बड़ा भाई पिता के समान होता है – अरुण कुमार अविनाश

” मैडम, छः माह की फीस बाकी है – बच्चों के हाथ कई बार नोटिस भेजा पर –।”

नलिनी हताश-सी फीस क्लर्क की ओर उम्मीद से देखी।

” मेरे बस में कुछ नहीं मैडम – आप प्रिंसिपल मेम के पास जाइये।”– नलिनी के चेहरें पर वेदना के भाव देख कर फीस क्लर्क पिघला।

आखिरी कोशिश के तहत नलिनी प्रिंसिपल के कमरे में गयी। विनीत स्वर में अपनी समस्या बतायी – बोलते-बोलते उसकी आँखें भर आयी थी।

प्रिंसिपल ने बच्चों का नाम पढ़ा तो उसे कुछ ध्यान आया – “आप दस मिनट तक रिसेप्शन में वेट कीजिये – मैं मैनेजमेंट से बात करती हूँ – अगर कुछ किया जा सकता है तो ज़रूर किया जायेगा।”

नलिनी बाहर रिसेप्शन में जा कर बैठ गयी और अनमने मन से स्कूल मेग्जीन के पन्ने पलटने लगी।

प्रिंसिपल ने नगर निगम के बड़े बाबू गोविंदलाल जी के मोबाइल नम्बर पर रिंग किया और वस्तुस्थिति समझायी।

” संयोग से मैं पास में ही हूँ – मुश्किल से पाँच मिनट में आता हूँ।”

नलिनी ने घड़ी देखा दस के बजाय बीस मिनट हो रहें थे – क्या दिन आ गए थे उसके कि फीस जमा न करने के कारण – बच्चों को क्लास रूम में घुसने नहीं दिया जा रहा था – खैर तकदीर खराब हो तो कुछ भी हो सकता है – हो ही रहा है।

वह बुलावे की उम्मीद में प्रिंसिपल ऑफिस की ओर देखी तो बुरी तरह से चौकी – उसके जेठ गोविंदलाल जी चिक हटा कर अंदर प्रवेश कर रहें थे।

नलिनी का जी चाहा कि वह अंदर हो रही वार्तालाप को सुनें – पर ऐसा कर नहीं सकती थी – उसकी घृष्टता की सूचना एक मिनट के अंदर प्रिंसिपल तक पहुँच जाती।

गोविंद लालजी ने प्रिंसिपल को नमस्ते किया फिर बोले –”आपने मुझें सूचना दी इसके लिये धन्यवाद – आप स्वाइप मशीन मंगवाइये – मैं दोनों बच्चों की पूरे साल भर की फीस भर दूँगा।”


” जी।”

“अगर मुझें पहले पता चल गया होता तो ! नलिनी को आज यहाँ आने की नोबत ही नहीं आती।”

” मुझें अफसोस है।”

पाँच मिनट के बाद ही गोविंद लाल जी प्रिंसिपल के कमरें से बाहर निकले – नलिनी की निगाहें उन्हीं की प्रतीक्षा कर रही थी – नज़रें मिली तो नलिनी ने सर पर पल्लू ठीक किया और नजरें चुराने की कोशिश की।

गोविंद लाल जी संतुलित कदमों से नलिनी के पास आयें तो नलिनी भी सोफे पर बैठी न रह सकी, उठी और प्रणाम की मुद्रा में दोनों हाथ जुड़ गयें।

” दोनों बच्चों की फीस भर दी है – कल से स्कूल भेजें और कोई दिक्कत हो तो बतायें।”

” जी धन्यवाद।”

” हमनें कई बार मोबाइल पर बात करने की कोशिश की पर हर बार फोन बंद मिला – अगर दूसरा नम्बर —।”

” नम्बर वही है पर बहुत दिनों से रिचार्ज नहीं करवाया।”

” ओह !”

गोविंद लाल जी ने अपना बटुआ निकाला और बिना गिने पूरी रकम नलिनी को सौप दिया – “अभी मेरे पास इतने ही है, मोबाइल रिचार्ज करवा कर ज़रूरत बताइयेगा।”

नलिनी किंकर्तव्यविमूढ़-सी रह गयी और गोविंद जी उसकी नज़रों से दूर होते-होते अदृश्य हो गये।

फीस क्लर्क एक लिफाफे में डालकर रसीदें दे गया था – नलिनी ने रसीदें देखी और रकम गिना – लगभग साढ़े चार हज़ार रुपये थे।

नलिनी सस्पेंस से मरी जा रही थी – वह बिना अनुमति प्रिंसिपल के कमरें में घुस गयी।

” आपने मेरे जेठजी को फोन किया था ?”

” हाँ।”

” क्यों ?”

” एक बार मैं नगर पालिका के ऑफिस में मेरे निजी काम से गयी थी–वहीं चर्चा के दौरान गोविंद जी ने मुझें बताया था कि उनके भतीजा-भतीजी मेरे स्कूल में पढ़ते है और फिलहाल ननिहाल में रहते है – अगर किसी प्रकार की – कोई भी समस्या हो तो – उन्हें बताया जायें।”

” ओह !”

नलिनी ने और बात करना उचित नहीं समझा – वह धन्यवाद ज्ञापन कर स्कूल से बाहर निकल गयी। उसके कदम घर की तरफ बढ़ रहें थे और ज़ेहन अतीत के पन्ने पलट रहा था। लगभग बारह साल पहले नलिनी ने गोविंदलाल जी के छोटे भाई श्यामलाल के संग प्रेम विवाह किया था। अंतरजातीय विवाह था – दोनों पक्ष की ओर से विरोध हुआ था। श्यामलाल जिस स्थानीय कम्पनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था – नलिनी वहीं रिसेप्शनिस्ट थी। माता-पिता जीवित थे नहीं – इसलियें गोविंदजी ने ही उसकी शिक्षा का व्यय उठाया था – गोविंदजी छोटे भाई की अवज्ञा बर्दाश्त कर न सकें और क्रोध में कटु वचन उनके मुँह से निकल गया – नतीजा ये हुआ कि शादी के दो दिन के अंदर – घर का बंटवारा हो गया और दोनों भाईयों में बोलचाल बन्द हो गयी। अगले छः माह के अंदर एक मल्टीनेशनल कंपनी से श्यामलाल को बहुत ही अच्छी नोकरी का प्रस्ताव आया तो श्यामलाल नलिनी के साथ मुंबई शिफ्ट कर गया। मुम्बई में नलिनी को भी एक जगह चिट क्लर्क की नोकरी मिल गयी थी। दोनों का जीवन आनन्द से बीत रहा था – बाद में नलिनी ने दो बच्चों को जन्म दिया – पहले लड़के को – दो साल बाद लड़की को। श्यामलाल तरक्की पर तरक्की पाता हुआ कम्पनी का सेकेंड कमांड बन गया था – पद बड़ा हुआ तो शौक भी बड़े हो गये –श्यामलाल को टॉप कंडीशन में एक सेकेंड हैंड विदेशी कार पसंद आ गयी थी – पर पैसा नहीं था – बातचीत बन्द होने के बावजूद, उसने गोविंद जी को ऑफर दिया कि अगर वे चाहें तो सिर्फ दस लाख में वह अपने हिस्से का मकान उन्हें बेच सकता है –गोविंद जी को क्रोध तो बहुत आया पर उन्होंने मकान खरीदने में असमर्थता जतायी –उनके खुद के बच्चें अब बड़े हो गए थे और शिक्षा पर अत्यधिक व्यय होने के कारण – वे चाह कर भी दस लाख की व्यवस्था नहीं कर सकते थे। देखते ही देखते श्यामलाल एक दलाल के माध्यम से अपना हिस्सा – कमीशन काट कर साढ़े सात लाख में बेच दिया। दोनों भाईयों में कड़वाहट और बढ़ गयी। श्यामलाल कुछ हरकतें खामख्वाह भाई को चिढ़ाने के लिये भी करता था। नलिनी को जब बेटा हुआ था तब नलिनी अपने मायके के सभी लोगों को मुंबई बुलायी थी – माँ की जिद के कारण पिता बेमन से मुम्बई गये थे – पर नवासे को गोद में लेते ही सारी शिकायतें दूर हो गयी थी। बाद में नलिनी का मायके आना-जाना भी शुरू हो गया था। नलिनी के दो भाई थे उनकी तरफ से भी नलिनी और श्यामलाल को अभयदान मिल गया था। पर समय सदा एक जैसा नहीं रहता – तीन साल पहले उसी विदेशी कार से एक हादसा हुआ और श्यामलाल और उसके चार सहकर्मी एक साथ ठौर मारे गये। वे कम्पनी के काम से पुणे जा रहे थे – किसी ने साथ में एक बोतल रख ली थी – मूड बनाने के इरादें से थोड़ी-थोड़ी ले लेते है से शुरू हुआ कार्यक्रम–बोतल की समाप्ती पर ही पूर्ण हुआ – श्यामलाल दक्ष ड्राइवर था – पहले भी कई बार पी कर गाड़ी चलाता रहा था। हँसी-मजाक चुटकुले में सफर तय हो रहा था – तभी, पल भर के लिये श्यामलाल की पलकें मुंदी और पाँच घरों में अंधेरा छा गया। एक सौ बीस से ज़्यादा की रफ्तार में भाग रही कार एक ट्राले में घुस गई थीं । श्यामलाल की मौत के बाद नलिनी की दुनियां बदल गयी – पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मेदे में अल्कोहल पाये जाने के कारण और विदेशी गाड़ी के कागजात अपूर्ण होने के कारण इन्सुरेंस के पैसे भी नहीं मिले थे – कार की हालत ऐसी थी कि कबाड़ी के ही काम आती। श्यामलाल को मुखाग्नि उसके पुत्र ने दिया था – पर, बच्चें के कमउम्र होने के कारण क्रिया पर गोविंदजी को बैठना पड़ा था। उस समय भी गोविंदलाल जी ने कहा था कि कभी भी कोई ज़रूरत हो तो बताना। नलिनी का मुम्बई जैसे महँगे शहर में रहने का कोई औचित्य नहीं था। जैसी नोकरी वह मुम्बई में कर रही थी – वैसी तो अपने छोटे से शहर में भी कर लेती –वह अपने पिता के साथ मायके आ गयी – जब तक माता-पिता जीवित रहें तब तक नलिनी को कोई परेशानी नहीं हुई – वह मुंबई रिटर्न्स के हवाले से शहर में फिर से नोकरी पाने में कामयाब हो गयी थी – बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवा चुकी थी। पर साल भर पहले कोरोना की चपेट में आकर सात दिन के अंतराल में माता-पिता दोनों गुज़र गये। एक महीनें के अंदर भाइयों का फरमान मिला कि खाने-पीने बिजली पानी जैसे ज़रूरी खर्चो के लिये कंट्रीब्यूशन करनी होगी – नलिनी ने वह भी किया – पति की मौत के बाद जो फंड मिलें थे वह छोटे-बड़े खर्चो में पहले ही निपट गये थे। जेवर उसके पास वैसे भी न के बराबर था – भगोड़ी शादी में ज़ेवर की कल्पना ही हास्यपद था। अब ऐसी स्थिति थी कि वेतन वाले दिन ही भाभियां लगभग पूरा वेतन झपट लेती थी। नलिनी समझ रही थी – धीरे-धीरे उसे घर से बाहर करने की मुहिम चल रही थी।


नलिनी की हालत देख कर गोविंद लाल जी ह्रदय द्रवित हो गया था। कार्यालय जाने की इच्छा न हुई तो वे व्हाट्सएप पर छुट्टी का आवेदन भेज कर घर लौट आये।

” क्या हुआ ?” – पत्नी सुषमा देवी हैरान हो कर पूछी।

गोविंद लाल जी ने पूरा वाक्या कह सुनाया।

” फिर बेवकूफ बन रहे हो , याद है अपने संघर्ष के दिन , तीनों बच्चों को कितनी मुश्किल से पढ़ा लिखा कर किसी काबिल बनाया है हमनें – हम अपने बच्चों की फीस नहीं भर पा रहें थे और उन्हें लग्ज़री कार चाहिए था ।”

” सुषमा, ईश्वर सब देखता है । देख लो तुम्हारें तीनों बच्चें आज प्रशासनिक अधिकारी है – बिका हुआ मकान का हिस्सा भी बच्चों ने न्यायोचित भाव में खरीद लिया है।”

” मैं कुछ नहीं जानती – कुछ भी करने से पहले बच्चों से बात करों – जो वे कहेंगे वही मुझें भी मान्य होगा।”

गोविंद जी ने बड़े बेटे को फोन किया – उधर से फोन उठाते ही बोले – “भाई-बहन को कॉन्फ्रेंस में लो – जब सभी कनेक्ट हो गये तो गोविंदजी ने आज की घटना के बारें में कहना शुरू किया – एक-एक बात बिस्तार से बतायी।

” पापा, सेंटिमेंटल होने की ज़रूरत नहीं है – वे भाई नहीं कसाई थे – दुश्मन थे दुश्मन ।” – बेटी का नाराज़ स्वर।

” अगर वह दुश्मन भी था – तो भी , उसकी मौत के बाद दुश्मनी खत्म हो गयी।”

“आप क्या चाहतें है ?” – बड़े बेटे का गम्भीर स्वर।

” मैं चाहता हूँ कि इन मासूम बच्चों को पाल लो – चचेरे भाई-बहन है तुम्हारें – कल को इनके साथ कुछ बुरा हो गया तो बदनामी अपने ही खानदान की होगी – जब तक मैं जिंदा हूँ तब तक मैं खुद इनकी मदद करूँगा – मेरे बाद —।”

” आपकी आज्ञा सर-माथे – मैं अगले महीनें से – बल्कि इसी महीनें से पापा के एकाउंट में हर महीनें दस हज़ार डाल रहा हूँ।”– बड़े बेटे ने कहा।

” दस हज़ार मैं भी डाल दूँगा।”– छोटे बेटे ने कहा।

” वो तो मैं भी डाल दूँगी।” – समझूँगी कि गाय को रोटी खिलायी – कुत्ते को छेछडे फेंके – अनाथालय में दान किया।”– बेटी का नाराज़ स्वर।

” नाराज़ मत हो पगली – बेशक दान मत करना पर नाराज़ मत होना।”– कह कर गोविंद लाल जी ने फोन बंद किया और सुषमा देवी की ओर देखें – “अब क्या कहती हो ?”

” वही जो तुम सुनना चाहते हो – सास-ससुर की मौत के बाद – श्यामू को मैंने बेटे की तरह ही पाला था – पर खैर – ज़रा फोन देना।”

सुषमा देवी ने फोन लिया – नम्बर सर्च कर नलिनी को फोन लगाया।

” प्रणाम भईया ।” नम्बर फ्लैश होते ही नलिनी का आतुर स्वर।

” मैं बोल रही हूँ।” सुषमा देवी का गम्भीर स्वर।

” जी — जी, प्रणाम दीदी।”

“अभी ग्यारह बजने वालें है –मैं यहाँ दो कमरें तुम्हारें लिये ठीक कर रही हूँ –ठीक पांच बजे मैं तुम्हें लेने आऊँगी – इन छः घण्टों में अपना सामान पैक कर लेना –आते समय मैं लोडिंग रिक्शा ले कर आऊँगी।”

” सामान के नाम पर हमारे पास है ही क्या ? – थोड़े पहनने के कपड़े है – कुछ बच्चों की किताबें है। हमनें हमारा सामान तो मुम्बई में ही बेच दिया था ।” – कहते-कहते नलिनी की आँखे भर आयी।

” कोई बात नहीं, फिर मैं ऑटो रिक्शा ले कर आऊँगी।” –कह कर सुषमा देवी ने फोन काट दिया।

नलिनी के ओठों से एक चित्कार-सी निकली फिर वह हिचकियां ले-ले कर रोने लगी। दिमाग में एक ही ख्याल आया कि हमनें सदा इन लोगों का बुरा चाहा – पर ये —!

हमारे बुजुर्ग बहुत ही तजुर्बेकार दानिशमंद लोग थे – बुज़ुर्गो ने ऐसे ही थोड़े ही कह दिया था कि – ‘ बड़ा भाई पिता के समान होता है।

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!