‘ दहाड़ ‘ –  विभा गुप्ता

दोस्तों! मैंने इस चित्र को एक नये नज़रिये से देखा है और नारी के दूसरे रूप को अपनी कहानी में दिखाने का प्रयास किया है।उम्मीद है आपको पसंद आएगी।

छोटा-सा शहर था साहेबगंज,जहाँ पर साक्षी का घर था।माँ, पिताजी और एक छोटे भाई के साथ वह बहुत खुश थी।उसके पिता साहेबगंज रेलवे स्टेशन में काम करते थें।वक्त-बेवक्त जाने की उनकी ड्यूटी होती थी तब वह खुद घर की इंचार्ज बन जाती थी।पढ़ाई के साथ-साथ वह खेल-कूद में भी बहुत होशियार थी।

एक दिन स्कूल में एक लड़के ने उसे ‘स्टेशन मास्टर की बेटी’ कहकर चिढ़ा दिया और फिर तो उसने उस लड़के को जमीन पर पटक कर उसकी धुनाई उउकर दिया।यहीं से उसने अपने अंदर की शक्ति को पहचाना और रेसलर बनने का फ़ैसला किया।शुरू में तो परिवारवालों ने इसे मर्दाना खेल कहकर उसे मना कर दिया, तब उसके पिता उसके निर्णय में साथ खड़े हो गए।सफ़र आसान तो नहीं था लेकिन जब मन में कुछ करने की लगन हो और हौंसलें बुलंद हो तो बाधायें भी स्वतः ही दूर हो जाती हैं।उसने स्कूल की किताबों में पढ़ा था कि पीटी उषा, मैरीकाॅम को भी बहुत संघर्ष करना पड़ा था तो वह भी करेगी।

वह मुँह अंधेरे उठकर मैदान के पाँच चक्कर लगाती,फिर तैयार होकर स्कूल जाती और शाम को फिर घंटों अभ्यास करती।उसे ऐसा करते देख आसपास लोग उसका मज़ाक भी उड़ाते थें पर वह उन सभी को नज़रअंदाज़ करके अपने लक्ष्य पर फोकस करके अभ्यास करती रही।उसकी मेहनत रंग लाई।राज्यस्तरीय कुश्ती प्रतियोगिता में उसने कई मेडल अपने नाम कर लिये।उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देखकर चंडीगढ़ में होने वाले राष्ट्रीय कुश्ती चैंपियनशिप के लिये उसका काॅल आ गया।खुशी से उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे।पर अब एक समस्या थी कि दसवीं बोर्ड की परीक्षा सिर पर थी।वो कैसे…? तब उसके स्कूल के प्रिंसिपल सर ने उससे कहा था, “साक्षी, तुम अपने राज्य के लिये खेल रही हो ,निष्फ़िक्र होकर खेलने जाओ,हम सभी की ब्लेसिंग तुम्हारे साथ है।


चंडीगढ़ का बड़ा स्टेडियम देखकर तो उसके हाथ-पैर ही फूल गये थे लेकिन फिर उसने अपनी हिम्मत बटोरी और पूरे विश्वास के साथ रिंग उतरी।सेमीफाइनल में उसका मुकाबला लुधियाना के प्रणिता चड्डा से था।दो राउंड ठीक-ठाक रहा।उसने नोटिस किया प्रणिता उसे छोटे शहर की समझकर उसपर हावी होने का प्रयास कर रही।फिर तो उसने भी ठान लिया और तीसरे राउंड की शुरुआत उसने अपने दहाड़ से की।जैसे लक्ष्मीबाई गर्जना के साथ अंग्रेजों की सेना पर टूट पड़ी थी, उसने भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपने प्रतिद्वंदी को एक ही बार में चित कर दिया और गोल्ड मेडल की विजेता बन गई।

वापस आने पर उसका शानदार स्वागत हुआ।मम्मी-पापा को खूब बधाईयाँ मिल रही थी।बारहवीं कक्षा की परीक्षा के लिये उसने टूर्नामेंट तो बंद कर दिये लेकिन अभ्यास करती रही।वह बीए के द्वितीय वर्ष में थी,तभी उसने अखबार में अंतरराष्ट्रीय कुश्ती प्रतियोगिता के बारे में पढ़ा।उसकी इच्छा तो थी लेकिन कड़ी मेहनत भी थी।उस वक़्त भी उसके पापा ने कहा था ,” तू मेहनत कर ,बाकी मेरे पर छोड़ दे।” काॅलेज़ ने फाइनल ईयर की ज़िम्मेदारी ले ली और वह ट्रेनिंग के लिए कोलकता चली गयी।ट्रेनिंग के दौरान उसे नई-नई जानकारियाँ मिली तो नये -नये अनुभव भी हुये।

अगले महीने टोकियो में होने वाले इंटरनेशनल रेस्लिंग काॅम्पटीशन के लिए उसने अपने आपको पूरी तरह से तैयार कर लिया था।वह अपने पापा के साथ टोकियो पहुँची,उसके कोच भी कोलकता से वहाँ पहुँच चुके थें।पहले दिन का उसका प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा।दूसरे देशों से आई लड़कियाँ उसे सीता – मीरा की इमेज वाली समझ रहीं थीं।उसके लंबे बालों पर कईयों ने कमेंट भी किये थें जिसकी वजह से वह थोड़ी नर्वस होने लगी थी।जब उसके पापा और कोच ने उसे हिम्मत बढ़ाई तब उसने कमर कस लिया और दूसरे दिन के तीनों राउंड में उसने विरोधी टीम पर विजय पाई।


उसका फाइनल मैच ‘कोरिया’ के साथ होना था।उसने अपनी दोनों चोटियाँ पीछे करके बाँधी, मन में कहा कि आज पूरे विश्व को बता दूँगी कि भारतीय महिलाएँ सीता ही नहीं होती, दुर्गा भी होती है।माँ दुर्गा का स्मरण करके उसने ‘जय भवानी ‘कहकर शेरनी- सी दहाड़ के साथ रिंग में एंट्री की।उसके चेहरे पर बाल बिखरे थें लेकिन गज़ब का विश्वास था।उसका ऐसा रूप देखकर उसके पिता और कोच भी अचंभित थें।पूरा स्टेडियम चुप्पी साधे उसका करतब देख रहा था।वह हर राउंड में अपने प्रतिद्वंदी को मात दिये जा रही थी और वह क्षण भी आ गया, कोरियाई महिला एक-दो-तीन के बाद भी नहीं उठी और तब रेफ़री ने उसके दोनों हाथ उठाकर उसे विश्व विजेता घोषित कर दिया।पूरा स्टेडियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।उसने साबित कर दिया कि महिला जब कुछ ठान लेती है तो वह कोमलता का आवरण त्याग कर चंडी बन अपने दुश्मन को पछाड़ कर विश्व विजेता भी बन जाती है।

                – विभा गुप्ता, बैंगलूरू

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