बेमेल (भाग 23) – श्वेत कुमार सिन्हा : Moral Stories in Hindi

.विनयधर की अनुपस्थिति में सुलोचना की सास उससे ऐसा बर्ताव करती मानो जन्म-जन्मांतर से उसकी दुश्मन हो।

एकदिन अपना कामधाम निपटाकर सुलोचना कमरे में बैठी कपड़े सिल रही थी। विनयधर भी कपड़ो की फेरी लगाने गांव की तरफ निकला हुआ था। तभी दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई। कपड़े को एक किनारे रख सुलोचना ने बाहर जाकर दरवाजा खोला तो मुहल्ले की कुछ उम्रदराज औरतें सामने खड़ी दिखी। ये सब उसकी सास की सहेलियां थी जो उससे मिलने आयी थी, और जिनके पास अपनी बहुओं की शिकायत के अलावा बात करने को और कुछ न होता था।

“चाची जी नमस्ते! कैसी हैं आपसब? बहुत दिनों बाद आना हुआ!”- हाथ जोड़ मुस्कुराकर सबका अभिवादन करते हुए सुलोचना ने कहा और साड़ी के पल्लू को अपने सिर पर डाला।

“हाँ री, बहुत दिन हो गए थे तो सोचा तेरी सास और तुम सबकी खबर ले लूं चलकर!”- दरवाजे पर खड़ी एक वृद्ध औरत बोली।

“हाँ हाँ, बिल्कुल सही किया आपने! आइए, मां जी भीतर कमरे में ही बैठी हैं!”- कहकर सुलोचना ने अपनी सास को आवाज लगाया।

“क्यूं आसमान सिर पर उठा रही है तू? कौन सा पहाड़ टूट पड़ा!!” – भीतर कमरे से बड़बड़ाती हुई सास आभा निकलकर बाहर आयी तो देखा उसकी सहेलियां दरवाजे पर खड़ी सुलोचना के साथ बात कर रही है।

“ओह…तुम सब हो, आओ आओ! बहुत दिनों बाद आना हुआ!” – सास आभा ने मुस्कुराकर मेहमानों का स्वागत करते हुए कहा फिर सुलोचना की तरफ आंखे तरेरकर बोली – “तू भी न सुलोचना…बता नहीं सकती कि ये सब आयी हैं!! लगता है तेरी अकल घास चरने चली गई है!” कहकर सबको साथ लिए आभा अपने कमरे में चली गयी। सुलोचना भी अपने कमरे में आकर कपड़े सिलने में व्यस्त हो गई।

“क्यूं री आभा, विनयधर के ब्याह हुए तो काफी दिन हो गए! पोते-पोतियों के आने की खुशखबरी कब दे रही है? देख, मेरे बेटे की शादी पिछले साल ही हुई थी और एक साल के भीतर ही बहू ने पोते से मेरा गोद हरा-भरा दिया। इसे कहते हैं घर की असली लक्ष्मी, जो घर का वंश बढ़ाए!” – सास आभा के कमरे से उसकी सहेली की आवाज आयी और चाहते हुए भी सुलोचना उसे अनसुना न कर सकी।

“क्या कहूं सहेली! मेरे घर में बहू नहीं किसी मनहूस ने क़दम रखा है! जबसे आयी है सबकुछ बुरा बुरा ही हो रहा है। पता नहीं, पोते का मुंह देखना मेरे नसीब में लिखा भी है या नहीं! एक बार तो सुलोचना पेट से थी। पर पांच महीने से ज्यादा गर्भ ठहरा ही नहीं! विनयधर ने कितना दवाई-दारू कराया। पर कोई फायदा नहीं हुआ! बहुत चिंता होती है! मेरा तो एक ही बेटा है! पता नहीं वंश चलाने वाला आएगा भी या नहीं!”- आभा ने कहा जिसे सुनकर अपने कमरे में बैठी सुलोचना का कलेजा छलनी हो रहा था।

“मुझे तो लगता है तेरी बहू में बच्चा जनने के गुण ही नहीं! जीवनभर वो निर्वंश ही रहेगी!” – आभा की सहेली ने अपनी भौवें चढ़ाकर कहा।

“अरी, तो क्या ये खानदान निर्वंश रहेगा!! तू विनयधर का दूसरा ब्याह क्यूं नहीं कर देती?”- कमरे में मौजुद दूसरी सहेली ने आभा से कहा।

“तूने तो मेरे मन की कह डाली! पर क्या विनयधर मानेगा मेरी बात? मेरा बस चले तो इस मनहूस के कान पकड़कर अभी घर से बाहर निकाल दूं! पर ये बहुत चालू औरत है। अपने पति पर जैसे कोई जादू-टोना करके रखा है! विनय इसके खिलाफ मेरी एक भी बात नहीं सुनता!”- सुलोचना की सास आभा ने कहा और उसके चेहरे पर मायूसी के भाव उभरे। 

विनयधर की दूसरी शादी की बात सुनकर सुलोचना का दिल बैठा जा रहा था। कपड़े सिलना छोड़कर वह फूट-फूटकर रोने लगी। हालांकि उसे अपने पति के प्रेम पर अटूट भरोसा था। पर अपने पति के दूसरे ब्याह की बात वह भला कैसे बर्दाश्त कर सकती थी। कमरे में ही लेटी वह काफी देर तक सुबकती रही और न जाने कब उसकी आंखें लग गई। उसे खबर भी न थी कि कई बार अपने कमरे से सास आभा ने उसे आवाज लगाया था।

शाम में जब विनयधर घर लौटा तो सुलोचना को कमरे में सोया पाया। आंसू उसके चेहरे पर ही सूख कर पपड़ी बन चुके थे। थोड़ा ताज्जूब भी हुआ क्युंकि आजतक उसने कभी भी इस समय सुलोचना को सोते हुए नहीं पाया था। उसे सोता छोड़ वह अपने कपड़े बदलने लगा। हालांकि पति की आहट पाकर सुलोचना की नींद खुल गई।

“आप कब आएं? मुझे उठाया क्यूं नहीं!! आप हाथ-मुंह धो लें! मैं खाने को कुछ लेकर आती हूँ!”- बिस्तर से उठकर सुलोचना ने कहा।

“तुम सोयी थी। इसिलिए तुम्हे जगाना ठीक नहीं समझा! क्या हुआ है? तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी?”- विनयधर ने चिंतित स्वर में पुछा। इससे पहले कि सुलोचना कुछ बोल पाती, कमरे में प्रवेश करते हुए सास ने शिकायतों के अम्बार लगा डाले। 

“सोयी थी?? या सोने का नाटक कर रही थी विनयधर!! जरा पुछ इससे! कितना आवाज लगायी, पर महारानी के कानों पर जू तक नहीं रेंगे! मेरी कुछ सहेलियां आज मुझसे मिलने आयी थी। इसकी मां ने इसे इतने संस्कार भी नहीं दिए कि घर आए मेहमानों से पानी तक के लिए पुछे! अरे वो तो छोड़ो, मेरे आवाज लगाने पर कोई जवाब तक नहीं दिया!”

“मां शांत हो जाओ! अगर इसने कोई जवाब नहीं दिया तो तुम खुद ले लेती! इसमें इतना शोरगुल करने की क्या जरुरत! अच्छा ठीक है, मैं इसे समझा दूंगा कि आगे से ध्यान रखे! इतना गुस्सा करोगी तो बीमार पड़ जाओगी। जाओ, अपने कमरे में जाकर आराम करो!” – विनयधर ने कहा और बड़बड़ाती हुई उसकी मां कमरे से बाहर चली गयी। सुलोचना की निगाहें विनयधर पर ही स्थिर थी।

“क्या हुआ सुलोचना? तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी?” – विनयधर ने पुछा तो सुलोचना के आंखों से आंसू झर-झरकर बहने लगे।

आगे बढ़कर विनयधर ने सुलोचना को बिठाया और उसके आंसू पोछे। सुलोचना अपने पति के सीने पर सिर रख सुबकती हुई बोली – “आप मुझे छोड़ तो नहीं दोगे न! कहीं मुझे भूलकर किसी और को तो नहीं ब्याह लाओगे?”

“क्या कभी मेरे बात-व्यवहार से तुम्हे ऐसा महसूस हुआ? आज अचानक से ऐसी बातें क्यूं कर रही हो?” –सुलोचना के सिर पर प्यार भरा हाथ फेरकर विनयधर ने उससे पुछा।

“मैं तुम्हे इस घर का वंश नहीं दे पा रही हूँ न! इस वजह से कहीं दूसरी तो नहीं ब्याह लाओगे? आज मां जी की सहेलियां उन्हे ऐसा करने का सलाह दे रही थी!”- सुलोचना ने सुबकते हुए कहा।

“अच्छा तो ये बात है! इसिलिए आज तुम इतनी  खोयी-खोयी सी लग रही हो!”- विनयधर ने कहा और सुलोचना के चेहरे को अपने आंखों के सामने लेकर आया।

“पति-पत्नी का रिश्ता क्या इतना छिछला होता है जो इतनी छोटी-छोटी बातों पर टूट जाए! अरे पागल, ये तो जन्म-जन्मांतर का बंधन है! एकबार बंध गया तो फिर कभी टूटता नहीं। मां क्या कहती है, तुम उसपर ज्यादा ध्यान मत दो! मेरी और उनकी विचारधारा में काफी अंतर है! पर वो मेरी मां है। इसलिए उन्हे किसी बातों पर नहीं टोकता। पर इसका ये मतलब कतई मत निकालना कि मैं उनकी हरेक बात से सहमत हूँ। मेरा यकीन मानो तुम मुझपर भरोसा कर सकती हो। चलो, अब मुझे भूख लगी है। कुछ खाने को लेकर आओ! …और तुमने खाना खाया कि नहीं या भूखे पेट ही सो गई थी।” – विनयधर ने कहा तो सुलोचना के चेहरे पर खोयी चमक वापस लौट आयी। भींगी पलकें लिए उसने हाँ में अपना सिर हिला दिया और कमरे से बाहर रसोई की तरफ बढ़ गई। विनयधर ने उसकी चिंता का निपटारा चुटकियों में कर डाला था।…

to be continued….

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Written by Shwet Kumar Sinha

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