फैसला हो चुका है – गीता वाधवानी : Moral stories in hindi

आधी रात का समय था। 3:30 बज रहे थे या फिर यूं कहिए कि भोर होने को थी। धीमी गति से जा रही पुलिस जीप, जिसमें तीन सिपाही और एक इंस्पेक्टर बैठे थे, जैसे ही आगे बढ़ी, एक आवाज आई”छपाक”। 

गश्त लगा रही पुलिस तुरंत पीछे की तरफ आई। नदी के किनारे बनी रेलिंग पर चढ़कर कोई व्यक्ति नीचे पानी में कूदा था। 

दो सिपाही तुरंत जीप से उतरकर पानी में कूद गए। एक इंस्पेक्टर और तीसरा सिपाही जीप लेकर आगे निकल गए ताकि नदी के किनारे पर पहुंच सके, जहां उसे व्यक्ति को पानी से निकल जाएगा। उन्होंने एंबुलेंस को भी फोन कर दिया था। पानी में कूदने वाले सिपाहियों ने अपनी जान पर खेल कर उस व्यक्ति को बचा लिया था। वे लोग उसे तुरंत अस्पताल ले गए। 

उन्होंने देखा कि लगभग एक 60-65 वर्षीय बुजुर्ग है। चारों में से जो एक व्यक्ति इंस्पेक्टर था,उन्होंने उसे बुजुर्ग को पहचानते हुए कहा-“आप तो धर्मपाल अंकल है ना?” 

वे बुजुर्ग व्यक्ति चौंक गए और बोले-“तुम मुझे कैसे पहचानते हो बेटा?” 

इंस्पेक्टर-“अंकल, मैं हूं नवीन, आपके बड़े बेटे कपिल के साथ पढ़ता था और आपके यहां खेलने भी आता था। पर आपका ऐसा हाल क्यों? आपने ऐसा गलत कदम क्यों उठाया?” 

धर्मपाल जी कुछ नहीं बोले। इंस्पेक्टर ने आगे कहा-“अंकल मैं तो दूसरे शहर में था।पिछले महीने ही यहां भोपाल आया हूं। पापा से मैंने सुना था कि आपके दोनों बेटे कपिल और ललित बहुत ही लायक है। उन्होंने आपका कपड़े का व्यापार भी अच्छी तरह संभाल लिया है और आपकी बेटी सोनम की शादी भी अच्छे घर में हो गई है। हां लेकिन, आंटी जी के बारे में सुनकर बहुत दुख हुआ। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।” 

धर्मपाल जी चुपचाप सुनते रहे और फिर अचानक फूट फूट कर रो पड़े। बेटा, बड़ी लंबी कहानी है तुम्हें क्या-क्या बताऊं। तुम्हारी आंटी जी तो अचानक मुझे छोड़कर चली गई। कुछ दिन मुझे बहुत अकेलापन महसूस हुआ लेकिन उसके बाद मेरे दोनों बेटों, बहुओं और पोते पोतियो ने कभी मुझे अकेलापन महसूस नहीं होने दिया। सभी मेरा बहुत ध्यान रखते थे। मुझे लगता था कि मैं बहुत खुशकिस्मत इंसान हूं।

लोग अपने बच्चों की कितनी कमियां निकालते हैं, गालियां देते हैं बुराइयां करते हैं। ऐसे माहौल में मेरे बच्चे तो करोड़ों में एक है, मेरा कितना आदर सम्मान करते हैं यही मैं हर पल सोचता था। बहुएं भी पापा जी- पापा जी कहते थकती नहीं थी। मेरे लाख मना करने के बाद भी उन लोगों ने मेरे कमरे में से कूलर हटाकर, ए सी लगवा दिया और एक टीवी भी। हालांकि मैंने उनको कहा कि मैं ए सी की ठंडक बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा, तो बोले थोड़ी देर चला कर फिर बंद कर दीजिएगा। ऐसे ही मेरे कपड़ों का, खाने पीने और दवाइयां का, मतलब की हर चीज का बहुत ध्यान रखते थे। मैं बिल्कुल निश्चिंत था। अब मैंने सोचा कि क्यों ना सब कुछ इनके हवाले करके मैं अब चैन की बंसी बजाऊं।

तब मैंने कागजात बनवाकर ऊपर वाला फ्लोर छोटे बेटे के नाम और ग्राउंड फ्लोर बड़े बेटे के नाम कर दिया और चैन की जिंदगी बसर करने लगा। थोड़े दिनों बाद सोनम को इस बंटवारे का पता लगा तो वह मुझ पर गुस्सा होती हुई बातें बनाने लगी। मैं उसकी लालच को समझ ना सका और एक पिता से बेटी की ज़िद और हक समझ कर मुस्कुराते हुए उसे उसकी मां के सारे गहने सौंप दिए। वह खुश होकर ससुराल चली गई। लेकिन मेरी चैन की जिंदगी अब खत्म होने वाली थी,यह मुझे पता नहीं था। 

कुछ महीनो बाद बेटों और बहुओं के व्यवहार में अंतर आने लगा। एक बार मेरे पेट में बहुत तेज दर्द हुआ। मैं बड़ी बहू शोभा से खिचड़ी बनाने को कहा और दूसरे दिन दलिया। बस उसने नाक भौं सिकोड़ना शुरू कर दिया और भुनभुनाते हुए कहने लगी-क्या मैंने ही आपकी सेवा करने का ठेका ले रखा है, आप छोटी बहू स्वाति से कुछ नहीं कहते। फिर मैं बात को टालते हुए छोटी बहू से दाल चावल बनाने को कहा। 2 दिन के बाद वह भी मन चुराने लगी। ऐसी बहुत सी छोटी-मोटी घटनाएं हुई लेकिन मैंने कोई भी बात दिल से नहीं लगाई। 

1 दिन मेरे पोते पोतियां दोपहर के समय भागते हुए आए और कहने लगे दादू दादू, आइसक्रीम वाला आया है। आइसक्रीम खिला दो ना प्लीज। मैंने कहा ठीक है रूको, कमरे में मेरा कुर्ता टंगा हुआ है वहां से मैं पैसे लेकर आता हूं। मेरे पोते ने कहा-“दादू आप यहीं रुको, मैं लेकर आता हूं और वह बच्चा मेरे कुर्ते की बजाय अपनी मां के पर्स में से पैसे ले आया और उसने जब मुझे पैसे दिए तब उसकी मां ने यानी कि मेरी बड़ी बहू शोभा ने देख लिया। शाम को बेटों के आने पर उसने बवाल मचा दिया कि मैं छोटे बच्चों को चोरी करना सीख रहा हूं और अपने लिए पैसे ले रहा हूं। पोते ने बहुत कहा-“पापा मम्मी प्लीज मेरी बात सुनो, मैंने पैसे आइसक्रीम के लिए निकाले थे क्योंकि मुझे दादू का कुर्ता कहीं नहीं मिल रहा था इसीलिए मैंने मम्मी के पर्स में से पैसे निकाले और वो भी अपनी मर्जी से, दादु ने मुझे कुछ नहीं कहा था।” 

लेकिन बच्चे को डांट डपटकर चुप करवा दिया और मेरा बहुत अपमान किया। यह अपमान मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने अपना जीवन समाप्त करने के लिए नदी में छलांग लगा दी। और नवीन बेटा तुमने मुझे बचा लिया।” 

नवीन-“अंकल, आपने अपने जीवन में इतने उदाहरण देखते हुए भी सब कुछ उनको देने का एक गलत फैसला ले लिया। खैर कोई बात नहीं। मैं अच्छी तरह उनकी खोज खबर लूंगा और किसी वकील से आपको मिलवाऊंगा।” 

धर्मपाल-“बेटा, मैंने खुद अपने हाथ कटवा लिए, अब वकील क्या करेगा?” 

नवीन-“नहीं अंकल, कानून के हिसाब से कोई ना कोई रास्ता जरूर निकलेगा। अंकल आप दो-तीन दिन तक अपने घर न जाए बल्कि आप पापा के साथ हमारे घर रुकिए। पापा को भी अच्छा लगेगा। मैं किसी दिन जाकर आपके बेटों से पता करके आता हूं कि वे लोग आपके बारे में क्या कहते हैं?” 

नवीन दोस्त के रूप में धर्मपाल के बेटों से मिलने गया और धर्मपाल अंकल के बारे में पूछा। तब उन्होंने कहा -” पापा, अपने दोस्तों के साथ हरिद्वार घूमने गए हैं।” 

नवीन  एक वकील को घर लेकर आता है और धर्मपाल जी से मिलवाता है। वकील साहब धर्मपाल जी से कहते हैं -“एक रास्ता यह है कि आप ट्राइब्यूनल में अर्जी देकर मासिक गुजारा भत्ता अपने बच्चों से ले सकते हैं और दूसरा रास्ता यह है कि बच्चों द्वारा बुजुर्गों की देखभाल न किए जाने पर संपत्ति का ट्रांसफर रदद भी हो सकता है यानि की संपत्ति फिर से आपका नाम हो सकती है। इसके बाद अगर आप चाहे तो उन्हें अपनी संपत्ति से बेदखल भी कर सकते हैं।” 

धर्मपाल जी को गुजारा भत्ता मांगना बिलकुल गवारा न था। इसीलिए दूसरा रास्ता अपनाया गया और कुछ समय बाद धर्मपाल जी को अपने दोनों फ्लोर वापस मिल गए। दोनों बेटों और बहुओं की हालत देखने लायक थी। उन्होंने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा-“आप लोग यहां से जा सकते हैं। मैं एक फ्लोर पर रहूंगा और दूसरा किराए पर दे दूंगा। मेरा गुजारा बढ़िया तरीके से हो जाएगा।” 

कपिल और ललित-“पर पिताजी, हम कहां जाएंगे? बाहर तो मकान का किराया भी बहुत ज्यादा है, हमारा गुजारा कैसे होगा?” 

धर्मपाल जी को जैसा वकील ने कहा था उन्होंने वैसा ही कहा-“मैं क्या जानूं?” 

दोनों बेटे और बहुएं-“हम माफी चाहते हैं आपसे, कुछ तो सोचिए।” 

धर्मपाल ने पूछा-“बाहर फ्लोर का किराया कितना है?” 

दोनों बेटे-“₹25000 मासिक” 

धर्मपाल-“ठीक है, तुम यहां किराएदार के रूप में रह सकते हो, मैं ₹5000 कम करता हूं।₹20000 महीना, मंजूर हो तो रह सकते हो। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकता। तुम दोनों छः  महीने का किराया एडवांस में मेरे बैंक खाते में जमा करवा दो।” 

दोनों बोले-“6 महीने का एडवांस, यानि की टोटल 2,40000। हम कहां से—–?” 

धर्मपाल जी ने कड़क आवाज में कहा-“बस बहुत हुआ,”फैसला हो चुका है”, मंजूर है तो ठीक,नहीं तो निकलो यहां से।” 

दोनों ने चुपचाप बात मान ली और फिर एक दिन सोनम अपने पिता से मिलने आई और बोली-“पापा जी, आपने बहुत अच्छा किया यह फैसला लेकर, दोनों भाई हैं ही इसी लायक, लालची कहीं के।” 

धर्मपाल-“सोनम बिटिया, तुम कुछ ना ही बोलो तो अच्छा है। जब मैंने परेशानी में एक दिन तुम्हें फोन किया था तब तुम्हारे पास फुर्सत नहीं थी। उसके बाद तुमने कौन सी मेरी खोज खबर ली। मैं घर से गायब था, यह भी तुम्हें पता नहीं था। जाओ, कल आना और सारे जेवर वापस लेती आना। सोनम चुपचाप वहां से खिसक गई। हालांकि धर्मपाल जी कोई भी जेवर सोनम से वापस नहीं लेना चाहते थे, पर उसे भी आईना दिखाना जरूरी था। 

स्वरचित अप्रकाशित  गीता वाधवानी दिल्ली

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