घर से बेघर – विजय कुमारी मौर्य

जंगल के किनारे एक दरख्त…. के नीचे बैठे बुजुर्ग अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर अपने बच्चों के लिए दुआ मांग रहे थे, “हे ऊपर वाले माफ कर देना मेरे बच्चों को, शायद उनकी भी कोई मजबूरी होगी मुझे घर से निकालने की, या मेरी कोई कमजोरी। आज मेरी पत्नी जिन्दा होती तो शायद कोई रास्ता जरूर निकल आता। पता नहीं क्यों नारियों में इतनी शक्ति देता है ऊपर वाला कि वे सारी समस्याएं हल कर लेती हैं? आँखों में आंसू लिए यही सोच रहा था। इतने में दरख्त पर बैठे परिन्दे ने उनके हाथ पर कुछ कुतरे हुए गूलर के फल डाल दिये।

बुजुर्ग ने अपने हाथ नीचे करके देखा, तो मुस्कराकर बोले “हे परवरदिगार तूने तो खाने के लिए परिन्दों से फल भेज दिये,… अब वे जो दुआ अपने बच्चों को देने जा रहे थे उस परिन्दे को  देने लगे। मेरी दुआ कबूल हो इस परिन्दे को तू अगले जन्म में इन्सान बना दे।

फिर कुछ देर बाद सोचते हुए बोले,…. अरे! ये मैंने क्या किया? इन्सान ने तो मुझे घर से बेघर किया, कम से कम इस परिन्दे ने खाने को तो दिया।

धीरे-धीरे शाम होने लगी थी,रामलाल आँख बन्द किये बैठा था। इतने में कुछ खरखराने की आवाज पर उसने आंँख खोली तो पास में एक चरवाहा कह रहा था “बाबा” अब साँझ हो गयी है घर चले जाओ वर्ना यहांँ जंगली जानवर तुम पर हमला कर देंगे।‘बेटा’ कहांँ जायेंगे, मेरा तो कोई इस दुनियाँ में है ही नहीं,निवाले के लिए घर से बेघर हो गया,यदि इस शरीर का कोई जानवर निवाला बना लेता है तो इससे बेहतर क्या हो सकता है?  “तुम कहांँ के रहने वाले हो चरवाहा बोला, बेटा! अब तो बस ईश्वर के घर ही जाना है। अच्छा, चलो बाबा,….हम अपने घर ले चलते हैं यहीं पास में मेरा टूटा-फूटा घर है, “नहीं तुम जाओ हम अभी चले जायेंगे रामलाल बोला।

रामलाल को भूख लग रही थी उसे याद आया तो अंगोछे में रखे गूलर निकालकर खाने लगा। अंधेरा गहराने लगा था अभी वह उठने ही जा रहा था, कि एक बूढ़ी औरत सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लिए पास आ गयी और बोली, अरे! तुम्हारे घर वालों को फिक्र हो रही होगी तुम यहांँ बैठे हो, चलो उठो मैं सहारा देती हूंँ।

दोनों चलने लगे करीब आठ-दस फर्लाँग बाद वो बूढ़ी औरत रुककर बोली,…. कौन से गांँव जाना है तुम्हें? “पता नहीं,बुजुर्ग बोला।” अच्छा! रात ज्यादा हो गयी है आज मेरे यहांँ ही गुजर-बसर कर लो, कल परधान के आदमियों से कहकर तुम्हारे घर भिजवा देंगे, यह कहकर उस बूढ़ी औरत ने कोठरी के बाहर बने दालान में रामलाल के लिए चारपाई बिछा दी।

सुबह.. उस बूढ़ी ने, चूल्हा जलाकर कुछ पकाया और रामलाल के आगे धरकर बोली, लो खा लो भूखे होगे, मगर तुम तो हिन्दू लगते हो! मेरे हाथों का पकाया  न खाओगे। मैं अभी परधान के घर जाकर कुछ भिजवाती हूंँ। “यह सुनकर रामलाल जोर-जोर से रोकर कहने लगा बहन, जहांँ प्रेम होता है वहांँ हिन्दू – मुसलमान नहीं होता, सिर्फ इन्सान होता है। इस बूढ़े लाचार को और क्या चाहिए? “या अल्ला बहुत नेक इन्सान मालुम पड़ते हो, घर कहांँ है तुम्हारा? “बहन,अब तो जो रोटी दे दे वही घर है। तो फिर तुम्हें एतराज न हो तो यहीं मेरे घर रुक जाओ,मेरा भी कोई नहीं है इस दुनियाँ में हम एक दूसरे का सहारा बनकर जी लेगें।

मौलिक एवं स्वरचित

        विजय कुमारी मौर्य”विजय”लखनऊ

 

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