..दो स्त्रियाँ….दिव्या शर्मा

“देख मालती, उदय के जाने के बाद कोई तो होना चाहिए जो उसका बिजनेस संभाल ले!”

जेठानी ने मालती को समझाते हुए कहा।मालती की नजर दीवार पर टंगी बेटे की फोटू पर चली गयी।दर्द आँखों में आँसू बनकर बह गया।

“हुँ” गर्दन हिला कर बस इतना ही कह पाई।

“इस दुख को तो कम नहीं कर सकती लेकिन उदय के बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए प्रकाश को तुम्हें देती हूं।” जेठानी की बात सुनकर मालती तीस साल पीछे चली गयी।

पति का शरीर सफेद चादर से लिपटा आँगन में पड़ा था।वह बुत बनी घर में रोते बिलखते लोगों को देख रही थी।

मालती कभी अपनी कोख को देखती जिसमें उदय साँस ले रहा था और कभी पति के शरीर को जो निर्जीव बनकर उसके सामने आ गया।

“सिन्दूर पोछ दो इस अभागन का” एक तेज आवाज़ उसके कान में आई।

“तोड़ दे चूड़ी… अरी रो ले…..,अरे कोई इसके गले से मंगलसूत्र उतार दो।” रोती कलपती आवाज़ में कुछ आवाजें और दहाडने लगी।

मालती ने अपना मंगलसूत्र कसकर मुठ्ठी में भींच लिया।दूसरे हाथ से पल्लू अपने माथे पर ओढ़ सिमट कर बैठ गई।

“तेरे किसी काम का नहीं रे..ये शृंगार… वो तो चला गया।” फुफेरी सास ने विलाप करते हुए मालती के माथे की तरफ हाथ बढाया।

“कहाँ चला गया, कौन चला गया! ये कहीं नहीं गौए…मेरे साथ हैं… खबरदार जो मेरे सिन्दूर पर हाथ लगाया!”मालती ने चीखते हुए कहा।

“अरी संभालो इसे…,पति पहले ही चला गया कहीं अब कोख…।” एक आवाज और उसके कान से टक्कराई। मालती ने आँखें उठा कर देखा तो जेठानी नजर आई।

उन शब्दों को सुनकर मालती की आँखों में खून उतर आया लेकिन जुबान को भींच लिया।


“कहाँ खो गई मालती!उदय के सपने को हम पूरा करेंगे… तुम चिंता मत करो…प्रकाश सब कर लेगा।”

जेठानी की आवाज़ सुनकर मालती वर्तमान में लौट आई।वह चुपचाप उसके चेहरे को देखने लगी।

जेठानी बोलती जा रही थी लेकिन मालती के कान सुन्न हो गए थे।

उसकी नजर कोने में सफेद कपडों में लिपटी दक्षिता पर थी।

बेटे का क्षत विक्षत शरीर उसकी आँखों के सामने गुजरने लगा।

दक्षिता के शरीर से दूर होती उसके बेटे की निशानीयाँ ,मालती तड़प उठी।

“जिज्जी… आपने इतना सोचा उसके लिए शुक्रिया लेकिन अभी मुझे सोचने के लिए समय चाहिए।” मालती कठोरता से बोली।

दक्षिता अब भी खामोश थी और उदय की तस्वीर को निहार रही थी।

धीरे धीरे सब लोग वहाँ से चले गए और रह गई दो स्त्रियां।खामोशी घर में पसर गई।

दक्षिता ,मालती को देखकर दुखी होती और अपने गम को पीती रहती।

मालती तो जैसे गूंगी हो गई।

दोनों अपने अपने कमरे में उदय की तस्वीर के साथ सुबकती रहती।

रात के सन्नाटे में दक्षिता के कानों में मालती की आवाज़ सुनाई दी।वह उठकर मालती के कमरे की ओर चल दी।कुछ सुनकर ठिठक गई।मालती किसी से फोन पर बात कर रही थी,

“हाँ …,सोचती हूँ।रेस्तरां तो प्रकाश को नहीं दूंगी… चाहे मुझे बैठना पड़े।मैं जानती हूँ कुसुम जिज्जी के मन की।” मालती की बात सुनकर दक्षिता उल्टा लौट आई।और बिस्तर पर लेट गई।

उदिता को रह रह कर उदय की बात याद आने.लगी।


वह कितना खुश था अपने रेस्तरां को लेकर।शहर में जल्द ही अपनी पहचान बना चुका था उदय का रेस्तरां।दूसरी ब्रांच खोलने के लिए रातदिन भागदौड़ कर रहा था और जब सफलता नजदीक आई तब वह रात….,जीवन भर के लिए उसकी जिंदगी में अंधेरा कर गई।

वह उठकर उदय की तस्वीर के सामने खड़ी हो गई और बोली,

“तुम्हारे सपने को मैं पूरा करूंगी उदय।”

अगली सुबह दक्षिता के लिए एक उम्मीद लेकर आई।वह मालती के कमरे में गई।

“माँ,मुझे आपसे कुछ कहना है।”

“कहो दक्षिता।” मालती ने कहा।

“माँ…,उदय के जाने के बाद उसके सपने को पूरा करना चाहती हूँ।मैं आज से रेस्त्रां…।”दक्षिता अपनी बात को पूरा नहीं कर पाई।उसकी आँखों में अनचाहा पानी चला आया जिसने उसकी आवाज़ को अवरुद्ध कर दिया।

“हुम…।” मालती ने  उसकी सूनी माँग की तरफ हल्की नजर डाली और मुँह फेर लिया।दक्षिता का रंगहीन चेहरा उनके दिल को बींध रहा था।

“माँ…अगर आप कहोगे तो नहीं…, लेकिन वह रेस्त्रां उदय का सपना था।”

कमरें में एक सन्नाटा पसर गया।दक्षिता अपनी आँखों को अपने दुपट्टे के कोर से साफ करने लगी।

“तुम अगर उदय का रेस्त्रां संभालना चाहती हो तो मैं तुम्हारी इस इच्छा के साथ हूँ।”सन्नाटे को तोड़कर मालती ने कहा।

“शुक्रिया माँ…आप मेरे साथ हैं यह देखकर मन को तसल्ली हुई।” डबडबाई आँखों को समझा कर दक्षिता बोली।

“लेकिन मेरी एक शर्त है।” सास की बात सुन कमरे से बाहर निकलते दक्षिता के कदम ठिठक गए।वह वापस उनके पास आकर खड़ी हो गई।

मालती ने धीरे से उसे देखा और कहा,

“तुम अपने माथे पर बिन्दी लगाओगी बिल्कुल पहले की तरह।माँग में सिन्दूर भी भरोगी बिल्कुल पहले की तरह।”

“ये…ये क्या कह रही हो माँ! मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करूंगी… उदय के साथ मेरे यह रंग भी चले गए।” इतना कह दक्षिता फफक कर रो पड़ी।

मालती उसे रोते देखती रही।फिर उठकर उसके सिर पर हाथ फेरने लगी।

“तुम मानती हो उदय चला गया ! लेकिन मैं नहीं मानती।वह अब भी हमारे साथ है और हमेशा रहेगा।शरीर साथ नहीं तो क्या! मैं अब भी उदय की माँ हूँ और तुम उदय की पत्नी।”

“पर माँ…मैं विधवा… मैं कैसे?” गले से निकली आवाज़ सिसकियों में दब रही थी।

“हो तो उदय की ही न! जब तुम अब भी उदय की पत्नी बने रहना चाहती हो तो उन सभी चिन्हों को अपने से दूर न करो जो उदय ने तुम्हें दिए थे।मैं भी उन्हें देख जिन्दा रह लूंगी।”


“पर माँ…यह दुनिया… रिश्तेदार, समाज!” दक्षिता आश्चर्यचकित थी।

” एक महीने तक मैंने दुनिया की परवाह कर ली है लेकिन मेरी असली दुनिया तो मेरे बच्चों से है मुझे औरो कि परवाह नहीं लेकिन तेरे आस पास मैं यह सूनापन नहीं देख पाऊंगी…।”

“माँ…आप कितनी अच्छी हो… ।मैं आपकी बात जरूर मानूंगी।” अपनी आँखों को साफ करती दक्षिता मुस्कुरा उठी।

दक्षिता के सिर पर हाथ फेरती मालती  अपने मन की पीड़ा को दफनाने की कोशिश कर रही थी।

जवान बेटे की मौत और वैधव्य का जीवन झेलती बहू का दुख उन्हें तोड़ रहा था लेकिन उन्हें तो जीना है जब तक दक्षिता अपने को संभाल न ले।

“एक बात जरूर कहूंगी, अगर तुम्हारी जिन्दगी में कोई ऐसा आए जो उदय की जगह ले तब तुम उदय का पहनाया मंगलसूत्र हटा सकती हो लेकिन जब तक उदय की पत्नी हो तब तक इन्हें खुद से दूर न करना।” अपनी आँखों को साफ कर वह बोली।

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“माँ!!” दक्षिता की आँखों में फिर से आश्चर्य उतर आया।

“हैरान न हो, अपनी बेटी का कन्यादान उसकी मर्जी से ही करूंगी।” उसके गालों को थपथपा कर वह बोली।

“मैं आपको कहीं छोड़कर नहीं जाने वाली।” सास के गले लग दक्षिता ने कहा।

“ठीक है लेकिन अभी तो रेस्त्रां जाओ।”

“हाँ माँ।” इतना कहकर दक्षिता कमरे से बाहर निकल गई।

उदय के दिए रंगों को अपने तन पर लगा दक्षिता, सास के सामने खड़ी हो गई।

उसके चेहरे के नूर को देख मालती की आँखों भी मुस्कुरा दी।

एक डोर से बंधी दोनों अपने जीने की वजह को जिन्दा कर चुकी थी।

दिव्या शर्मा

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