इंसानियत का रिश्ता – विभा गुप्ता

मेरे पति का तबादला एक नये शहर में हुआ था।घर के कामों के लिए मैंने एक नौकरानी रखी थी जो समय पर आकर सारा काम कर जाती थी।मैंने नोटिस किया कि बाल-बच्चेदार होने के बावज़ूद भी उसे घर जाने की जल्दी नहीं होती है।एक दिन मैंने उससे पूछ लिया, ” रागिनी,तेरे बच्चे कितने हैं?, उनकी क्या उम्र है? बोली, ” दीदी, चार साल का बेटा और छह बरस की बेटी है।

” सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ,मैंने कहा कि इतने छोटे बच्चों को घर में छोड़कर आती है, तेरा पति संभालता है क्या?  सुनकर वो हा-हा करके हँसने लगी।बोली, ” दीदी,मेरा आदमी तो मिस्त्री का काम करता है,बच्चों को तो ‘मम्मीजी’ के यहाँ छोड़कर आती हूँ और वापसी में लौटते बखत उन्हें घर ले जाती हूँ।” ” मम्मीजी!” मैंने आश्चर्य-से पूछा कि ये मम्मीजी कौन हैं?

तुम्हारे बच्चों को रखने के लिए कितने पैसे लेती हैं?”  ” दीदी, नाम तो नहीं जानती,सभी उन्हें मम्मीजी ही कहते हैं लेकिन हमें उन्हें कुछ भी नहीं देना पड़ता है।” हँसते हुए बोली तो मेरी उत्सुकता बढ़ती गई।मैंने कुछ और प्रश्न उससे पूछे, उसने जवाब भी दिये लेकिन मैं संतुष्ट नहीं हुई और एक दिन मैं उसकी मम्मीजी से मिलने चली गई।

       रंग-बिरंगें फूलों से सजे बाग में नन्हें-मुन्नों को खेलते देखकर मेरा मन पुलकित हो उठा।रागिनी एक बच्चे की तरफ़ इशारा करते हुए बोली, ” वो रहा मेरा बेटा।” कहकर वो उधर दौड़ पड़ी।घर के बाहर ‘किलकारी ‘ लिखा देखा तो तथाकथित मम्मीजी से मिलने की इच्छा और तीव्र हो गई।मैंने दरवाज़े पर हल्के-से दस्तक देते हुए पूछा,” कोई है?” तो भीतर से ही एक संभ्रांत महिला ने कहा, “आती हूँ, कृपया आप बैठ जाइये।” मैं बैठकर सामने दीवार पर लगे रंग-बिरंगे चित्रों,फूलों और फल-सब्ज़ियों के पोस्टरों को देख ही रही थी कि गुलाबी रंग का सूट पहने महिला को देखकर मेरे मुँह से निकल पड़ा, “गरिमा आंटी, आप!”

 ” अरे गुड्डी, तुम यहाँ कैसे?” मुस्कुराते हुए उन्होंने मुझे गले से लगा लिया।

           गरिमा आंटी,मेरे पड़ोस में रहती थीं।छुट्टियों में मैं जब भी घर आती तो उनके साथ बहुत बातें करती थीं।उम्र का अंतर होने के बावज़ूद हमारे बीच एक गहरा रिश्ता बन गया था।मेरा ‘गुड्डी’ नाम उन्होंने ही रखा था।उनके तीन बरस के बेटे को परेशान करने में मुझे बहुत मज़ा आता था और तब वे कहती थीं कि बड़ा होकर आरव(उनका बेटा) तेरे बच्चों पर अपनी भड़ास निकालेगा।मैं हाॅस्टल में ही थी,तभी मम्मी ने पत्र लिखा कि अंकल का तबादला हो गया है और तेरी गरिमा आंटी सपरिवार यहाँ से चली गईं हैं।इतने सालों बाद आज अचानक उन्हें देखकर मैं चकित थी और खुश भी।




       मैंने अपने बारे में बताया, फिर उनसे पूछा कि अंकल कैसे हैं? आरव तो बहुत बड़ा हो गया होगा,क्या कर रहा है,वगैरह-वगैरह।उन्होंने कहा, ” पीछे देख।” मैंने मुड़कर देखा तो दंग रह गई।दीवार पर एक बड़े-से फ़्रेम में अंकल के साथ आरव की तस्वीर टंगी थी जिसपर फूलों का हार था।

       ” हे भगवान! ये सब कैसे?”

  ” हमलोगों को नयी जगह रास नहीं आई गुड्डी।”अपने आँसुओं को रोकने का प्रयास करती हुईं वे बोलीं।

    ” क्या मतलब?” मैंने पूछा, तब आँटी बताने लगी, ” तेरे अंकल का तबादला एक कस्बे में हुआ था,जहाँ सुविधाएँ कम और समस्याएँ अधिक थीं।आरव बीमार रहने लगा।डाॅक्टर के बहुत चक्कर लगाये लेकिन बीमारी समझ नहीं आ रही थी।फिर हम यहाँ आ गये,तब डाॅक्टर ने हमें  बंबई(मुंबई) जाने की सलाह दी।वहाँ जाने पर पता चला कि आरव के दिल में छेद है जो अब…।

कोई दवा, कोई दुआ काम नहीं आई गुड्डी, हँसता-बोलता आरव छोटी-सी उम्र में ही मेरा हाथ छोड़कर चला गया।” आँटी फूट-फूटकर रोने लगी,जैसे बरसों का गुबार आज निकल रहा हो।मैंने उन्हें पानी पिलाया तो उन्हें अच्छा लगा, फिर बोली, ” कई महीनों तक हम एक-दूसरे को दिलासा देते रहें लेकिन कब तक।मेरा खालीपन बीमारी का रूप धारण करने लगी,तब हमने एक बच्चा गोद लेने का निश्चय किया और उसी कार्य के लिए घर से निकले ही थें कि रास्ते में एक महिला को अपनी पीठ पर बच्चे को बाँधकर सड़क पर झाड़ू लगाते देखा तो मैं रुक गई।मैंने पूछा कि ऐसे क्यूँ?

घर में क्यों नहीं रखकर आती? ऐसे तो..। वह बोली, ” कहाँ मैडम, आदमी काम पर जाता है और सास बीमार रहती है।बड़ा मेमसाहब लोग तो कौन सा केयर-वेयर में रख देता है,हम गरीब कहाँ…।” फिर मैंने कुछ और बच्चों को गंदी जगह पर सोते देखा जहाँ मक्खी-मच्छरों का झुंड था तो मैं सिहर उठी।बस गुड्डी,तभी मैंने सोच लिया कि अपने आरव को न बचा सकी तो क्या हुआ,इनके नौनिहालों की सुरक्षा तो मैं कर ही सकती हूँ और मैंने इन बच्चों के लिए डे केयर खोलने का निश्चय कर लिया।” कहते हुए उनके चेहरे पर खुशी और संतोष के भाव थे।

       कहने लगी, “जमाने की हवा देखते हुए पहले तो वे अपना बच्चा मेरे पास छोड़ने में हिचकचाई,फिर हमने उन्हें विश्वास दिलाया।तसल्ली हुई तो फिर उन्होंने अपने जान-पहचान वालों को भी बताया।दो से चार और चार से आठ होने लगें और इस तरह मेरा छोटा-सा आँगन इन बच्चों की किलकारियों से गूँजने लगा।इनके साथ मेरा ऐसा अटूट रिश्ता बन गया है गुड्डी कि इन्हें छींक भी आती है तो मैं परेशान हो उठती हूँ।

सभी बच्चे एक साथ खाते-पीते हैं,आपस में मिल-जुलकर खेलते हैं,लड़ते-झगड़ते हैं तो एक-दूसरे का ख्याल रखना भी सीखते हैं।भगवान का दिया तो सब कुछ था हमारे पास,एक कमी थी जो इन बच्चों के आ जाने से पूरी हो गई है।इनकी माएँ इन्हें बेफ़िक्र होकर यहाँ छोड़ जाती हैं और शाम को वापस ले जाती हैं।”

     ” और अंकल जी..” मैंने पूछा तो बोलीं, ” सब ठीक ही चल रहा था गुड्डी, एक दिन बोले कि गरिमा, रिटायर होने के बाद मैं भी तुम्हारे बच्चों के बीच एक बच्चा बन जाऊँगा।लेकिन ऑफ़िस में न जाने क्या हुआ, अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा और…।बस बेटा, उसी दिन से मैं इन सब की मम्मी जी बन गई क्योंकि सभी में मुझे अपना आरव ही दिखाई देता है।” तभी एक बच्चा आकर उनसे लिपट गया और तोतली भाषा में बोलने लगा, ” मम्मी,ये मुतको मालता(मुझको मारता)है।” और फिर वे उनमें व्यस्त हो गईं।

              गरिमा आँटी की बगिया का एक फूल अधखिला रह गया तो उन्होंने बाकी फूलों को खिलाने का संकल्प कर लिया।उन बच्चों के साथ गरिमा आँटी का इंसानियत का रिश्ता कायम हो चुका था जिसमें कोई लोभ-लालच या स्वार्थ की भावना नहीं थी।वे बच्चों पर अपना स्नेह और ममता दिल खोल कर लुटाती थीं और बच्चे भी उन्हें मम्मी-मम्मी कहकर उनके आगे-पीछे ऐसे घूमते रहते थें जैसे यशोदा मैया के पीछे कन्हैया।मैं उस ममतामयी देवी के आगे नतमस्तक हो गई।

                                         — विभा गुप्ता

     #एक_रिश्ता                        स्वरचित 

        सच है,कुछ रिश्ते भगवान के घर से ही बनकर आते हैं जो अनाम होकर भी अटूट होते हैं,ऐसा ही रिश्ता गरिमा आँटी का उन बच्चों के साथ बन गया था, निश्छल-निस्वार्थ और ममता से भरपूर।

7 thoughts on “ इंसानियत का रिश्ता – विभा गुप्ता”

  1. बहुत ही मर्मस्पर्शी और प्रेरणादायी कथा है!

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  2. वास्तव मे आपकी यह कहानी दिल को छू गई आंखों में आसूं आगहै 🙏🙏

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  3. दिल को झकझोर कर रख देने वाली कहानी!
    अपने बच्चे को पराये बच्चों में महसूसना आसान नहीं, जो आपने किया. आपकी सोच को मेरा नमन!🙏

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