एक समर्पण ऐसा भी – पुष्पा जोशी : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi: ‘माँ मैं जरूरी काम से बाहर जा रहा हूँ, आठ दिन में वापस आ जाऊँगा।  माया देवी ने कहा- ‘कैसी बाते कर रहै हो कृष्णा, यहाँ तुम्हारे बाबूजी की ऐसी हालत है,क्या वह काम तुम्हारे बाबूजी से बढ़कर है?पंद्रह दिनों से अस्पताल में हैं, पता नहीं कब किस चीज की जरूरत पढ़ जाए।

और दो दिनों से तो वे बहुत ज्यादा परेशान है, ऐसे में तुम्हारा जाना मुझे ठीक नहीं लग रहा।’ माँ यहाँ बाबूजी की देखभाल के लिए अनिल भैया और सुनिल भैया हैं ना। और फिर आठ दिन में तो मैं आ ही जाऊँगा,माँ बाबूजी से बढ़कर तो मेरे लिए कुछ भी नहीं है,मगर वह काम भी बहुत जरूरी है।’ तुम्हें जाना हो तो जाओ पर मैं तुम्हें इजाजत नहीं  दूंगी।’

  ‘मुझे जाना पड़ेगा माँ।’  बिस्तर पर सोए हुए रामेश्वर जी ने कहा अगर जाना जरूरी है तो जाओ बेटा। कृष्णा ने रामेश्वर जी के दोनों पैर छूकर अपना शीष,  उनके चरणों पर रख दिया। नजरे उठाकर उनके चेहरे को देखा, उसकी आँखों की नमी को रामेश्वर बाबू ने महसूस किया। उठते नहीं बन रहा था,इशारे से उसे अपने पास बुलाया उसके सिर पर हाथ रखा, और धीरे से कहा -‘बेटा खुश रहो।’  कृष्णा ने मायादेवी के पॉंव छूए पर उन्होंने आशीर्वाद नहीं दिया। वह बोला भी कि  ‘माँ आशीर्वाद नहीं दोगी पर उन्होंने मुंह फैर लिया।’ वह चला गया।
उसके जाने के बाद मायादेवी भनभना रही, मैं कहती थी ना कि अपने तो अपने होते है। उसे आपने कृष्णा नाम दिया, बेटे की तरह पाल पौसकर बड़ा किया और आज जब आपको उसकी जरूरत है, वह चला गया। रामेश्वर जी ने कहा – ‘मैं कृष्णा को जानता हूँ,उसे जरूर कोई बहुत जरूरी काम होगा।’ ‘ हॉं आप तो ऐसा ही कहेंगे। ‘ मायादेवी का क्रोध शांत नहीं हुआ था।अनिल बड़ा बेटा था। बोला ‘माँ आप शांत हो जाए,पापा की दवाई का समय हो गया है। दवाई लेकर उन्हें आराम करने दे।’ अनिल  और सुनिल जानते थे, कि पापा की एक‌ किडनी खराब हो चुकी है और दूसरी में भी इन्फेक्शन फैल रहा है, वे दोनों किडनी डोनर की तलाश कर रहै थे।यह बात मायादेवी को मालुम नहीं थी। रामेश्वर बाबू की हालत बिगड़ती जा रही थी।
रामेश्वर बाबू को कृष्णा की याद आ रही थी, उन्हें याद आया कि किस तरह उन्होंने उस नन्हीं सी जान को, सुबह-सुबह उनके घर के दरवाजे पर पड़ा हुआ,रोते हुए देखा था। कितनी तलाश की उसके माता पिता को ढूंढने की, पुलिस की सहायता भी ली पर जब उसके माता पिता नहीं मिले, तो उसे विधिवत गोद ले लिया। उसका गौरा रंग और घुंघराले बाल उसकी बड़ी – बड़ी ऑंखें देखकर रामेश्वर बाबू अपने सारे दु:ख दर्द  भूल जाते थे। बड़े प्यार से उसका नाम कृष्णा रखा था।

आज अपनी तकलीफ में उन्हें उसकी बहुत याद आ रही थी। मायादेवी उसे गोद लेने के पक्ष में नहीं थी। वे कहती ‘मेरे पहले ही दो लड़के हैं, इसे गोद लेने की क्या जरूरत है।’ रामेश्वर बाबू की इच्छा‌ को देखते हुए मायादेवी ने भी अनमने मन से स्वीकृति दी। रामेश्वर बाबू ने घर में सबसे कह दिया था कि ‘बच्चे को कभी इस बात का एहसास मत होने देना कि वह हमारा सगा बेटा नहीं है। अनिल और सुनिल की तरह ही वह भी इस घर का बच्चा है।’

धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया तीनों बच्चों को एक जैसी परवरिश मिल रही थी। पर सच कभी छुपता नहीं। कृष्णा उस समय दसवीं कक्षा में पढ़ता था।एक दिन वह स्कूल से घर आया तो उसके कानों मे उसके घर आए कुछ मेहमानों के शब्द सुनाई दिए, वह वहीं खड़ा होकर सुनने लगा। वे कह रहैं थे- ‘रामेश्वर जी आपकी और भाभी की जितनी तारीफ की जाए कम है। आपने एक अनाथ बच्चे को बिलकुल अपने बेटे की तरह पाला, आजकल जमाने में ऐसा कौन करता है।’

रामेश्वर बाबू ने कहा-‘कैसी ऐसी बातें न करें, कभी कृष्णा को मालुम हो गया तो वह सहन नहीं कर पाएगा। उसे मालुम न हो इसलिए हमने वह शहर छोड़कर इतनी दूर तबादला करवाया। यहाँ किसी को यह बात मालुम नहीं है। कृष्णा हमें जान से भी ज्यादा प्यारा है।’ उन मेहमानों ने क्षमा मांगी। कृष्णा को जब सच्चाई मालुम हुई तो उसकी दुनियाँ हिल गई।

जिन माता पिता के प्रति उसके मन में अधिकार का भाव था, पलभर में वह भाव उनके प्रति अपार श्रद्धा और आदर मे बदल गया। वह गुमसुम रहने लगा, उसकी चंचलता जैसे गायब हो गई थी। एक दिन रामेश्वर बाबू ने पूछा   ‘बेटा क्या बात है, क्या परेशानी है ?’ तो उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गए वह बोला ‘बाबुजी उस दिन वे मेहमान क्या कह रहै थे।

आप मेरे सिर पर हाथ रखकर कहो क्या मैं….।’ वह रो पढ़ा तब बाबूजी ने उसे अपनी बाहों में समेट लिया और कहा आगे से कभी ऐसा न सोचना न कहना, लोग कुछ भी कहें तू मेरा और माया का बेटा है।’ वे उसे अपनी बाहों में समेटे हुए घंटो रोते रहै और वह भी उनकी बाहों में सिमटा सुबकता रहा। उस दिन के बाद इस बारे में कोई चर्चा नहीं हुई। जीवन चलता रहा। अचानक रामेश्वर बाबू की तबियत खराब हो गई और वे पन्द्रह दिनों से अस्पताल में भर्ती थे।

वे कृष्णा को याद कर रहै थे, और सोच रहै थे कि आखिर कृष्णा को ऐसा कौनसा जरूरी काम आ गया कि वह मुझे ऐसी हालत में छोड़कर चला गया?’सोचते-सोचते उनकी ऑंख लग  गई।  दूसरे दिन सुबह उनकी तबियत ज्यादा बिगड़ गई। सब परेशान थे तभी डॉक्टर ने अनिल को बुलाकर कहा ‘बेटा! तुम्हारे पापा के लिए किडनी का डोनर मिल गया है, सब मेच‌ हो गया‌ है कल सुबह रामेश्वर जी का आपरेशन कर देंगे।’ अनिल की खुशी का ठिकाना नहीं था।

दोनों भाई ने मॉं से यही कहा कि पापा का एक छोटा सा आपरेशन है। रामेश्वर बाबू  का आपरेशन सफलता से हो गया। डॉक्टर उनके पक्के मित्र थे। सात दिनों के बाद अस्पताल से छुट्टी हो गई। सुबह घर आने के बाद उन्हें फिर कृष्णा की याद आई और बोले आठ दिन हो गए, कृष्णा अभी तक नहीं आया।

मायादेवी के चेहरे पर कुछ नाराजी के भाव थे, वे कुछ बोली नहीं। वे फिर बोले कृष्णा नहीं आया किसी मुसीबत में तो नहीं है। मायादेवी फिर भी कुछ नहीं बोली। शाम को डॉक्टर साहब घर पर तबियत पूछने आए और कहा ‘अब आप कोई चिन्ता न करें।समय पर खाना पीना और दवाई लेते रहैं।’मायादेवी ने डॉक्टर साहब को धन्यवाद दिया तो वे बोले ‘मैंने तो एक डॉक्टर होने का फर्ज निभाया।

धन्यवाद का असली हकदार तो वह बच्चा है जिसने अपनी किडनी डोनेट कर आपके माथे के सिंदूर को बचाया है।’  मायादेवी ने कहा- ‘कौन है वो बच्चा? एक वो बच्चा है और एक वो कृष्णा मुसीबत के समय हमें छोड़कर चला गया।’डॉक्टर साहब ने कहा -‘ कौन वह कृष्णा जिसे आपने अपने बेटे की तरह पाला था।’ डॉक्टर साहब की बात सुनकर सब आश्चर्य में पढ़‌ गए कि इन्हें यह बात कैसे मालुम हुई। रामेश्वर बाबू मायादेवी की ओर ऐसे देख रहैं थे मानो पूछ रहे हों कि तुमने तो नहीं बताया।सब मौन थे।

डॉक्टर  साहब ने कहा मुझे आप लोगों ने नहीं बताया न कृष्णा ने बताया।आपने तो पूर्ण समर्पण के साथ उसे अपना ब बेटा माना और उसे अच्छी परवरिश दी। मुझे तो यह बात मालूम ही नहीं होती अगर मैंने उसके अन्तिम पत्र को नहीं पढ़ा होता।’ ‘अन्तिम पत्र ? कैसा पत्र? कहाँ है? कैसा है मेरा कृष्णा?’ रामेश्वर बाबू एकदम अधीर‌ हो गए।डॉक्टर साहब ने कहा आप शांत हो जाइये ,आराम से लेटे रहिए, मैं बताता हूँ।आपके लिए किडनी डोनर की जरूरत थी, कोई मिल नहीं रहा था।

यह बात सिर्फ अनिल, सुनिल को मालुम थी। जब यह बात कृष्णा को पता चली, तो‌ वह मेरे पीछे‌पढ़ गया। मैंने उसे बहुत समझाया और कहा भी कि ‘बेटा इसमें तुम्हारी जान जा सकती है । ‘ मगर वह नहीं माना। इधर तुम्हारी हालत बहुत बिगड़ गई थी। मुझे कुछ नहीं सूझा, किस्मत से सारे मेच भी मिल गए थे। मुझे उम्मीद थी कि मैं कृष्णा को कुछ नहीं होने दूंगा।

आपरेशन अच्छा रहा। उसकी तबियत भी ठीक हो गई थी, फिर कल रात को अचानक उसके दिल की धड़कन बढ़ गई,हम सम्हालते उसके पहले ही वे बंद हो गई।अब वो इस दुनियाँ मे नहीं है। उसके सिरहाने रखा यह पत्र मुझे मिला।’ डॉक्टर साहब की बातें सुनकर सब सन्न रह गए। मायादेवी ने खत पढ़ा।
‘ मुझे जीवन देने वाले दैवतुल्य मेरे माता पिता के चरणों में नमन। अगर आपने मुझे सहारा नहीं दिया होता तो मैं पता नहीं कहाँ होता। बाबुजी आपकी ऐसी हालत देखी नहीं जाती, जीवन में पहली बार आपको बिना बताए कोई निर्णय लिया है। बाबूजी आपका आशीर्वाद मिला। माँ मुझसे नाराज है, उनका नाराज होना स्वाभाविक है।

उनके आशीर्वाद के बिना यह कदम उठाया है। जीवन रहा तो उनकी सारी शिकायत दूर कर दूॅंगा और जीवन भर आप दोनों की सेवा करूँगा। और अगर मर गया तो मेरी तरफ से यह छोटा सा समर्पण है बाबूजी, इसे स्वीकार करना मैं अपने परिवार को हमेशा खुश देखना चाहता हूँ। मैं हमेशा आपके साथ रहूँगा। ‘
आपका
कृष्णा
किसी के ऑंसू थम नहीं रहै थे। मायादेवी कह रही थी अगर मैंने आशीर्वाद दिया होता, तो मेरा कृष्णा मुझसे रूठ कर नहीं जाता। डॉक्टर साहब ने समझाया,आसपास के सभी लोग आ गए थे। कृष्णा के पार्थिव शरीर को घर लाकर उसका चालचलावाा करवाया। सारे विधि विधान से पूरे तैरह दिन का काम करवाया। रामेश्वर बाबू और उनके पूरे परिवार के लोगों के ऑंसू रूक नहीं रहै थे, वे कहानी कह रहै थे कृष्णा के समर्पण की।

प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

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