दिल के रिश्ते -विभा गुप्ता Moral stories in hindi

 ” नीतू…अब तुम्हें इन लोगों की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी।मुझे दिल्ली में नौकरी मिल गई है… हम अगले महीने ही वहाँ शिफ़्ट हो जाएँगे..।” सिद्धार्थ ने धीरे-से अपनी पत्नी से कहा जो तह किये हुए कपड़ों को अलमारी में रख रही थी।सुनकर वह आश्चर्य-से बोली,” सच!…लेकिन फिर अम्मा जी को क्या कहेंगे..।”

    ” माँ को मैं समझा दूँगा..पर तुम अभी किसी को कुछ नहीं बताना।” कहकर सिद्धार्थ कमरे से बाहर निकल गया।

       तीन भाइयों में सबसे छोटा था सिद्धार्थ।उसके पिता की हार्डवेयर की दुकान थी जो काफ़ी चलती थी।वह जब सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था तभी उसके पिता का देहांत हो गया।उस समय बड़ा भाई सुशांत इंटर में था।उसने अपनी पढ़ाई छोड़कर पिता की दुकान संभाल ली।काम बढ़ने लगा तब मंझला भाई निशांत भी अपने बड़े भाई की मदद करने लगा।पैसा हाथ में आने लगा तो फिर निशांत ने भी काॅलेज़ को गुड बाय कह दिया।बेटों को पैर पर खड़ा देख उसकी माताजी ने उनका विवाह कर दिया।घर में दो बहुएँ आ गईं जो सिद्धार्थ को देवर कम अपना सेवक अधिक समझती थीं।

      सिद्धार्थ अपनी पढ़ाई करता रहा।बारहवीं के बाद वह इंजीनियरिंग करना चाहता था..वह कंप्टीशन की तैयारी भी कर रहा था।उसे आईआईटी कानपुर में एडमिशन मिला तो उसके भाई फ़ीस देने में आना-कानी करने लगे।उसकी भाभियाँ भी सिद्धार्थ के पढ़ाई के पक्ष में नहीं थी क्योंकि ज़्यादा पढ़ लेगा तो वह उनके हाथ से निकल जाएगा।तब उसकी माँ ने अपने गहने गिरवी रखकर उसे पढ़ने भेजा।बाकी फ़ीस के लिये उसकी माँ ने यह कहकर सुशांत से उधार लिया कि नौकरी मिलते ही सिद्धार्थ सूद समेत चुका देगा।

          सिद्धार्थ को इंजीनियरिंग की डिग्री तो मिल गई लेकिन नौकरी नहीं मिली थी।एक महीना बेरोज़गार रहने के बाद उसे एक कंपनी में ज़ाॅब तो मिली लेकिन सैलेरी कम थी।उसने सोचा, खाली बैठने से तो अच्छा ही है पर वह दूसरी जगहों पर कोशिश भी करता रहता था।अब उसकी माताजी शादी के लिये दबाव डालने लगी,वह टालता रहा।फिर एक दिन उसकी माताजी बीमार पड़ गईं और उसे अपना कसम देकर बोलीं,” मेरी आँखों के सामने ही तू बहू ले आ।तेरे पिता के दोस्त की बेटी है नीतू…पढ़ी-लिखी है।अब ना मत कहना।” इस तरह सिद्धार्थ के साथ नीतू का विवाह हो गया।

        सुलझे विचारों वाली नीतू जल्दी ही सिद्धार्थ के परिवार के साथ घुलमिल गई।उसकी दोनों जेठानियाँ उससे मीठा- मीठा बोलकर घर का सारा काम करवा लेती।यहाँ तक कि सिद्धार्थ के आ जाने पर भी वे नीतू को किचन के ही कामों में उलझाए रखती।उसकी सास ने बहुओं से एकाध बार कहा भी कि नीतू को भी तो आराम करने दिया करो।तब वे हँसते हुए अपने बच्चों के काम करने के बहाने बना देतीं।सिद्धार्थ ने सुशांत का कर्ज़ चुका दिया, माँ के गहने भी छुड़ा लिये और फिर उसने घर से जाने का फ़ैसला किया।भाग्य ने उसका साथ दिया और उसे दिल्ली में नई नौकरी मिल गई।

          महीने भर बाद सिद्धार्थ ने पहले अपनी माताजी को बताया और फिर अपने भाइयों को बताया कि अगले सप्ताह वह नीतू के साथ दिल्ली में शिफ़्ट हो रहा है।भाभियों का तो मुँह सूज गया लेकिन उसकी माताजी ने दोनों को खूब आशीर्वाद दिया।

         दिल्ली के ‘आशियाना सोसाइटी ‘ में सिद्धार्थ ने किराये पर एक फ़्लैट ले लिया।नीतू के लिये तो सब कुछ नया था, इसलिये उसने नीतू को समझाया कि किसी से ज़्यादा मेलजोल नहीं बढ़ाना।

       आशियाना सोसाइटी में अलग-अलग प्रांतों से आये परिवार रह रहें थें।कोई केरल से तो कोई पंजाब से।भाषा, पहनावा और खानपान अलग होने के बाद भी उनमें बहुत आत्मीयता थी।वे सभी एक-दूसरे की मदद करने के लिये हमेशा तैयार रहते थें।

       एक दिन तीन महिलाएँ नीतू के पास आईं और अपना परिचय देते हुए बोलीं कि कोई परेशानी हो तो हमें बताना।साथ ही, शाम की चाय पर उसे इंवाइट भी किया।वहाँ जाने पर नीतू ने देखा कि सभी एक-दूसरे से हँसकर बातें कर रहें हैं तो उसे बहुत अच्छा लगा।उसने सिद्धार्थ से कहा कि यहाँ तो पूरा भारत एक दिखाई देता है।सच कहूँ तो मुझे विभिन्नता में एकता का अनुभव हुआ।

    लेकिन कहते हैं ना कि दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँककर पीता है।सिद्धार्थ तो अपने सगे भाई-भाभियों से चोट खाया हुआ था…गैरों के प्यार पर कैसे विश्वास करता।इसलिए उसने नीतू की बात को अनसुना कर दिया।

        एक दिन सिद्धार्थ ऑफ़िस जाने के लिये पार्किंग से अपनी मोटरसाइकिल निकाल रहा था तभी उसे याद आया कि इसमें पेट्रोल तो है ही नहीं।वह नीतू से एक डिब्बा लेकर पेट्रोल पंप तक जाने लगा।सामने से मिस्टर रंगनाथन और मिस्टर चड्ढा आ रहें थें।उन्होंने पूछ लिया कि किधर जा रहे हो सिद्धार्थ? May I help you?”

  ” वो…बाइक में…पे..ट्रो…।” सिद्धार्थ हकलाने लगा।

मिस्टर रंगनाथन बोले,” Don’t worry Sidharth..I will give you.” 

    सिद्धार्थ थोड़ा सकुचाया तब मिस्टर चड्ढा उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले,” सोच मत भाई…तेरी प्राॅब्लम हमारी प्राॅब्लम है।चल..एक पाईप से रंगनाथन की कार से पेट्रोल तेरी बाइक में ट्रांसफ़र कर देते हैं।”

      सिद्धार्थ की हिचक और भ्रम दूर हो गया और वह सभी से मिलने-जुलने लगा।दीपावली का त्योहार हो या ओणम या लोहड़ी..सब एक साथ मिलकर मनाते थे।

       कुछ महीनों बाद नीतू प्रेग्नेंट हुई।सुनकर उसकी सास आईं..।उन्होंने देखा कि कभी मिसेज़ कुलकर्णी पूरनपोली लेकर आ रहीं हैं तो कभी मिसेज़ स्वामिनाथन नीतू को इंडली-सांभर खिला रहीं हैं।उन सबका स्नेह देखकर उनकी आँखें भर आईं थीं।कुछ दिनों बाद जब वो वापस जाने लगीं तब रितु चड्ढा बोलीं,” आपको चिंता नहीं करना है आंटी…हम सब नीतू का ख्याल रखेंगे।”

         नौ महीने बाद नीतू ने एक प्यारी-सी बच्ची को जन्म दिया।अस्वस्थता के कारण उसकी सास तो नहीं आ पाईं।मम्मी और भाभी आईं।जेठानियों के न आने से वह थोड़ी उदास थी…तभी रितु चड्ढा आकर बोली,” मैं हूँ तेरी जेठानी..।”

 ” और मैं हूँ इसकी बुआ..।” श्रीमती अग्रवाल बच्ची को गोद में उठाते हुए बोली तो नीतू की आँखें खुशी-से छलक उठीं।न जाने ये कौन-सा रिश्ता है जो उसे सबसे बाँधे जा रहा था।उसकी बेटी परी अपनी आंटियों की गोद में पलने लगी।परी जब चलने लगी तब वह सोसाइटी के बच्चों का खिलौना बन गई।सिद्धार्थ अक्सर नीतू से कहता,” बेगाने शहर में हमें इतना इतना प्यार और अपनापन मिलेगा..ऐसा कभी नहीं सोचा था।ऐसा लगता है जैसे इन सबसे हमारा कोई पिछले जनम का रिश्ता हो।” सुनकर नीतू मुस्कुरा देती।

       देखते-देखते तीन साल बीत गये।नन्हीं परी घुटनों से चलती हुई अब अपने पैरों पर चलने लगी थी।वह हिन्दी-अंग्रेज़ी के साथ-साथ पंजाबी और तमिल के कुछ शब्दों का उच्चारण करना भी सीख गई थी।परी के एडमिशन के लिये नीतू सभी से अच्छे स्कूल के बारे में बात कर रही थी कि एक दिन सिद्धार्थ ने बताया,” नीतू… मेरा प्रमोशन हो गया है…।”

” सच!..।” सुनकर नीतू खुशी-से उछल पड़ी थी।

” लेकिन…।”

” लेकिन क्या…बताइये न सिद्धार्थ..।”

 ” हमें दिल्ली छोड़कर मुम्बई शिफ़्ट होना पड़ेगा।” कहते हुए सिद्धार्थ का स्वर भीग गया।

” मतलब हमें इन लोगों को छोड़कर जाना पड़ेगा…इनके बिना जीना तो…।” नीतू सिद्धार्थ के सीने-से लगकर रोने लगी।उसके जाने की खबर जब मिसेज़ रंगनाथन, मिसेज़ अग्रवाल सहित सभी महिलाओं को हुई तो उन्हें लगा जैसे दिल से धड़कन अलग हो रही है।

      अपनी पैकिंग करते हुए नीतू रोती जा रही थी तब मिसेज़ चड्ढा अपने आँसू छिपाकर उसे सांत्वना देती कि मुंबई कौन-सा दूर है।कभी तू चली आना तो कभी हम।मिसेज़ अग्रवाल उनकी बात का समर्थन करती,” और क्या…।”

        फिर एक दिन आशियाना सोसाइटी के भीतर पैकर्स वालों की गाड़ी आकर खड़ी हो गई।सिद्धार्थ सभी से विदा लेते हुए हाथ जोड़कर बोला,” आप सबने हमें बहुत प्यार और अपनापन दिया।आप सभी का धन्यवाद!”

   ” सिद्धार्थ…हमारे बीच दिल का रिश्ता है जो रुपये-पैसों से नहीं बल्कि दिल से निभाया जाता है मेरे भाई।” कहते हुए मिस्टर चड्ढा की आवाज़ भर्रा गई।सिद्धार्थ भी अपने आँसू नहीं रोक पाया।नीतू तो पिछले चार दिनों से रो ही रही थी।परी को सबने आशीर्वाद देकर विदा किया।

     दिल्ली छोड़े नीतू को बरसों हो गये थे।परी सयानी हो गई, सिद्धार्थ के बालों में सफ़ेदी आ चुकी थी और आशियाना सोसाइटी के कई लोगों ने भी दुनियाँ को अलविदा कह दिया था।लेकिन जो लोग अब भी थें…उनसे फ़ोन पर बातें करते हुए नीतू को महसूस होता है जैसे कल की ही बात हो।रिश्तों में वही गर्माहट और बातों में पहले जैसा ही अपनापन उसे महसूस होता था।वह सोचने लगती कि ये दिल के रिश्ते भी ना….दूर होकर भी कितने पास होते हैं।

                                     विभा गुप्ता 

# दिल का रिश्ता                स्वरचित 

                              (सर्वाधिकार सुरक्षित)

         सच ही तो है…दिल के रिश्ते निस्वार्थ होते हैं।उनमें लोभ-लालच नहीं होता…सिर्फ़ प्यार का अहसास होता है..जो आशियाना सोसाइटी के लोगों के हृदय में था।

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