बेसहारा –  मुकुन्द लाल

सुदेश के पिताजी की मृत्यु दो दसक पहले गंभीर बीमारी की चपेट में पड़ने के बाद उचित इलाज नहीं होने के कारण हो गई थी।

 अक्सर गरीब के घर में गंभीर बीमारी के आगमन का अर्थ साक्षात वहांँ यमदूत का पदार्पण ही होता है। कुछ इसी तरह की बातें प्राइवेट फर्म में काम करने वाले उसके पिताजी के साथ उस समय हुई थी।

 उसके पिताजी की मौत उस वक्त परिवार पर आसमान से गिरने वाली बिजली की तरह साबित हुई थी।

 उसकी पत्नी गोमति को तीन बच्चों का परवरिश करना कठिनाइयों से भरा था। सुदेश उस समय तीनों बच्चों में सबसे बड़ा और समझदार था। उसका  भाई नीलेश और बहन मीना छोटे थे। सुदेश की मांँ गोमति अंदर से टूट गई थी, बिखर गई थी। अपने पति की मृत्यु के आघात से उसका अंतस्तल हाहाकार कर रहा था। उसकी आंँखें बात-बात पर बरसने लगती थी।

 नीलेश और मीना का नाम स्कूल में फीस नहीं चुकाने के कारण कट गया था। उसके युनिफार्म भी फट गए थे। भरपेट खाना और जरूरी वस्तुओं के लिए परिवार तरसने लगा था। किसी तरह की आय नहीं थी। श्राद्धकर्म संपन्न होने के उपरांत बची हुई राशि से ही घर का खर्च चल रहा था, वह भी समाप्ति के कगार पर पहुंँच गई थी।

 उसकी मांँ, छोटा भाई और छोटी बहन उदास-उदास से रहने लगे। सुदेश भी अपने पिता की मृत्यु के बाद अपने को बेसहारा महसूस कर रहा था। अवसाद व क्षोभ से उसका अंतर्मन व्यथित रहता था फिर भी अपने परिवार के सामने प्रकट नहीं होने देता था। अपनी माँ से छुप-छुपकर रो लेता था रात्रि में बिस्तर पर, अपने मन को हल्का कर लेता था।

 एक रात उसी क्रम में उसकी आत्मा से आवाज आई, ” ऐसा कब तक करते रहोगे!.. कभी सोचा है तुमने? तुम घर के सबसे बड़े पुत्र हो, इस परिवार का क्या होगा?.. इस कुनबे की जिम्मेदारी उठाना तो तुम्हारा फर्ज बनता है। हिम्मत से काम लो, जो होना था सो हो गया।”


 आत्मा की आवाज़ से उसे हिम्मत मिली। उसने अपने हृदय में उठते दुखों को नज़रअंदाज कर दिया और घर की पूरी जिम्मेवारी अपने कंधों पर उठाने के लिए कमर कस लिया।

 सर्वप्रथम वह अपनी माँ, छोटे भाई और बहन के पास पहुंँचकर उनलोगों को सांत्वना दिया यह कहकर कि’हम हैं न’ तुमलोगों के सारे कष्टों को दूर करूँगा, घबराओ नहीं।

 उसने अपनी माँ से कहा, ” तुम्हारा बेटा, घर-गृहस्थी संभाल लेगा, मांँ तुम्हारा सिर्फ आशीर्वाद रहना चाहिए… ईश्वर का एक नाम दीनबंधु भी है माँ, तुम चिन्ता मत करो, वह हमारी बिगङी अवश्य बना देगा। उसकी नजरों से कुछ भी छुपा हुआ नहीं है, वह सब देख रहा है” कहते-कहते उसकी आँखें छलछला आई, जिसको उसने सिर घुमाकर तेजी से रुमाल से पोंछ लिया।

 अपने परिवार के दायित्व को अपने कंधों पर उठा लेने के संकल्प से गोमति को हिम्मत महसूस होने लगी।

 समय के एक-एक पल को व्यर्थ में गंवाना सुदेश के उसूल के खिलाफ था।

 पहले उसने नीलेश और मीना की स्थगित पढ़ाई को प्रारंभ करवाया आंशिक रूप से बकाये फीस का भुगतान करके प्रधानाध्यापक से अपनी परिस्थितियों का वास्ता देकर।

 उसने अपने काॅलेज की पढ़ाई के साथ-साथ पार्ट टाइम जाॅब करना शुरू कर दिया। इसके अलावा छुट्टियों में छोटा-मोटा धंधा करके भी पैसा उपार्जन कर लिया करता था।

 सुबह टिफिन लेकर जो वह निकलता रात दस-ग्यारह बजे तक वह घर लौटता था।

 संघर्ष और कठिन परिश्रम के बल पर वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। इंटर की परीक्षा उसने पास कर ली।

 अधिक मेहनत मशक्कत करता देखकर गोमति को रहा नहीं गया, उसने भी कोई काम करके कुछ आमदनी करने की इच्छा जताई थी किन्तु किसी कीमत पर सुदेश राजी नहीं हुआ इसके लिए।

 उम्र ढलने के साथ गोमति को घर-आंगन और रसोई-घर का काम करना असंभव सा प्रतीत होने लगा था तो बगल के गांव की एक विधवा की सुशील लड़की प्रभा से उसकी मांँ ने सादगी के साथ सुदेश की शादी करवा दी जाति-बिरादरी के गणमान्य लोगों का सहयोग लेकर। ऐसी स्थिति में सुदेश को भी कुछ कहते नहीं बना।

 बहुत दिनों के बाद बड़े बेटे की शादी के उपरांत घर में खुशियों का पदार्पण हुआ था। गंभीर रहने वाले सुदेश के चेहरे पर हर्ष की लकीरें उभर आई थी। घर का माहौल उमंग-उत्साह से सराबोर रहने लगा। नीलेश और मीना भी किशोरावस्था की दहलीज पार करके सुंदर व्यक्तित्व के धनी युवक और युवती की अवस्था में पहुंँच गये थे। लेकिन यह खुशी अधिक दिनों तक नहीं रही, जैसे पूनम के चांँद को ग्रहण लगता है उसी प्रकार गोमति अचानक चक्कर आने के कारण बाथरूम में सिर के बल गिर पड़ी और बेहोश जो हुई, फिर उसे होश नहीं आया। सुदेश उसे लेकर हौस्पीटल की ओर रवाना हुआ किन्तु रास्ते में ही उसका प्राणांत हो गया।


            मांँ के गुजर जाने के बाद सुदेश की जिम्मेवारी बढ़ गई थी, किन्तु खुशी की बात यह हुई कि उसकी नौकरी नगर निगम में हाउस टैक्स कलेक्टर के पद पर हो गई।

 उसके भाई-बहन की पढ़ाई-लिखाई अच्छी तरह से होने लगी। उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने में उसको आंतरिक आनंद की अनुभूति होती थी।

 उसके मेहनत, संघर्ष और विकास हेतु निर्धारित नीतियों ने रंग लाया।

 नीलेश की गिनती मोहल्ले में मेधावी विद्यार्थी के रूप में होती थी। वह विज्ञान स्नातक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ।

 सुदेश ने उसे अपनी पढ़ाई आगे जारी रखने की सलाह दी किन्तु उसने कहा, ” नहीं भैया!… मैं अब आगे नहीं पढ़ूंँगा, बचपन से देखता आ रहा हूँ, आपकी कर्तव्यनिष्ठता और परिवार के प्रति समर्पण। आपका और भाभी का मैं ऋणी हूंँ.. आपने जो किया है, हमलोगों के लिए उसका कर्ज इस जन्म में क्या, शायद अगले जन्म में भी नहीं चुका सकूँगा। मैंने कई पदों पर नियुक्ति के लिए आवेदन दिया है। मुझे पूरा विश्वास है कि ईश्वर की कृपा से कहीं न कहीं मेरी नियुक्ति हो ही जाएगी।

              नीलेश को बैंक में पी. ओ. की नौकरी मिल गई।

 इस शुभ अवसर पर उसने अपने बड़े भाई और भाभी का चरणस्पर्श किया। भाई और भाभी ने जिन्दगी में तरक्की करने का आशीर्वाद दिया, फिर उनको अपने हाथों से मिठाई खिलाया और मिठाई के पैकेट को वहीं पर खड़ी मीना को दे दिया।

 इस अवसर पर उसकी आंँखें खुशी से भींग आई, उसने रूंधे हुए गले से कहा, ” आज मैं जो कुछ हूंँ, वह आपकी बदौलत हूँ, पिताजी तो दसकों पहले इस दुनिया से गुजर गये थे परन्तु आपने स्वयं दुख- तकलीफ झेलकर पिताजी की तरह अपना फर्ज निभाया, भैया!… आप पिता ही जैसे हो!

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