बिना सास के – विभा गुप्ता   : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi:   ” बाप रे देविका….आजकल की लड़कियों के तो नखरे भी गज़ब के हैं।कहतीं हैं कि हमें पति बिना माँ वाला चाहिये।अरे वाह! माँ अपने बेटे के साथ नहीं रहेगी तो और कहाँ रहेगी…।” सुमित्रा जी पानी पीती हुई अपनी सहेली को बता रही थी।

     सुमित्रा जी को ईश्वर की कृपा से दो संतानों की प्राप्ति हुई थी। एक बेटी संध्या जिसका विवाह उन्होंने दो साल पहले ही कर दिया था और एक बेटा सुमित जो एक प्राइवेट कंपनी में इंजीनियर था, उसी के विवाह के लिये वे भाग-दौड़ कर रहीं थी।उनका बेटा देखने में हैंडसम था, सैलेरी भी अच्छी थी और इनकी भी कोई डिमांड नहीं थी क्योंकि पति ने एक बड़ा-हवादार घर उनके लिये बनवा दिया था।ऊँचे पद पर रिटायर हुए थें तो पेंशन भी अच्छी मिलती थी।दो साल पहले उनकी मृत्यु हो गई, फिर भी आधी पेंशन तो इनके हाथ में आती ही थी।बेटी को ससुराल भेजने के बाद उनकी बस यही एक इच्छा थी कि बेटे का घर बस जाये…एक अच्छी-सी बहू आ जाये और पोते-पोतियों से उनकी गोद भर जाये।

       परन्तु समस्या यह थी कि सुमित्रा जी जिस भी लड़की से बात करती तो लड़की सबसे पहले यही कहती कि यदि लड़के के साथ उसकी माँ रहेगी तो मैं शादी नहीं करूँगी।इस समय भी वे राशि नाम की साॅफ़्टवेयर इंजीनियर लड़की और उसके परिवार से मिलकर आ रहीं थी।नौकरी वाली बहू आयेगी…यह सोचकर जब वे मिली तो उसने साफ़ कह दिया कि आप साथ रहेंगी तो फिर यह शादी कतई संभव नहीं।

        सुनकर सुमित्रा जी को बहुत गुस्सा आया था परन्तु उस वक्त चुप रहीं और अब अपनी सहेली के आगे पूरा भड़ास निकाल रही थी।

    सहेली चुपचाप उनकी बात सुनती रही, फिर बोली, ” सुमित्रा…तुमको याद है, जब संध्या के विवाह के लिए लड़के वाले तुमसे मिलने आते थें तो तुम क्या कहती थीं?”

” हाँ-हाँ..अच्छी तरह से याद है।मैंने तो साफ़ कह दिया था कि जिस घर में लड़के की माँ रहेगी..उस लड़के से संध्या की शादी हर्गिज़ नहीं करूँगी।ये सास-वास का टंटा कौन रखे…मेरी संध्या तो आज़ाद ख्यालों वाली है।” सुमित्रा जी ने ऐंठकर कहा।

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” और जब संध्या के लिये तुम्हारी पसंद का लड़का नहीं मिला तब तुमने क्या किया था?”

” मैंने…हा- हा-हा…।” सुमित्रा जी हँसने लगी, फिर बोली,” देविका…..मजबूरन मुझे ऐसे लड़के के साथ संध्या का विवाह कराना पड़ा जिसकी माताजी भी उसके साथ रहती थी।लेकिन देविका…मैं भी कम नहीं।ऐसा चक्कर चलाया कि माताजी वृद्धाश्रम और मेरी संध्या स्वतंत्र….।” अपने दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए सुमित्रा जी बोली।

 ” स्वतंत्र …,सुमित्रा…, ऐसी ही स्वतंत्रता तो बाकी लड़कियाँ भी चाहतीं हैं तो तुम क्रोध क्यों कर रही हो।”

 ” क्या मतलब?” सुमित्रा जी स्वर तीखा हो गया।

देविका जी मुस्कुराते हुए बोली,” सीधी-सी बात है।जब तुम्हें अपनी बेटी के लिये बिना सास वाला घर चाहिये…बिना माँ का बेटा चाहिये तो दूसरी लड़कियाँ भी सास शब्द को अपने साथ भला क्यों जोड़ेगी।उनकी मम्मियाँ भी तो अपनी बेटी को स्वतंत्रता देना चाहेंगी।तुमने अभी-अभी तो कहा कि माँ बेटे के साथ नहीं रहेगी तो कहाँ रहेगी। यही बात अगर तुम अपने दामाद और समधन के लिये सोचती तो शायद…., लो चाय पियो…।”  चाय का कप थमाते हुए देविका जी बोली।

” हाँ…तुम ठीक कहती हो।आज मुझ पर बीत रही है तो मुझे संध्या की सास के दुख का एहसास हो रहा है।खैर..अभी भी देर नहीं हुई है…मैं अभी जाकर सब ठीक कर देती हूँ।संध्या की सास से माफ़ी माँगकर उन्हें आदर सहित घर लेकर आती हूँ।जो पाप अनजाने में मुझसे हो गया है…उसका प्रायश्चित तो करना ही है..।” सुमित्रा जी ने चाय का कप मेज़ पर रखा और बाहर निकल गई।

                                    विभा गुप्ता

                                     स्वरचित

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