अंजाना सा -जाना पहचाना – गीता वाधवानी

टीनएजर, युवा होते बच्चे, एक ऐसी दहलीज , जब मानसिक और शारीरिक बदलाव होते हैं। इसी उम्र में पढ़ाई और कैरियर सेट करने की चिंता होती है और इसी उम्र में भटकाव की भी स्थिति सबसे ज्यादा देखी जाती है। बच्चे, दोस्तों से कुछ ज्यादा ही घुल मिल जाते हैं और कई बार उनकी बातों में भी आ जाते हैं। इस उम्र में बच्चा घर से  निकल कर बाहर की दुनिया से जुड़ रहा होता है। उसे पता नहीं होता कि क्या सही है क्या गलत। यह सब सीखने में उसी समय लगता है। मैं भास्कर, मैं ही आपको यह सब बातें कह रहा हूं। मेरे भी चार पक्के दोस्त थे। किसी के घर में कोई परेशानी नहीं थी पर फिर भी बच्चे अपने माता-पिता से उसने कुछ छुपाते हैं। हम भी कभी कभी छुपकर कहीं घूमने चले जाते थे या कभी छोटी मोटी पार्टी कर लेते थे। 

    हमारी 12वीं की बोर्ड की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी। एक तो खाली समय, खुराफाती दिमाग और ऊपर से युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते बच्चे। मन में ना जाने कैसा बदलाव और आकर्षण पैदा हो रहा था। 

ऐसी स्थिति में मैं, अपने दोस्तों की बातों में आ गया। मैं उनके साथ ऐसी जगह पहुंच गया था, जहां आकर मुझे ऐसा लग रहा था कि मुझे यहां नहीं आना चाहिए था। लेकिन मेरे मना करने पर दोस्तों ने मेरा बहुत मजाक उड़ाया और उनके सामने स्वयं को मर्द साबित करने के चक्कर में मैं उनके साथ यहां आ गया था। मन में बहुत घबराहट हो रही थी। सच कहूं तो मैं वाकई में अपने दोस्तों जैसा नहीं था। 

वहां लड़कियां, मजबूरी में या फिर जानबूझकर ,पता नहीं ना जाने कैसे-कैसे इशारे करके अपने ग्राहक ढूंढ रही थी। उन्हें लुभाने की कोशिश कर रही थी और मैं उन्हें देखकर शर्म से पानी-पानी हो रहा था, पर अपने भाव अपने चेहरे पर आने नहीं दे रहा था यह सोच कर कि दोस्त फिर मेरा मजाक उड़ाएंगे। कुछ देर बाद चारों दोस्त बेशर्मी से हंसते हुए मुझे टाटा बाय-बाय कहते हुए अंदर जा चुके थे। मैं अभी वहीं खड़ा था। मैं हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। मन में खुद को दोषी सा महसूस कर रहा था। 

तभी वहां एक लड़की आई, जो की उम्र में मुझसे थोड़ी बड़ी लग रही थी। उसके पास आने से मैं बहुत घबरा गया। उसने कहा-“देखो, यह अच्छी जगह नहीं है। तुम वैसे लड़के नहीं दिख रहे, तुम तो अच्छे घर से लग रहे हो। मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ती हूं, तुरंत वापस लौट जाओ। अपने माता-पिता का मान रखो। भैया, मुझे अपनी बड़ी बहन समझो या छोटी बहन। मेरी बात मान लो, तुरंत यहां से लौट जाओ।” 

न जाने उसके शब्दों में क्या जादू था। छोटी बहन की विनती थी या बड़ी बहन की तरह आदेश था। मैं उसी समय वापस लौट गया और मेरे कदम उस अनजाने से-मगर जाने पहचाने रिश्ते की वजह से बहकने से बच गए। मुझे सही राह दिखाने वाली न जाने वह कौन थी। आज भी मैं उसका शुक्रगुजार हूं। 

स्वरचित  गीता वाधवानी दिल्ली 

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