दायित्व – डाॅ संजु झा: Moral stories in hindi

कल विनोद बाबू का अवकाश-ग्रहण बहुत धूमधाम से मनाया गया।चालीस बर्ष की नौकरी के दायित्व से मुक्त हो गए। एक तरफ उनके मन में खुशी है कि चालीस सालों की बैंक की नौकरी में उनके चरित्र पर कोई धब्बा नहीं लगा,दूसरी तरफ खालीपन का गम भी मन में साल रहा है।सोच-विचार करते हुए  विनोद बाबू नींद की आगोश में समा गए। अगले दिन सुबह-सुबह विनोद बाबू हाथों में चाय की प्याली और अखबार लेकर निश्चिन्त भाव से बैठे हुए हैं।ऑफिस के बारे में सोचते-सोचते उनको एहसास होता है -”  देखते-देखते समय कितना जल्दी पक्षी की भाँति फुर्र से उड़ गया!प्रकृति का नियम है कि समय अच्छा हो या बुरा गुजर ही जाता है।”

पत्नी सोमा उन्हें खामोश देखकर कहती है -“किस चिन्तन में डूबे हुए  हो?आपने तो अपने घर और दफ्तर के दायित्व को तो भली-भाँति निभा लिया है।अब आराम से बची हुई जिन्दगी गुजारो।”

पत्नी की बातों से विनोद बाबू का ध्यान  भंग हुआ। उन्होंने पत्नी को तो कह दिया-“अरे!कुछ नहीं।भला मैं क्या सोचूँगा।”

अब दफ्तर जाने की तो कोई  हड़बड़ी नहीं थी,इस कारण हाथ पकड़कर पत्नी को कुछ देर के लिए  अपने पास बिठा लिया और साथ बैठकर जिन्दगी के खट्टे-मीठे पल साझा करते रहे।कुछ देर बाद  उठते हुए पत्नी सोमा ने कहा -“अब आप अखबार पढ़ो।मैं नाश्ता बनाने जाती हूँ।”

पत्नी के जाने के कुछ देर बाद  पुनः विनोद बाबू ने सिर को कुर्सी की पुश्त पर टिका दिया और अतीत की गलियों में विचरण करने लगें।लगता है कि जैसे कल की ही बात हो।वे पाँच भाई और चार बहन थे।पिताजी प्राइवेट नौकरी करते थे,इस कारण घर में सदैव आर्थिक तंगी बनी रहती थी।फिर भी उस जमाने में नौ भाई-बहनों की परवरिश हो गई। सभी भाई-बहनों के साथ  खेलते-कूदते कब स्कूूल जाने लगें,समय का पता ही नहीं चला!फिर सभी के काॅलेज शुरू हो गए।  पिताजी  जैसे-तैसे अपने दायित्व को निभाने की कोशिश कर रहे थे।माँ हमेशा बीमार रहती थी।विनोद बाबू ये बातें अच्छी तरह समझते थे।विनोद बाबू डाॅक्टर बनना चाहते थे ,पढ़ाई में भी अच्छे थे।लेकिन उन्हें समझ थी कि उनके पिताजी के लिए  मेडिकल पढ़ाई का खर्च वहन करना मुश्किल था।इस कारण उन्होंने ग्रेजुएशन में दाखिला ले लिया और अपना दायित्व समझकर अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करने लगें।

ग्रेजुएशन पूरा करते ही विनोद बाबू ने बेमन से बैंक की परीक्षा दी,संयोगवश उनका चयन भी हो गया।उन्होंने अपना दायित्व समझते हुए सोचा -” अभी बैंक की नौकरी कर लेता हूँ।हाथ में पैसे आऐंगे,तो आगे और अच्छा करुँगा।MSC.करते हुए उन्होंने नौकरी पकड़ ली।अब वे परिवार का आर्थिक  रुप से मदद करने लगें और उनके सपनों के पंख भी फड़फड़ाने लगें।उसी समय उनके पिताजी ने कहा -” विनोद! मैंने तुम्हारी शादी तय कर दी है।पढ़ी-लिखी लड़की है,परिवार भी शिक्षित है!”

उस समय  शादी के लिए लड़की या लड़के की मर्जी नहीं पूछी जाती थी।उन्होंने सिर झुकाकर पिताजी की आज्ञा मान ली।उसी समय उनकी पत्नी आवाज देते हुए कहती है -“आ जाओ!नाश्ता तैयार है।”

विनोद जी मन-ही-मन मुस्कराते हुए सोचते हैं कि अगर पिताजी की बात नहीं मानता तो इतनी सुघड़ पत्नी कहाँ से मिलती!

समय गुजरता रहा,परिवार  और बैंक की नौकरी छोड़कर आगे कुछ सोचने का वक्त ही नहीं मिला। नौकरी में रूक-रूककर उनकी तरक्की होती रही।इस बीच वे एक बेटा और एक बेटी के पिता बन चुके थे।विनोद  बाबू की विशेषता थी कि काबिल होने पर भी नौकरी में तरक्की नहीं मिलने से हताश  नहीं होते थे।इसे वे नौकरी की स्वाभाविक प्रक्रिया मानकर संतोष कर लेते और कर्मठतापूर्वक दायित्वबोध के साथ नौकरी में लग जाते।उनकी पत्नी जरुर मायूस होकर उन्हें कहती -” काम तो बैंकवालों ने आपसे लिया और प्रमोशन दूसरों को दे दिया!”

वे अपनी पत्नी को समझाते हुए कहते -“देखो सोमा!जीवन में सफलता-असफलता तो आती ही रहती है,उससे निराश नहीं होना चाहिए। “

उनकी पत्नी को उनकी यही सकारात्मक  बातें अच्छी लगतीं थीं।विनोद बाबू ने कभी भी घर आकर शिकायतें नहीं की कि आज दफ्तर  में काम बहुत  था या किसी ग्राहक से नोंक-झोंक हो गई।  वे दफ्तर  की सारी बातें पत्नी को बताते थे,परन्तु शिकायती लहजे में नहीं!  कभी। -कभी  रविवार  को भी उन्हें बैंक  जाना पड़ता था।पत्नी शिकायती लहजे में पूछती -” क्या आज भी बैंक जाना है?”विनोद बाबू बड़े ही शान्त लहजे में कहते -“हाँ जरुरी है तो जाना ही पड़ेगा।”

वे परिवार और नौकरी के दायित्व  को भली-भाँति समझते थे।

पत्नी सोमा भी अपने पारिवारिक दायित्व निभाते हुए बच्चों का लालन-पालन करती रही।विनोद बाबू  का प्रत्येक तीन साल पर नौकरी में स्थानांतरण होता रहा,परन्तु कुशल और शिक्षित पत्नी होने के कारण उन्हें कभी नौकरी में दिक्कत नहीं हुई। 

कुछ समय बाद  ऐसा संयोग हुआ कि उनके बैंक  में दूसरे बैंक का विलय हो गया।इस कारण सारे कर्मचारियों की तरक्की रुक गई। विनोद बाबू की अच्छी बात यह थी कि वे किसी बात को लेकर ज्यादा तनाव नहीं लेते थे वरन् और लगन तथा दायित्व के साथ अपने काम में लग जातें।जगह-जगह उनका तबादला होता रहा और वे इसे नौकरी का आवश्यक अंग समझकर जाते रहें।उनके कई कर्मचारी तबादले के लिए पैरवी कराते तथा मनोनुकूल जगह न मिलने पर प्रमोशन भी छोड़ देते,परन्तु वे पत्नी तथा बच्चों को एक जगह स्थिर कर खुद जगह-जगह अकेले जाते।

विनोद बाबू को याद है कि नौकरी के अंतिम पड़ाव पर उनकी तबीयत काफी खराब  हो गई थी।डाॅक्टरों ने जबाव दे दिया था।जिन्दगी में पहली बार इलाज के लिए  दिल्ली तबादला के लिए मुख्य कार्यालय में आग्रह करना पड़ा था।संयोग से उनका स्थानांतरण दिल्ली हो गया।वे दिल्ली में इलाज भी करवाते और दफ्तर भी जाते।उन्होंने नौकरी का दायित्व समझते हुए कभी तबीयत खराब का बहाना नहीं बनाया।पत्नी और बच्चे कहते -” आप कुछ दिन छुट्टी ले लीजिए!”

परन्तु विनोद बाबू कहते -” घर बैठकर क्या करुँगा?काम पेन्डिग होने से लोगों को दिक्कत होगी।”

“देखते -देखते नौकरी के चालीस साल कैसे पूरे हो गए?कुछ पता नहीं चला।”

कुर्सी पर सिर टिकाए विनोद बाबू की आँखों से अपने-आप झर-झर आँसू बहने लगें,परन्तु ये आँसू दुःख के नहीं,वरन् जिम्मेदारीपूर्वक  निभाए गए अपने दायित्व के थे।

उन्हें इस हालत में देखकर पत्नी ने कहा -” आप मायूस क्यों होते हो।मुझे और बच्चों को आप पर गर्व है।आगे भी हम दोनों मिलकर अपना दायित्व निभाऐंगे।”

पत्नी की बातों से विनोद बाबू की तंद्रा भंग हुई।वे एकाएक उठकर खड़े हो गए। उन्हें अपने अंतिम ट्रेनिंग सेंटर में कही  ये बातें याद आ गईं-“आप खुद को रिटायर मत समझिए। अब आपकी जिन्दगी की दूसरी पारी का दायित्व समाज के प्रति शुरु हुआ  है।अब आप बिना तनाव के जिन्दगी खुलकर जिऐं।”

विनोद बाबू मुस्कराते हुए जिन्दगी की दूसरी पारी का दायित्व निभाने के लिए खुशी से उठ खड़े हो गए। 

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा।

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