोगदा पड़ता है। उस पुराने जमाने में सुविधाएं उतनी नहीं थी। दो मिनट का वह बोगदा पार करते समय ट्रेन में गहन अंधेरा छा जाता था। हाथ को हाथ नहीं सूझता था। उस दो मिनट के अंधेरे के सफर में नई-नवेली दुल्हिन उमा को कमलकिशोर ने बेखौफ अपनी बांहों में पूरी ताकत के साथ भींच लिया और उमा के अधरों पर वह पहला प्रगाढ़ चुंबन और तत्काल छोड़ भी दिया।

उफ…पति की बलिष्ठ भुजाओं का वह सुदृढ़ अंकपाश… वह प्रथम प्रगाढ़ चुंबन… छुअन का वह पहला अहसास… उमा के सारे शरीर में झनझनाहट व्याप गई। सांसें अवरुद्ध हो गईं। दिल की गति धाड़-धाड़ धौकनीं की तरह चलने लगी और यह सब करके पति तो एकदम मासूम बन कर बैठ गया।

उमा के लिए यह उतना सहज नहीं था। उसने अपनी आंखें जोर से मींच लीं। उनकी हिम्मत भी नहीं पड़ी कि वह पति को देख भी सकतीं। वह थरथराहट आज भी उसी सुरुर में कहीं जीवंत है। वह पति का पहला स्पर्श उनकी यादों की थाती बन चुका है। इसे वह किसी के साथ बांट नहीं सकतीं। उस पहले स्पर्श की वही उष्मा आज भी शरीर में उसी ताकत से रग-रग में सिहर-सिहर उठती है। तेइस साल बीत चुके हैं लेकिन लगता है मानों आज की ही बात हो।

नयका की आंख झटके से खुल गई और वह उसी भांति नई-नवेली की तरह लजा उठीं।

यह क्या….आज भी हृदय उसी तरह तेजी से धड़क रहा था जैसे धौंकनी चल रही है।

तकिया पूरी तरह आंसुओं से भीगा हुआ है। थोड़ी देर वह समझ भी नहीं पाईं कि यह सपना है या हकीकत। क्या वह उसी समय को फिर से जी रहीं थीं। शायद उस समय को पुनः जीना, रह-रहकर…फिर-फिर जीना, यही वह भंवरजाल है जिसने उन्हें अपने वश में कर रखा है।

आज कहीं दस सालों बाद रघु के सवाल का जवाब वह तलाश पाईं कि इतना सब होने के बाद भी वह क्यों पति को घर से बेदखल नहीं करना चाहतीं हैं। क्यों उनके खाने का इंतजार करती है। क्यों उनको कष्ट में नहीं देख सकतीं हैं। क्या प्रेम इसी को कहते हैं।

शायद…यही प्रेम की परिभाषा हो कि जिससे आप प्रेम करते हो उसके द्वारा दी गई पीड़ा भले सर्वाधिक भयावह हो, आप कितना भी चाहो, उससे उतनी ही पराकाष्ठा से नफरत नहीं कर सकते। अच्छे दिनों की याद, वह करने ही नहीं देती है। आप कितना भी चाहो, नफरत पर प्रेम सदैव भारी पड़ता है।

आज उन्हें दुख हो रहा है कि शायद वह पति को कभी समझा नहीं पाईं कि वह भी उनसे बेहद प्रेम करतीं थीं। यह तो उन्होंने कभी स्वयं से भी कहा नहीं था और संभवतः बिना उनके कहे पति ने समझा भी नहीं था।

क्या यही उनकी चूक थी, भूल थी। क्या पति को उनके प्रेम की थाह नहीं थी। आखिर उनमें ऐसी क्या कमी थी कि पति किसी दूसरे स्त्री के अंकपाश में बंधने को इस कदर आतुर हो उठा कि उनकी तो छोड़ो, अपने बच्चों के प्रेम से भी विमुख हो उठा।

आज नयका ने पूरी शिद्दत से समझा कि प्रेम की जड़ें सबसे गहरी होती हैं।

वह उखड़ नहीं सकती, उसका समूल नाश नहीं होता है। कितना भी जतन कर लो, चेतन में कितनी भी बेरुखी दिखा लो। अवचेतन में वह प्रेम पुष्पित-पल्लवित ही रहता है। शायद तभी तो कहते हैं कि सबसे कठिन प्रेम की डगर है।

आज नयका को अपने सास की सारी चेष्टाएँ याद आ रहीं थीं कि कैसे वह उन्हें निरंतर सीख देती रहतीं थी कि थोड़ा नाज-नखरा भी सीखी रहो बहू…पत्नी तो वही सफल रहती है जिसके मोह में बरबस पुरूष शाम को उसी तरह खूंटे से बंधने के लिये घर की तरफ भागा आये जैसे गोधूलि की बेला में गायें।

आज नयका को मालूम होता है कि माई की उस सीख को वह अपने आंचल की गांठ में बांध नहीं पाईं कि उनके जाने के बाद पति के स्वभाव में आए बदलाव को वह भांप नहीं पाईं।

कहीं माई के मन में अपने खिलंदड़े बेटे को लेकर कोई संदेह था क्या। जब तक वे जीईं तब तक लड़के पर अपना अंकुश बनाकर रखीं। उनकी निगाह कमलकिशोर पर हमेशा रहती थी, कहाँ गया था…क्यों गया था। समय से घर लौटा कि नहीं। माई का गऊ बच्चा… हमेशा माई का कहना मानने वाला। माई क्या गई, लड़के के तो पंख लग गये और वह किसी और फूल का भौंर बन उड़ गया।

हाय माई…तुम मुझे खुलकर सब बता क्यों न गईं। शायद वह यह सब जानती होती तो विश्वास टूटने का इतना तीव्र झटका तो न लगता। आज तो लगता है कि विश्वास के खेल में मात्र मैं ही ठगी गई।

मैं नयका…कभी उनसे मन की कोई बात क्यों कही ही नहीं। क्यों नहीं सोचा कि विश्वास का यह खेल कभी दुतरफा नहीं होता है।

वह ठग उनकी दुनिया लूटता रहा और वह विश्वास की डोरी थाम आंख मूंदे बैठे रहीं।

आखिर चंदा में उसके पति ने ऐसा क्या देखा कि अपनी बनी बनाई गृहस्थी में आग लगा बैठा…

जिसका फल आज दोनों भुगत रहें हैं। वही नहीं झुलस रहीं हैं, कमलकिशोर भी इस आग से बचे कहाँ हैं…

क्रमशः …

साधना मिश्ना समिश्रा

स्वरचित, सुरक्षित

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साधना मिश्रा समिश्रा

स्वरचित, सर्वाधिकार सुरक्षित

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