साथ बचपन में खेले, छोटे भाई पर जान छिड़कने वाले महेश ने उम्र और पैसा बढ़ने के साथ ही माँ और परिवार दोनों से कटाव महसूस करना शुरू कर दिया।
महेश और राकेश, दो भाई, एक ही छत के नीचे रहते थे। उनका परिवार बंटा नहीं था, पर उनके दिलों में धीरे-धीरे दूरियाँ बढ़ने लगी थीं।
एक दूसरे की सलाह और सास की सलाह के बिना कदम ना बढ़ाने वाली देवरानी- जेठानी के रिश्ते में भी पैसे के कारण आया अंतर साफ़ छलक रहा था। महेश की पत्नी, मोना, और राकेश की पत्नी, राधा, में भी अब पहले जैसा प्यार नहीं था।
पति का रूबाब अब पत्नी के भी हाव भाव में झलकने लगा था।
महेश की अच्छी कमाई के चलते, मोना ने धीरे-धीरे खुद को अलग मानना शुरू कर दिया था। महेश भी उसे इसी सोच में ढालने लगा।
अब महेश और मोना छुप-छुपाकर महँगे सामान खरीदते थे, अपने कमरे में महंगे फल और गहने छुपा कर रखते थे।
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मोना रोज़ाना ही बदल-बदल कर गहने पहन कर इतरा कर घूमती। मोना जब भी घर में ज़ेवर पहन कर घूमती, उसकी सास सविता देवी उसे टोकतीं, “बेटा, ऐसे खुले में ज़ेवर पहनना ठीक नहीं। लोगों की नज़र लग जाती है।”
लेकिन मोना को यह सलाह खटक जाती।
एक दिन उसने महेश से गुस्से में कहा, “ये घर की रोक-टोक अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। मुझे लगता है कि माँ और राधा हमसे जलते हैं, क्योंकि हमारी स्थिति अब उनसे बेहतर हो गई है।”
महेश ने भी बात को हवा दी, “तुम बिल्कुल सही हो। हमें अब अपना जीवन अपने तरीके से जीना चाहिए। मुझे इसके लिए अब कुछ सोचना ही होगा। ऐसी घुटन भरी ज़िंदगी अपने और अपने बच्चों के लिए मुझे मंज़ूर नहीं है।”
धीरे-धीरे घर में दो रसोई हो गईं।
महेश और मोना ने अपना खाना अलग बनवाना शुरू कर दिया। सविता देवी और राधा यह सब देखकर चुपचाप सहती रहीं।
पैसा आते ही सबसे पहले तो मोना घर के काम काज से दरकिनारा कर चुकी थी। पूरी तरह से कमला पर निर्भर हो उसने सहेलियों से गप्प बाज़ी, शॉपिंग करने निकल जाना को प्राथमिकता दी और ज़िम्मेदारियों को तो कमला पर ही लाद दिया था।
अपने अपने होते है और पराये__________
जल्दी ही मोना को इस बात से दो चार होना पड़ा।
मोना की आदत थी कि वो नौकरानी, कमला, से हर काम करवाती थी, ख़ुद कोई ज़िम्मेदारी ना उठानी पड़े इसलिए कमला पर ही आँख बंद करके विश्वास करती थी।
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कमला भी इस बात का खूब फ़ायदा लेती। खाना जान कर फ़ालतू बना देती फिर बचा हुआ कहके साथ ले जाती। किसी काम में गड़बड़ पकड़ी जाती तो किसी पर भी दोष मढ़ देती कभी कभी तो मोना ख़ुद लपेटे में आ जाती पर “कमला तू नाराज़ ना हो। कमला तू ही तो हमारी सब कुछ है।”
कभी कभी तो ऊँचा बोल कर ना जाने किस को सुनाती “अपने साथ छोड़ देते हैं, कमला। पर तुझे तो भगवान ने बस मेरी बहन नहीं बनाया, रिश्ता वही दिया है।” कमला को पटा कर रखती।
हमेशा की ही तरह मोना घर से बाहर गई थी, और उस दिन घर में सिर्फ उसकी बेटी सरू और कमला थीं।
उसी दिन घर के कीमती गहने चोरी हो गए।
जब मोना घर लौटी और गहनों का पता नहीं चला, तो उसे जोर का झटका लगा।
उसने कमला को बुलाकर सवाल किया, लेकिन कमला ने तुरंत अपना बचाव करते हुए सरू पर इल्ज़ाम मढ़ दिया।
“मैंने कुछ नहीं किया, दीदी। जब आप बाहर थीं, तब सरू और मैं ही घर पर थे। वो आपके कमरे के चक्कर भी लगा रही थी दीदी। पर में तो कभी सोच नहीं सकती थी दीदी की सरू बिटिया ऐसे इरादे से घूम रही है। छुप के दीदी, सरू फिर कहीं चली गई थी दीदी, और बस साँझ तक लौटी है। यही लगता है ग़लत संगत में पड़ गई है।”
कमला ने चालाकी से कहा।
“दीदी, मैं तो कहती हूँ, बात को ना बड़ाओ, अपनी बच्ची है। ज़्यादा टटोलबाज़ी की तो आपकी ही बदनामी होगी। अब चार हार ही गये हैं, सोचो बेटी की सच्चाई पता लगने पर क़ुर्बान हो गये। इसे समझा दो आगे से ऐसा ना करे।” मोना जब कमला की चाल में फँसती सी लगी तो कमला ने भोली शकल बना कर कहा।
सरू मासूम थी, लेकिन उसे माँ-पापा से एक बात छुपाने का डर था। वो कुछ बोलने के बजाय चुप रही।
मोना को भी अपनी बेटी पर शक हो गया, और उसने गुस्से में महेश को बुलाया।
“देखो, कमला क्या कह रही है। हमारी अपनी बेटी ही…!”
महेश गुस्से में आकर चिल्लाया, “सरू, ये तुमने क्या किया? बोलो!” शोर सुन कर राधा और सविता जी के क़ानो में भी चोरी की आहट आ चुकी थी।
लेकिन तभी, राधा ने सारा मामला समझा।
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वो शांत थी और जानती थी कि सरू की ऐसी गलती हो ही नहीं सकती।
उसने सविता देवी को बुलाकर कहा, “माँ, सरू तो उस दिन हमारे साथ थी। हम उसे शो दिखाने ले गए थे। ये देखिए टिकट भी मुझे पर्स में मिल गई है।” उसने टिकट दिखाया, जो सबूत था कि सरू घर पर नहीं थी।
सारा परिवार सरू के समर्थन में आ गया।
अब मोना को अपनी गलती का अहसास होने लगा की
कमला की बातों में आ कर वो अपनी ही बेटी के कोमल मन को अपनी कटु बातों से कुचल रही थी और उसकी बेटी आँसुओ में क्यों डूबी थी।
फिर, जब पुलिस आई और शक के बिनाह पर कमला के घर की तलाशी ली गई, तो गहने वहीं से बरामद हुए।
मोना स्तब्ध थी। उसे समझ आ गया था कि उसने कितनी बड़ी गलती की।
जब उसने सरू से पूछा कि वो पहले ही क्यों नहीं बोली, तो सरू ने रोते हुए कहा, “माँ, मैं डर गई थी। मैं सोच रही थी कि अगर आपको पता चल गया कि मैं चाची और दादी से अब भी मिलती हूँ, तो आप मुझसे नाराज़ हो जाएंगी। आप दोनों के बीच पहले से ही इतना तनाव है।”
मोना का दिल पिघल गया। उसे एहसास हुआ कि संयुक्त परिवार में रोक टोक ज़रूर है पर एक सुरक्षा और परवाह भी है। उसकी अकड़ और अमीरी की सोच ने उसे अपने ही परिवार से दूर कर दिया था।
उस रात उसने महेश से कहा, “हमने क्या कर दिया, महेश? हमारी अपनी बेटी हमसे डरने लगी थी। हमने अमीरी के घमंड में अपने रिश्तों को दरकिनार कर दिया।” महेश ने भी सिर झुका लिया।
उसने उसी समय अपनी माँ के पास जाकर माफी मांगी, “माँ, हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई। हम अपने ही परिवार से दूर हो गए। क्या अब हम सब कुछ ठीक कर सकते हैं?”
सविता देवी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “बेटा, घर चाहे दो हो जाएं, लेकिन दिल हमेशा संयुक्त रहने चाहिए। यही सबसे बड़ी बात है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा, अगर हम दिल से कोशिश करें।”
भले ही घर के दो हिस्से हो गए थे, लेकिन दिलों की दूरियाँ मिट गई थीं। परिवार का प्यार फिर से उन्हें एक साथ लाने लगा।
दोस्तों, धन-दौलत से व्यक्ति अपने जीवन को सुविधाजनक बना सकता है, लेकिन यदि उसके साथ रिश्तों की गर्माहट और परिवार का प्यार नहीं हो, तो वह जीवन अधूरा और निरर्थक हो जाता है। अमीरी का घमंड और भौतिक सुख हमें क्षणिक संतुष्टि तो दे सकते हैं, परंतु वे हमें अपनों से दूर कर सकते हैं। संयुक्त परिवार में, जहां रोक-टोक होती है, वहीं एक सुरक्षा और परवाह भी छुपी होती है। परिवार का वास्तविक मूल्य तभी समझ आता है, जब संकट के समय परिवार हमारे साथ खड़ा हो। किसी भी रिश्ते में भरोसा, प्रेम और सम्मान सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। इसलिए, हमें अपनी जिम्मेदारियों और मूल्यों को समझते हुए परिवार के साथ दिल से जुड़ा रहना चाहिए।
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आपकी सखी
पूनम बगाई
प्रतियोगिता के लिए कहानी। #संयुक्त परिवार में रोक टोक ज़रूर है पर एक सुरक्षा और परवाह भी है।