डार्लिंग!कब मिलोगी” (भाग -39)- सीमा वर्मा : Moral stories in hindi

माया हिमांशु की दीदी हैं। वे नैना से मिलना चाहती थीं। इसलिए हिमांशु के साथ आ गई थीं।

 विवाहोपरांत सपना देवेन्द्र के साथ उसके फ्लैट पर चली गई थी। चूंकि विवाह समारोह अत्यंत सादा था अतः समेटने को विशेष कुछ नहीं था।

नैना सपना के विदा हो जाने के बाद बहुत खालीपन महसूस कर रही थी। उसका मन वापस घर जाने का नहीं है।

काफी देर तक वो जया , माया और शुभ्रा सब एक साथ बातें करते हुए  मन बहलाने की कोशिश करते रहे थे।

लेकिन फिर अगले दिन जया और शुभ्रा का स्कूल और खुद नैना के औफिस  खुले रहने की वजह से उन्हें उठना पड़ा तब माया ,

” नैना मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे घर चलूं ? “

” दीदी! ”  ये भी पूछने की बात है ? ” नैना बहुत खुश हुई। हालांकि उस पर दिन भर की थकान हावी हो रही थी।

घर पहुंच कर सबसे पहले वो बाथरूम में जा कर शावर के नीचे खड़ी हो गयी।

करीब दस मिनट तक यूंही  खड़ी रही। ठंडे पानी के धार से उसकी थकान कुछ हल्की हुई।

माया नैना के बिस्तर पर ही आराम कर रही है। बाथरूम से निकल

माया के लाख मना करने पर भी नैना किचन में काॅफी बनाने चली गई।

थोड़ी ही देर में नाश्ते से सजी ट्रे और भरे हुए मग में काॅफी लेकर वापस आ गई।

” काॅफी अच्छी बनाती हो। ” माया ने लंबी घूंट लेते हुए।

नैना सिर्फ मुस्कुरा कर रह गई। वह थोड़ी आंशिकित हो गई है। दीदी अकेली आई हैं।

” नैना !  तुम सोचोगी मैं तुमसे इतनी बेतकक्लुफ कैसे जबकि हम इससे पहले मिले भी नहीं  हैं ?

ऐसा नहीं है, हिमांशु के जरिए मैं तुम्हें तुम्हारे स्कूल के दिनों से जानती हूं या यों कह लो तुम्हारा इंतज़ार मुझे उन दिनों से ही था।

” दीदी” नैना सकुचा गई।

” हिमांशु के मन में क्या है यह मैं जानती हूं “

माया ने उसे अपने बांहों में बांध लिया और फुसफुसाती हुई ,

” मुझे विश्वास है , हम एक दूसरे की जिंदगी बांटेंगे। “

लेकिन पहले इत्मीनान से तुम्हें हिमांशु और मेरी अर्थात हमारे बचपन की कहानी सुननी चाहिए।

फिर कुछ निर्णय लेने को तुम स्वतंत्र हो “

नैना की नजरों के  सामने  हठात ही बचपने में देखी गई  हिमांशु के दरवाजे पर मिली उन कड़क आंटी जी का चेहरा आ गया।

उसकी आंखों में सवाल तैर गये।

” हां ! वो हमारी मां हैं। जिनका अलगाव हमारे बचपने में ही पिताजी से हो गया था।  बात कुछ नहीं दोनों के अहं के टकराव की थी। जिसे हिमांशु का बालमन ही तो था , चाहता तो सब कुछ भुला देता पर भुला नहीं पाया

हिमांशु तब बहुत छोटा था।

हमारी मां पढ़ी-लिखी जमाने से आगे की सोच रखने वाली महिला जब कि पिता ग्रामीण परिवेश से।

जिन्हें पत्नी की आमदनी का हिस्सेदार बनने से तो कोई परहेज नहीं था।

परहेज था तो उसके स्वनिर्मित स्वतंत्र अस्तित्व से।

मां के माथे पर हर वक्त चिंता की लकीरें रहती। बहुत छोटी सी उम्र में ही हिमांशु छिप- छिपा कर बाबा के हुक्के से गुड़गुड़ी के कश लगा लिया करता। मां इस सबसे चिड़चिड़े स्वभाव की हो गई थीं।

छोटी सी खाई कब रिश्तों में बड़ी दरार डाल जाती है।

कोई नहीं जानता।

हिमांशु ने बचपन से मां – बाबा को एक दूसरे के मुंह पर दरवाजा बंद करते देखा है।

सो जिंदगी में तालमेल और समझौते से उठकर सोचने की हिम्मत उसमें जरा कम है।

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