चाय की दुकान – पुष्पा पाण्डेय

जब से गाँव में पक्की सड़क बन गयी थी, गोपाल ने  दूसरों के खेतों में काम करना छोड़ दिया और  सड़क किनारे एक चाय की दुकान खोल लिया था। पक्की सड़क बनने से वाहनों की संख्या भी बढ़ गयी। धीरे-धीरे आमदनी में बढ़ोतरी होने लगी। दुकान खोलने का निर्णय गोपाल का सही साबित हुआ। अब तो गोपाल की शादी भी हो गयी। उसका घर बस गया। पैतृक सम्पत्ति के नाम पर एक छोटा सा मिट्टी का घर था।

बचपन में ही बिमारी के कारण पिता की मौत के बाद माँ ने अकेले ही गोपाल की परवरिश की थी। बड़े होने पर गोपाल खेतों में मजदूरी करने लगा। अब तो इस सड़क ने उसकी तकदीर ही बदल डाली। गोपाल जब बाप बना था उस दिन सभी मुसाफिरों को चाय की दावत थी। गाँव वाले भी उस दावत में शामिल हुए थे।—–

मुन्ना अब गाँव के स्कूल में जाना भी शुरु कर दिया था। सबकुछ  सुनियोजित ढ़ंग से चल रहा था।

गोपाल पड़ोस के गाँव के एक बारह-चौदह साल के अनाथ बच्चे को अपनी दुकान पर मदद के लिए रख लिया था। उसको भी भरपेट भोजन और रात में सोने की जगह मिल गयी।दोनों एक-दूसरे के पूरक बन गए। गोपाल अपने साथ उसका भी भोजन घर से मंगाने लगा और रात में वहीं दुकान में ही बेंच पर सो जाता था। दुकान की हिफाजत की चिन्ता से भी गोपाल अब मुक्त हो गया।

धीरे-धीरे उस लड़के में जिसे लोग रामभरोसे पुकारते थे, दुकान सम्भालने की काबिलियत भी आ गयी। वह मेहनत और ईमानदारी से दुकान का काम करता था।

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अब तो गोपाल की जान-पहचान का दायरा भी काफी बढ़ गया था और एक दिन वह सुना कि कुछ लोग पैसा कमाने खाढ़ी देश जा रहे हैं। वहाँ बहुत पैसा है।गोपाल का मन भी डोल गया।

ठीक ही कहा गया है कि मनुष्य की तृष्णा बढ़ती ही जाती है। और अधिक पाने की चाहत कभी पीछा नहीं छोड़ती। गोपाल को भी तो अपने मुन्ना को डाॅक्टर बनाना था और इसके लिए बहुत पैसे चाहिए। माँ की जिम्मेवारी से भी मुक्त हो गया था। अतः वह भी उन लोगों के साथ खाढ़ी देश जाने का मन बना लिया। एक बार जो बात मन में घर कर जाती है ,उस पर दुबारा सोचना भी नहीं चाहता है मन।यही तो मन की कमजोरी है। घर में ताला बंद कर दुकान रामभरोसे कर सबकुछ समेट वह चल पड़ा परदेश।

आगे की होनी से अनजान गोपाल और गोपाल का परिवार हवाई-जहाज में बैठ कर ऐसा अनुभव कर रहा था मानों स्वर्ण की यात्रा कर रहा हो।अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करते हुए जा रहा था कि तभी मौसम का रूख बदला और जहाज चालक के अधिकार से बाहर हो गया।

कुछ लोगों ने स्वर्ग की यात्रा पूरी की और कुछ लोग यहीं धरती रह गए। यह दुखद घटना   सबको झकझोर कर रख दिया। मुन्ना भी अनाथ हो चुका था। अपना पता बताने में असमर्थ मुन्ना को सरकारी मुलाजिमों ने अनाथालय में रखवा दिया। अब वही मुन्ना का बसेरा बन गया।———

इधर रामभरोसे की मेहनत और लगन से दुकान दिन दुना और रात चौगुना उन्नति करने लगी। रामभरोसे हर दिन गोपाल का इंतजार करते हुए दुकान को रेस्टोरेंट में बदल दिया। मालिक की कुर्सी के ऊपर गोपाल की तस्वीर टंगी हुई रहती थी। रामभरोसे उसे भगवान का दर्जा दे रखा था। रोज गोपाल को प्रणाम कर उसका प्रतिनिधि के रूप में ही काम को  सम्भालता था। वह गोपाल के घर में भी रहने लगा था जिससे कोई और कब्जा न कर ले। गाँव के लोग भी इन बारह सालों में मान चुके थे कि अब गोपाल नहीं लौटेगा, लेकिन रामभरोसे की उम्मीद बनी रही।———-

एक दिन अचानक दुकान के अन्दर एक अजनवी को धड़ल्ले से घुसते हुए देखकर गेट पर ही रोकने की कोशिश की गयी ,लेकिन वह अजनवी अन्दर चला ही गया। बाहर मोटे अक्षरों में ‘गोपाल रेस्टोरेंट’ का नाम पढ़कर ही उसे विश्वास हो गया था कि यही दुकान बाबा की है। अन्दर सामने ही गोपाल की तस्वीर देख उसका विश्वास और पक्का हो गया। सीधे कांऊटर पर पहुँच कर पूछता है-


“आप रामभरोसे जी हैं?”

“हाँ, मैं ही हूँ, पर आप तो बाहर से आये लगते हैं। आपको कैसे पता मेरा नाम?”

मुन्ना किस आधार पर कहता कि मैं गोपाल का बेटा मुन्ना हूँ। क्या कोई भरोसा कर पायेगा? सभी मुझे लालची और ठग ही समझेंगे।अतः वहीं पड़े कार्ड को देखकर बोला कि-

” इस कार्ड पर लिखा है।”

फिर उस तस्वीर की तरफ इशारा कर पूछता है कि-

” क्या ये आपके पिता जी है?”

“नहीं, माता-पिता को तो मैंने देखा ही नहीं। ये मेरे भगवान हैं।”

सुनकर मुन्ना की आत्मा तृप्त हो गयी।

रामभरोसे दुकान खोलने के बाद पहले गोपाल की तस्वीर को प्रणाम करता था तब वह काम शुरू करता था।

बालिक होने के बाद मुन्ना को अनाथालय छोड़ना पड़ा। उसे अपने गाँव का नाम याद था और वह लोगों की मदद से किसी तरह गाँव लौट आया। गाँव अब शहर में बदल चुका था। पहचानना मुश्किल था। तभी उसे ‘गोपाल रेस्टोरेंट ‘पर नजर पड़ी और वह अपने गंतव्य तक पहुँच गया।

अब मुन्ना उसी रेस्टोरेंट में काम करने का फैसला लिया और वक्त का इंतजार करने लगा। वह हफ्तों रामभरोसे के इर्द-गिर्द घूमता रहा और धीरे-धीरे रामभरोसे के नजदीक जाने की कोशिश करता रहा। रामभरोसे को भी उसमें अपना बचपन नजर आया और वह उसे गोपाल के रेस्टोरेंट में नौकर रख लिया। मुन्ना को वहाँ अपने बाबा की छत्र-छाया का एहसास होने लगा। उसे हिम्मत ही नहीं हुई कि वह बता सके कि वह गोपाल का बेटा मुन्ना है। रामभरोसे की ईमानदारी और लगन को देखकर वह उसे बड़ा भाई  मान चुका था। आज भी वह अपने को गोपाल का प्रतिनिधि ही मान रहा था। धीरे-धीरे दुकान के प्रति समर्पण का भाव देखकर रामभरोसे उसे नौकर से मैनेजर बना दिया। मुन्ना अब अपने ही घर में जो अब  रामभरोसे का था, एक कमरा लेकर रहने लगा। रामभरोसे की सच्चाई को देखकर मुन्ना इस राज को राज ही रहने देने का फैसला लिया, क्योंकि वह रामभरोसे को मेहनत और  सच्चाई का उपहार देना चाहता था।

सच्चाई जानने पर रामभरोसे कभी भी मालिक की कुर्सी पर नहीं बैठेगा।

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