बेहद सुंदर धरा – विजया डालमिया 

झील के किनारे बैठी धरा अपने ही ख्यालों में गुम थी। अचानक किसी की आहट से उसकी तंद्रा भंग हो गई। झील में उसे किसी की झलक दिखाई दी। एक साया धीरे-धीरे उसी की तरफ बढ़ रहा था। पर यह क्या….. वह उसे नजर-अंदाज करके आगे की ओर बढ़ चला। धीरे-धीरे वह झील के एकदम करीब पहुंच गया। ना जाने धरा को क्या हुआ वह जोर से कह उठी…” रुकिये… रुकिये… पर उस साए पर कोई असर नहीं हुआ। धरा को कुछ आशंका हुई और वह फटाफट खड़ी होकर उस तक जा पहुंची। उसने धरा को फिर से नजरअंदाज किया और पानी में उतरने लगा।….” यह क्या कर रहे हैं आप “?कहकर धरा ने उसका हाथ पकड़कर अपनी तरफ खींच लिया। वह एकदम से चौंक उठा। उसने धरा को देखा फिर झील को और कह उठा….” धन्यवाद “धरा को अटपटा सा लगा ,पर वह जिज्ञासु प्रवृत्ति की थी। उसने सवालिया नजरों से उसे देखा तो वह कहने लगा…” मेरा नाम धनुष   है । मैं मुंबई में रहता हूँ ।

पिछले 4 दिनों से मैं यहां हूँ ।…”अच्छा? …पर आप पानी में इस तरह क्यों…..? कहकर धरा ने अपनी नजरें उस पर टिका दी। उसने कहा…. “घबराइए मत। मैं कुछ गलत करने नहीं जा रहा था ।दरअसल मुझे नींद में चलने की बीमारी है। इसीलिए डॉक्टर ने मुझे हवा- पानी बदलने के लिए यहां भेजा है”। …ओह.. कहकर धरा ने तुरंत कहा ….”अब आप प्रकृति की गोद में आ गए हैं ।बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगे”। धनुष ने पहली बार ध्यान से धरा को देखा। दुबली-पतली ,मगर आत्मविश्वास से भरी हुई उसकी आँखें उसे जैसे नया भरोसा दिला गई। उसने उसकी आँखों में झांका और कहा…” सच”? धरा बिल्कुल भी नहीं सकपकाई। ना ही घबराई। उसने धनुष से नजरें मिलाई और कहा… “बिल्कुल ।फिर मैं भी हूँ ना यहां” कहकर वह मुस्कुराने लगी। धनुष को पहली बार कोई ऐसा मिला था जो उस में नया विश्वास जगा गया। उसने पूछा …”आपका नाम”?… “मैं धरा हूँ “।…”वाह, कितना सुंदर नाम” ।..अच्छा घर कहां है तुम्हारा”?… “यहीं झील के उस पार ।मुझे झील का शांत पानी बहुत लुभाता  है ।कई बार मेरे सवालों के जवाब मुझे यहीं मिल जाते हैं “।धनुष कुछ समझ नहीं पाया,फिर भी उसने कहा …”ओके”


धरा ने कहा ….”चलो, चलते हैं। कल फिर मिलेंगे,पर नींद में नही, जागते हुए चलकर आना होगा तुम्हें”। उसका यह अधिकार जताना धनुष को बहुत अच्छा लगा। धनुष एक बहुत बड़ा बिजनेसमैन था। उसके आगे पीछे चाटुकारों की लाइन लगी रहती थी। पर उसने किसी को यह अधिकार नहीं दिया कि कोई पर्सनली उससे कुछ बात कर सके। उसने खुद ही अपने आप को खामोशी के कमरे में बंद कर लिया था, जहां किसी का भी प्रवेश नितांत वर्जित था। यूं तो कहने को भरा पूरा परिवार था, पर सारे रिश्तो के मेले में वह अकेला था। सब उससे कुछ ना कुछ चाहते थे। उसे कोई नहीं चाहता था ।सबके लिए वह पैसा कमाने की और सुख-साधन जुटाने की एक मशीन बन कर रह गया था और उसकी जिंदगी भी मशीनी रफ्तार से गुजर रही थी। पर मशीन को भी तेल की जरूरत पड़ती है। वो  प्यार का तेल उसकी जिंदगी में था ही नहीं। आज धरा से मिलकर उसके दिल में एक चाहत जागी। खुशी की किरण आँखों में मुस्कान बनकर चमकने लगी । उसने धरा से कहा…” क्या तुम मुझे अपने घर ले चलोगी “?धरा ने कहा…” चलो”।

धरा जैसे ही चलने लगी उसकी पायल के घुंघरू किसी सुरीली धुन की तरह धनुष को लुभाने लगे । वह मंत्रमुग्ध सा उसके साथ -साथ चलने लगा। धरा किसी चंचल हिरनी की तरह लग रही थी उसे। अपनी ही धुन में हर फूल ,हर डाली, हर प्राणी से बतियाते आगे बढ़ते जा रही थी ।तभी बीच में एक मेमना उसे कराहते हुए नजर आया। वह दौड़कर उसके पास गई और उसे गोद में उठा लिया तथा प्यार से पुचकारते  हुए कहने लगी…” क्या हुआ? आज फिर चोट लग गई तुझे? …रुक …कह कर इधर-उधर देखा और तुरंत ही कुछ पौधों से पत्ते तोड़  लायी और उसे खिलाने लगी। धनुष उसकी एक-एक हरकत बड़े ध्यान से देख रहा था। तभी एक जगह जाकर वह रुक गई। आगे एक गड्ढा था ।उसने आव देखा न ताव ,वहीं से रेती उठाई और उसमे भरने लगी। यह देखकर धनुष ने पूछा …”यह सब क्यों कर रही हो”? तो उसने रेत भरते -भरते कहा …”वो क्या है ना कि जानवरों के बच्चे कई बार इस गड्ढे में गिर जाते हैं इसलिए”। धनुष ठगा सा खड़ा रह गया। सोचने लगा इंसान इंसानों  के बारे में नहीं सोचते और यह है कि जानवरों के बच्चों तक के बारे में…..। तभी धरा का घर आ गया। चारों तरफ हरियाली। रंग बिरंगे फूल।  एक तरफ आम ,जाम, जामुन ,पपीता के पेड़ लगे हुए थे तो दूसरी तरफ सब्जियों की बहार थी। हरियाली और रंगबिरंगी फुलवारी को देखकर धनुष जैसे अलग ही दुनिया में पहुंच गया। धरा ने आंगन में लगे झूले में उसे बैठने को कहा और गुनगुनाने लगी… झूला तो पड़ गए अंबुआ के बाग में जी “तभी आंगन में  लटकते पिंजरे  से आवाज आई….” धरा… धरा…। धरा ने कहा …आ रही हूँ” ।यह सारी बातें  धनुष के लिए एकदम नई निराली थी। मुंबई में उसका आलीशान बंगला था। नौकरौं की फौज थी। पर ये सब यह  उसे प्रकृति से जोड़कर बहुत सुकून दे रहा था ।


उसने धरा से कहा… “धरा तुम तो जादूगर हो “।….”मैं नहीं ।यह प्रकृति का जादू है धनुष। तुम कुछ दिन यहाँ रुकोगे ना तो तुम्हारे सारे प्रॉब्लम दूर हो जाएंगे”। कहते हुए उसने फटाफट उसे सत्तू का शरबत पकड़ा दिया ।…”अब यह क्या है”?… “पीकर तो देखो”। एक घूंट पीते ही धनुष खुद को रोक नहीं सका यह कहने से  कि …”इतना अच्छा शरबत मैंने आज तक नहीं पिया”। …बस तो अब कल से तुम्हारे खाने-पीने की पूरी जिम्मेदारी मेरी है” कहकर धरा खिलखिला उठी।… “पर तुम्हारे घरवाले”? कहकर धनुष ने जैसे ही उसे देखा वह  शांत हो गयी। दूसरे ही पल भाव  में  डूबकर कहने लगी …”आंगन में जो मिट्ठू है ना वह मेरे आते ही चहक कर मेरा स्वागत करता है। बाहर बैठा डॉगी दुम हिला कर अपनापन जताता है। यह पेड़ ,पौधे, खेत यह सब मेरे रिश्तेदार ही तो है और वह झील … मेरी माँ की तरह मुझे मेरे हर सवाल का जवाब दे देती है।…”ओह”कहकर  धनुष उठ खड़ा हुआ धरा से रोज मिलने का संकल्प लेकर। कुछ ही दिनों में गांव की शुद्ध हवा-पानी और शुद्ध खान-पान से धनुष की सेहत सुधरने लगी।

धरा की मेहनत रंग लाई ।धनुष के चेहरे की रंगत देखकर धरा बहुत खुश होती और कहती… “प्रकृति से जुड़कर हर कोई स्वस्थ हो जाता है। प्रकृति के जीवन -चक्र के साथ अगर हम नहीं चल पाते तो हमारा जीवन -चक्र बिगड़ जाता है। इसलिए हमें सदा प्रकृति का सम्मान करना चाहिए। धनुष के जाने के दिन करीब आ रहे थे। धनुष ने कहा…” धरा तुम चलो ना मेरे साथ। मेरा वहां कोई नहीं और यहां तुम भी तो अकेली हो”। धरा ने धनुष को देखा और कहने लगी…” यहां मैं मुक्त पंछी की तरह उड़ते रहती हूँ ।रंग-बिरंगे फूलों की आभा मेरे मन के आकाश को नए रंग से भर देती है। हर पेड़-पौधा बुजुर्गों की तरह मुझे याद दिला देता है कि कौन सा मौसम या त्यौहार आने को है। दिन निकलने की घोषणा घड़ी नहीं करती ,उजाला आकर बताता है कि सूरज निकल गया है। पक्षी मुंडेर पर चहककर मुझे गीत सुनाने लगते हैं। खेतों की फसल मेरी सहेली बन मुझे गले से लगा कर उमंग से भर देती है ।बारिश के बरसते पानी में संगीत और चमकती बिजली में फसलों की खनक मुझे सुनाई देती है। और वह जो झील है, मैं जब भी वहां जाती हूँ तो वह अपने पास बुलाने लगती है मुझे ।हमारे बीच आपस में जैसे संवाद होने लगता है ।अब बोलो, मैं अपने इस परिवार को छोड़कर कैसे चलूं तुम्हारे साथ “?धनुष ने आगे बढ़कर धरा को पहली बार गले से लगाया और कहा…” सच है इतनी सुंदर धरा और कोई नहीं। कहीं नहीं।

विजया डालमिया  

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