पापा, आप सच में उन्हें पाँच लाख देने की सोच रहे हैं?
सीमा की आवाज़ में नाराज़गी भी थी और हैरानी भी। श्यामलाल चुपचाप खाट पर
बैठे थे। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें और माथे पर पसीना साफ बता रहा था – वो
इस वक्त दो पाटों में फंसे हैं, एक तरफ बेटी की शादी की खुशी, दूसरी तरफ दहेज
का बोझ।
सीमा बेटा, जमाना ऐसा है… लड़का अच्छा है, सरकारी नौकरी है… हम जैसे गरीब
लोगों के लिए इससे अच्छा रिश्
बस करिए पापा!
सीमा ने गहरी साँस ली। अगर रिश्ता ही सौदेबाज़ी से शुरू हो रहा है, तो आगे क्या
होगा? ये शादी नहीं, सौदा है – और मैं इस सौदे की चीज़ नहीं हूँ।
सीमा, एक छोटे से गाँव रामपुर की रहने वाली, पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर लड़की थी।
पास के स्कूल में टीचर थी, और अपने परिवार का सहारा बन चुकी थी। जीवन सादा
था, लेकिन संतोष से भरा हुआ।
जब राजीव का रिश्ता आया, तो परिवार में उम्मीदें जाग उठीं। लड़का इंजीनियर था,
शहर में नौकरी करता था। लेकिन फिर आया वो कॉल राजीव के पिता की माँग:
राजीव के पिता ने श्यामलाल जी से कहा।
पाँच लाख नकद और एक गाड़ी हो तो बात पक्की समझिए।
बस, यहीं से सीमा की कहानी ने मोड़ ले लिया।
श्यामलाल ने बहुत समझाने की कोशिश की। कुछ रिश्तेदारों ने भी कहा – “समझौता
कर लो, ऐसे ही होते हैं जमाने के तौर-तरीके।”
सीमा के भीतर हलचल थी – एक तरफ पिता की लाचारी, दूसरी तरफ खुद की
आत्मसम्मान की पुकार।
एक दिन, स्कूल में एक सामाजिक कार्यक्रम हुआ। वहाँ सीमा की मुलाकात अनिल
से हुई – एक समाजसेवी, जो दहेज प्रथा के खिलाफ काम कर रहा था।
उसकी बातें कुछ अलग थीं – सरल, सच्ची और साहसी।
सीमा की दास्तान सुनकर अनिल ने कहा आपके जैसे लोग अगर बोलना छोड़ देंगे,
तो बदलाव कैसे आएगा?
अनिल की ये बात सीमा के दिल में उतर गई।
सीमा ने एक बड़ा फैसला लिया – राजीव से शादी करने से इंकार।
गाँव में बातें बनीं, कुछ ने ताने मारे, लेकिन सीमा ने पहली बार खुद को आज़ाद
महसूस किया।
सीमा ने अनिल के साथ मिलकर गाँव-गाँव जाकर दहेज के खिलाफ लोगों को
जागरूक करना शुरू किया।
कुछ लोगों ने समर्थन दिया, कुछ ने विरोध। पर सीमा की बातों में दम था, अनुभव था –
और अब, एक आग भी थी।
एक दिन, सीमा को खबर मिली कि राजीव की शादी तो हो गई, लेकिन शादी की रात
ही दहेज को लेकर ऐसा विवाद हुआ कि दुल्हन ने केस कर दिया।
मामला कोर्ट तक पहुँच गया।
राजीव का परिवार जेल गया।
और तब… राजीव ने सीमा को फोन किया।
तुम सही थीं… काश, तुम्हारी बात मान ली होती।
सीमा चौंकी – ये उस कहानी का अंत हो सकता था, जिसमें वो अपनी आज़ादी बेच
देती।
समय के साथ सीमा और अनिल का रिश्ता भी गहराया। दोनों ने सादा विवाह किया –
न दहेज, न बैंड-बाजा। बस दो लोग, जो एक-दूसरे की सोच से जुड़े थे।
सीमा और अनिल अब सिर्फ खुद के लिए नहीं, समाज के लिए लड़ रहे हैं। उन्होंने
एक संगठन शुरू किया – “स्वाभिमान संगठन” – जो गाँवों में जाकर लड़कियों को
सशक्त बनाने का काम कर रहा है।
सीमा अब सिर्फ एक टीचर नहीं, एक बदलाव की मिसाल बन चुकी है।
शादी समझदारी का फैसला होनी चाहिए, सौदेबाज़ी का नहीं।
वो ये बात हर मंच से, हर गाँव में, पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती है।
सीमा की कहानी कोई फिल्म नहीं, हकीकत है।
और हर लड़की के भीतर वो हिम्मत है – बस उसे अपनी आवाज़ पहचाननी होती है।
नमरा अराफात