“अपराजिता – पुष्पा पाण्डेय

“क्या मेरी बेटी का थोड़ा ख्याल रखियेगा?मुझे घर से कुछ सामान लेकर आना है।”

“हाँ, हाँ। जाइये ।मैं ख्याल रखूँगी।”

मेरा बेटा बीमार था ।अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।दो बिस्तर वाले कैबिन में  जगह मिली थी।दूसरे बिस्तर पर उस अजनबी महिला की बेटी थी।

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एक साथ रहना था।मैं उससे जान-पहचान बढ़ाने लगी।उसे हमेशा अकेले ही देखा।जब भी उसे घर से कुछ सामान लाना होता था तो वो बेटी को मेरी ही निगरानी में छोड़ कर जाती थी।सौम्य व्यक्तित्व वाली महिला साधारण वेश-भूषा में भी काफी आकर्षक लग रही थी।माथे पर छोटी-सी बिन्दी,गले में पतली चेन,कानों में छोटे बूँदें और हाथों में एक-एक कड़ा।मुख से झड़ते मीठे बोल किसी को भी प्रभावित करने में सक्षम थे।

“आप अकेली हैं?”

“हाँ ,अकेली हूँ ।”


“इसके पापा नहीं हैं?”

“नहीं “

“कहाँ गये?दौरे पर गये हैं क्या?”

“हाँ “

“एक ही बच्चा है आपको?”

“हाँ “

मैं सोचने लगी सिर्फ़ हाँ में जवाब देती है।आगे कुछ बोलती ही नहीं है।आखिर मैं कितना सवाल करती?

पता नहीं क्यों, मुझे उसकी पारिवारिक जिन्दगी में  दिलचस्पी होने लगी थी।खैर——-

कई बार जरूरत की चीजें मैं अपने पति से मंगवा भी देती थी।लेकिन वह स्वयं नहीं बोलती थी।

बेटी ने दोपहर में नारंगी का रस पीने की फरमाइश की।मुझे बोल कर गयी।बच्ची काॅमिक्स  पढ़ रही थी।मैं उससे बातें  करने लगी—

“”बेटा,तुम्हें काॅमिक्स पसंद है?”

“हाँ आँटी।मम्मी हर महीने खरीद कर लाती है।”

“तुम्हारे पापा कहाँ गये है?”

“मेरे पापा भगवान जी के पास चले गये। मम्मी नौकरी करती है।”

सुनकर मैं निःशब्द हो गयी।उस महिला को मैने अनजाने में कितनी तकलीफ दी,सोचकर सिहर गयी।आत्मग्लानि से भर उठी।नजरें मिलाने की हिम्मत नही हो रही थी।

लेकिन उसने ऐसा क्यों कहा—–

तभी वह नर्स के साथ हाथों  में छुट्टी का पेपर लेकर आयी और अपना सामान समेटने लगी।

“आप पोस्टआॅफिस के पास रहतीं हैं न?”

मैंने हाँ में सिर हिला दिया।

“मैं आपको जानती हूँ, लेकिन आप मुझे नहीं जानती हैं ।आपलोगों ने मेरी बहुत मदद की।धन्यवाद ।फिर कभी मुलाकात होगी तो विस्तार से बातें होंगी ।”और कमरे से बाहर निकल गयी।मेरे मुँह से तो शब्द ही नहीं निकल रहे थे ,सिर्फ हाथ जोड़ कर खड़ी रही।एक और प्रश्न डाल दी मेरे दिमाग में।वो कैसे मुझे जानती है?

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कुछ दिन बाद ही काॅफी हाउस में मुलाकात हो गयी।वही सौम्यता, वही सरलता और आत्मविश्वास से परिपूर्ण ।स्वयं आकर नमस्ते की और अनुमति लेकर वहीं बैठ गयी।अभी भी मेरे अन्दर ग्लानि थी।मैं समझ नहीं रही थी कि बात कहाँ से शुरू करूँ?उसने स्वयं ही बात आगे बढ़ायी।


“आपका बड़ा बेटा और मेरी बेटी एक ही स्कूल में पढ़ते हैं ।मैंने आपको स्कूल में एक-दो बार देखा है।”

“अच्छा, इसीलिए आपने कहा था कि आप मुझे जानती हैं।”

“हाँ “

फिर खामोशी ।

इस बार खामोशी मैं ने तोड़ी।

“देखिए मुझे माफ कर दीजियेगा ।उस दिन मैंने आपको बहुत आहत किया।”

“अरे नहीं ।चलते समय मैंने आपकी आँखों में पश्चाताप के भाव देखे थे,लेकिन उस समय कुछ भी कहने का माहौल नहीं था।”

“फिर भी आपको खराब तो लगा होगा?”

“अरे नहीं।इसमें गलती आपकी नहीं है।दो महीने की बेटी थी तभी इसके पापा कारखाने में एक दुर्घटना के शिकार हो गये थे।मुआवजा के तौर पर नौकरी मिल रही थी,लेकिन मेरे पास स्नातक की उपाधि नहीं थी।शादी हो गयी और मैं परीक्षा नहीं दे पायी।देवर ने नौकरी लेने की इच्छा जाहिर की।मुझे जीवन भर दूसरे के भरोसे बेटी की परवरिश करनी पड़ती ।मैंने कम्पनी से समय और इसी घर में रहने की अनुमति मांगी।दो महीने की बेटी के साथ परीक्षा की तैयारी करने लगी।सफेद साड़ी की जगह हल्की रंगीन साड़ी और हल्के जेवर पहनने लगी।मैं नहीं समझती हूँ कि सफेद साड़ी में ही पति का प्यार दर्शाया जा सकता है।ये तो दिल का रिश्ता है।मैने बहुत कुछ सहा और सुना है।मैं नहीँ चाहती कि कोई मुझे ‘बेचारी’ कहे।अब मुझे बेटी को भी आत्मसम्मान के साथ जीना सिखाना है।”

काॅफी की घूँट के साथ मुस्कुराने लगी।”

“मैंने आपका नाम तो पूँछा ही नहीं ।”

“अपराजिता “

“आपने अपने नाम को सार्थक बना दिया।सचमुच आप अपराजिता हैं ।”

“उस दिन मैंने आपको कुछ नहीं बताया ,क्योंकि आप जो भी मदद करती ये सोचकर कि बेचारी अकेली है।लेकिन चलते समय मैंने आपकी आँखों में मुझे जानने की चाहत देखी थी

। और आज आपकी चाहत पूरी कर दी।”

तभी उसकी बेटी मचलती हुयी आई।

“मम्मी, घर चलो न——“

और वह उठ कर चल पड़ी ।

तब-तक मेरे पति भी आॅफिस से सीधे वहीं आ गये।वहाँ से माॅल जाने का कार्यक्रम था।माॅल में घूमती रही लेकिन मन तो अपराजिता के इर्द-गिर्द घूम रहा था।

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