बहू, मैं यहां मुफ़्त का नहीं खाती हूं। – अर्चना खंडेलवाल : Moral Stories in Hindi

मम्मी जी, मेरे ऑफिस जाने का समय हो रहा है, आप यश को दूध पिला देना और कूकर में उसके लिए थोड़ी सी खिचड़ी चढ़ा देना, और हां यश दोपहर को जब सोकर उठे तो ओरेंज जूस भी बना देना, उसमें बर्फ मत डालना, नहीं तो गला पकड़ लेगा और नियति जब स्कूल से आयें तो बस स्टॉप पर जाते वक्त छतरी ले जाना मत भुलना, बहुत तेज धूप है, उसका बैग भी भारी है तो बैग आप ही उठाकर लाना, मै जा रही हूं मुझे देर हो रही है, उदय को लंच के साथ सलाद देना मत भुलना, वरना वो खाना नहीं खायेंगे।

अक्षिता अपनी सास भावना जी को रोज की तरह सारे दिशा निर्देश देकर ऑफिस के लिए चली गई। उन्होंने

अपने बेटे शोभित का लंच बॉक्स तैयार किया, साथ में दही , सलाद भी रख दिया फिर उसे नाश्ता देकर वो खुद भी पूजा करने लगी थी कि डेढ़ वर्षीय यश उठकर मम्मी… मम्मी कहकर रोने लगा, भावना जी ने उसे चुप कराया और दूध पिला दिया, तभी उदय टिफिन लेकर ऑफिस चला गया तो कामवाली बाई आ गई।

अरे!! तू आज जल्दी आ गई, थोड़ी देर रूक जा, मैंने अभी तक भी घर समेटा नहीं है, बच्चों ने सारा घर बिखरा दिया है, और वो जल्दी -जल्दी घर समेटने लगी।

मैमसाब ये तो आपका रोज का है, मुझे देर हो जाती है, एक यही घर नहीं है, और भी घर काम करने को जाती हूं, सब ऐसे ही करने लगेंगे तो शाम तक मै यही रहूंगी क्या? मेरे भी घर-बार बाल बच्चे हैं। कामवाली जल्दी मचा रही थी तो भावना जी ने भी जैसे घर था वैसे समेट दिया और वो झाड़ू-पोछा करके चली गई।

बिजली गिर गई  – गौतम जैन

 वो रसोई में गई तो बर्तन का ढेर देखकर उनका सिर चकरा रहा था, उन्होंने सारी बिखरी रसोई ठीक की और बर्तन धोने लगी, तभी यश रसोई में आकर बर्तन फैलाने लगता है, और गीले में फिसल जाता है, तो फिर से रोने लगता है, भावना जी घबरा जाती है और उसे गोदी में लेकर चुप कराती है, बहलाती है,तभी  अक्षिता का फोन आता है, आपने यश को दूध पिला दिया क्या?

और हां अगर पिला दिया तो उसे नहलाने से पहले उसकी अच्छे से मालिश कर देना, उसकी सारी स्किन रूखी हो रही है, और बिना कुछ सुने फोन रख दिया।

उन्होंने फटाफट से उसकी मालिश करी और खेलने के लिए छोड़ा, फिर सोचा खिचड़ी बना दूं पर कूकर साफ नहीं था, तो भगोनी में खिचड़ी चढ़ा दी, और यश को नहलाने लगी। डेढ़ वर्षीय यश थोड़ा सा चुलबुला भी था और थोडा शरारती भी, पानी लेकर उन पर ही डालने लगा, बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने पोते को नहलाया,

तभी अक्षिता का फिर से फोन आ गया, यश को खिचड़ी खिला दी क्या? उसके खाने का समय हो गया है।

अभी खिचड़ी बन रही है, मै बनते ही तुरंत खिलाती हूं, भावना जी ने जवाब दिया, तभी अक्षिता ने वीडियो कॉल कर दिया, और गैस पर भगोनी देखकर वो उन पर चिल्लाने लगी।

आप भी हद करती है, भगोनी में खिचड़ी चढ़ाई है, इसमें तो अच्छे से पकेगी भी नहीं और मेरा बच्चा भी भूखा रह जायेगा, आपने कूकर में क्यों नहीं चढ़ाई, अब तक तो 

बच्चे का खाना भी बन जाता, भावना जी क्या कहती अक्षिता लगातार बोले जा रही थी, फिर खुद ने ही फोन रख दिया शायद केबिन में कोई आ गया था।

भावना जी की आंखें भर आई, उन्होंने अपने आपको संभाला, तब तक खिचड़ी भी बन गई थी, उसे ठंडा करके यश को खिलाने लगी।

परिवार की दीप्ति – बालेश्वर गुप्ता

बच्चे इतनी आसानी से कहां कुछ खाते हैं, बच्चों को खाना खिलाना भी बड़ा मुश्किल है, एक जगह बैठकर तो बिल्कुल नहीं खाते, यश के पीछे दौड़-भाग करके वो थक गई थी, थोड़ी देर थककर बैठ गई, अब उन्हें भी भूख लगने लगी थी, रसोई में से नाश्ता लेकर खा लिया पर अभी बर्तनों का ढेर रखा था, बेटे -बहू इतना कमाते हैं फिर भी बर्तन वाली नहीं लगाते हैं, सिर्फ झाड़ू-पोछा वाली लगा रखी है, वो भी इसलिए कि उनका बेटा गंदे आंगन में खेले नहीं।

उम्र पैंसठ की ज्यादा नहीं थी पर बीमारी इंसान को समय से पहले ही बुड्ढा बना देती है, डायबिटीज  के कारण जल्दी थक जाती थी और बहुत जल्दी भावना जी को भूख लगती थी।  

उदय उनकी एकमात्र संतान थी, उसी  का पालन-पोषण

किया और उसे अपने पैरों पर खड़ा कर दिया, अभी दस साल पहले पति की मौत हुई थी, तब तक उदय नौकरी पर लग गया था। उनके जाने के बाद अक्षिता घर की बहू बनकर आई, पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा बहू को वो नहीं लाना चाहती थी पर बच्चे आजकल के सुनते कहां पर है, उदय को अक्षिता से ही शादी करनी थी।

उन्होंने समझाया भी था कि बेटा तू और बहू दोनों नौकरी पर चले जायेंगे तो मै घर में अकेली क्या करूंगी? पर उदय ने भी जवाब दिया, मम्मी बड़ा शहर है, भारी खर्चे है, पत्नी भी कमायेगी तो घर अच्छे से चलेगा, वरना एक की कमाई से पार नहीं पड़ता है, फिर मेरे सभी दोस्तों की पत्नियां कमाती है ऑफिस जाती है तो मै घरेलू लड़की अपने लिए नहीं लाऊंगा।

ऐसा नहीं था कि उदय की नौकरी अच्छी नहीं थी पर उसे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों में ये दिखाना था कि मेरी पत्नी मामूली सी गृहणी नहीं है, बल्कि वो भी अच्छी पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा है। उदय ने जिद की और अक्षिता से शादी कर ली।

वो सुनसान रात – कामिनी मिश्रा कनक

अभी तक भावना जी ही घर और रसोई संभाल रही थी, बहू के आने के बाद भी उन्हें सहारा नहीं मिला बल्कि उनका और काम बढ़ गया, बहू तो रसोई में पैर नहीं रखती थी, उनको ही दोनों का टिफिन बनाकर देना होता था, उन्होंने सोचा नई-नई बहू है, अभी समय लगेगा पर 

अक्षिता को खाना बनाना पसंद नहीं था और उसके पास समय भी नहीं था, ऑफिस आने-जाने में वो व्यस्त रहती थी।

भावना जी ने सोचा कोई बात नहीं बेटे के साथ बहू का भी वो बना लेगी, पर जब अक्षिता पहली बार गर्भवती हुई तब भी वो घर पर तो रहती थी, पर रसोई में पैर नहीं 

रखती थी, भावना जी ने तब भी एक अच्छी सास की तरह उसकी देखभाल की उसका बहुत ही ख्याल रखा।

अपनी पहली बेटी नियति के जन्म के कुछ  महीनों बाद अक्षिता फिर से काम पर जाने लगी, अपनी पोती को भावना जी बहुत प्यार करती थी, और उसका हर काम वो करती थी, तब घर में झाड़ू-पोछा, बर्तन वाली और खाना बनाने वाली भी आती थी, वो घर भी देख लेती थी और अपनी पोती के साथ भी खेलती थी। 

धीरे-धीरे उन्हें डायबिटीज हो गई और शरीर में थकावट सी रहने लगी वो घुटनों के दर्द से भी परेशान रहने लगी।

अब नियति नर्सरी में आ गई थी तो यश का जन्म हो गया, अब पहले जितनी उनमें जान नहीं थी।

अक्षिता दूसरा बच्चा नहीं करना चाहती थी क्योंकि उसका मानना था कि इस मंहगाई में एक बच्चा ही पालना भारी है तो दो बच्चे कैसे पलेंगे? लेकिन उदय का मन था कि नियति अकेली नहीं रहें, उसे अपना भाई-बहन कोई तो मिल जाएं। यश के जन्म के बाद 

उसने महंगाई का हवाला देकर खाना बनाने वाली हटवा दी।

मम्मी जी घर पर ही तो रहती है, तो ये ही खाना बना लिया करेगी, अब दो बच्चों का खर्चा बढ़ गया है तो कहीं पर तो कटौती करनी होगी।

शीर्षक-छुटकी का पत्र  – गीता वाधवानी

 यश अब बड़ा हो रहा था पर उदय और अक्षिता अपने ऑफिस के काम में ही व्यस्त रहते थे, इसलिए बच्चों पर जरा भी ध्यान नहीं देते थे, शनिवार और रविवार को छुट्टी मिलती थी तो मॉल में शॉपिंग और मूवी या दोस्तों के साथ पार्टी में जाया करते थे। भावना जी दोनों बच्चों को दिनभर संभालते हुए थक जाती थी,उस पर घर का काम और खाना भी था। भावना जी से अब ये सहन नहीं हो रहा था, पहले तो उन्होंने सोचा था बहू नई-नई है, कैसे घर संभालेंगी? फिर ये ख्याल किया कि बहू गर्भवती है तो उसका ध्यान रखना मेरा ही कर्तव्य है, फिर ये ख्याल किया कि बहू के पहला बच्चा है, उसे कहां बच्चे पालना आता होगा, फिर ये सोचकर कुछ नहीं कहा कि बहू अकेली दो बच्चों और ऑफिस को कैसे संभालेगी? पर अब पानी सिर के ऊपर से गुजर गया था,

अब उनसे सहन नहीं हो रहा था, बेटे उदय को भी बस या तो पैसा कमाना था या किसी भी तरह पैसा बचाना था, उसे भी अपनी मां की जरा भी परवाह नहीं थी, और मां पर वो दोनों खर्च भी नहीं करते थे, वो वहां दोनों वक्त का खाना खाती थी, पर वो भी चैन से नसीब नहीं होता था, पोते-पोती हर दादी को प्यारे होते हैं पर जब उसकी सारी जिम्मेदारी उन पर ही डाल दी जाएं तो वो प्यार भी बोझ सा लगने लगता है। 

एक रविवार दोनों बेटे -बहू जब उठे ही थे तो भावना जी ने कहा कि वो गांव में जाकर रहना चाहती है, अब यहां पर उनका मन नहीं लगता है, गांव की अच्छी हवा से शायद उनकी तबीयत ठीक रहने लगे।

ये सुनकर अक्षिता जवाब देती है, अरे! गांव में आपको रोटी कौन देगा? यहां तो चार वक्त का खाना आप मुफ्त में घर बैठे खाती है, आपको गांव में जाकर क्या मिलेगा?

ये मुफ्त की एसी की हवा और ये शानदार सोसायटी का रहन-सहन गांव में कहां मिलेगा? फिर नियति और यश को कौन संभालेगा? इन्हें तो आप ही चाहिए ।

ये सुनकर भावना जी का दिल भर आया, बहू मैं यहां मुफ़्त का नहीं खाती हूं, तीन समय बर्तन मांजती हूं, तीनों वक्त का नाश्ता खाना बनाती हूं, तुम्हारे दोनों बच्चों को संभालती हूं, इतना काम करने के लिए कोई दिन भर की मेड रखोगी तो तुम्हारे चौदह -पंद्रह हजार आराम से खर्च हो जायेंगे, तुम्हारे रूपये बचाती हूं, मैं तो मुफ्त में नहीं खाती पर तुम्हें तो मैं मुफ्त की नौकरानी मिल गई है, खाना खाती हूं पर वो तुम बोझ समझकर देती हो।

माँ मुझे गोद ले लो – संगीता अग्रवाल

तुम्हारे पति को पालने में बड़ा करने में मैंने लाखो खर्च किये है, तुम और तुम्हारा पति जीवन भर भी मुझे बैठाकर खिलाओंगे तो भी ये कर्ज नहीं उतार पाओगी, 

आज तुमने दो रोटी की कीमत गिना दी, तुम्हारे लिए मेरे प्यार, परवाह और इस घर के प्रति समर्पण की कीमत  बस यही दो रोटी है, मैंने तो तुम्हें अपना समझकर तुम्हारा ख्याल रखा पर तुमने तो अपनी सास को ही मुफ्तखोर बता दिया, मुझे तुम्हें अपनी बहू कहते हुए शर्म आ रही है।

जब अपना बेटा ही अपना ना रहा तो तुम तो फिर भी पराये घर से आई हो, इसे भी अपनी मां की तकलीफ़ परेशानी नजर नहीं आती है बस पैसे कमाने की धुन है, कभी उदय ने आकर पूछा कि मां तुम कैसी हो?

मां तुम्हें कोई तकलीफ़ तो नहीं है, अस्तपताल भी मै अपनी सहेली के साथ जाती हूं और खुद की दवाई भी मै खुद तेरे पापा के पेंशन के रूपयों से लाती हूं, मैंने अपने बेटे के लिए बहू और दोनों बच्चों के लिए बहुत किया है पर अब और नहीं कर सकती, तुम तुम्हारे बच्चे और घर संभालो, वैसे तो घर मेरे पति और मेरा बसाया हुआ है पर एक मां होकर अपने बच्चों को बेघर नहीं कर सकती हूं, इस घर में तुम्हें बहू बनाकर लाई थी तो तुम्हें कैसे घर से जाने को कह दूं, तुम दोनों को तो शर्म नहीं है पर मेरी आंखों में अभी शर्म का पानी बचा हुआ है, बस मुझे अब इस घर से जाना है, इस उम्र में बीमारी संभालूं? रसोई संभालूं? या घर संभालूं? छोटे बच्चे संभालूं?

 अक्षिता, मै इस घर की मालकिन हूं तुम्हारे बच्चो की आया नहीं हूं, अपने बच्चे खुद संभालो या एक मेड रख लो, मुझसे तो ये सब संभाला नहीं जाता है, रही बात खर्चे कि तो मै तुम दोनों से एक रूपया भी नहीं मांगूंगी क्योंकि इसके लिए मेरे पति की पेंशन ही काफी है, और मै उन पैसों से सम्मान की दो रोटी खा सकती हूं।

बहू, तुम जब भी ऑफिस जाती थी, यश के खाने-पीने के लिए दस बार फोन कर देती थी, कभी मुझसे भी पूछती थी कि मम्मी जी आपने खाना खाया या नहीं?

समय पर दवाई ली या नहीं? क्या तुम्हारा कोई फर्ज नहीं बनता है, जिस मां ने तुम्हारे पति को बड़ा किया, जो तुम्हारे बच्चो को पाल रही है तो उसके प्रति तुम्हारा कोई फर्ज नहीं बनता है? 

उदय और अक्षिता दोनों बेटे -बहू की नजर शर्म से झुक गई, वो कुछ कहने के लायक नहीं रहे थे। भावना जी की भावनाओं को उन्होंने कभी समझा नहीं, अब दोनों क्या कहते, उनकी बोलती बंद हो गई।

अब इतने सालों से भावना जी ही घर संभाल रही थी तो उन्हें घर और बच्चों की आदतों के बारे में बिल्कुल भी पता नहीं था। 

“बहु वचन” – रमेश चंद्र शर्मा

दोनों बेटे बहू की आंखें खुल गईं, आज उन्हें रह रहकर अपनी गलतियां याद आ रही थी।

तभी उदय बोलता है, मम्मी मुझे माफ कर दो, कमाने और पैसे बचाने के चक्कर में मै अपनी ही मां के दर्द और तकलीफ को भुल गया था, पर अब ऐसा नहीं होगा, अब मै आपका पूरा ध्यान रखूंगा, अब मै आपको कभी भी शिकायत का मौका नहीं दूंगा, आप घर छोड़कर मत जाइयें, मुझे और अक्षिता को तो घर के बारे में और बच्चों की आदतों के बारे में कुछ पता ही नहीं है।

तभी अक्षिता भी माफी मांगती है, मम्मी जी मुझे भी माफ करदो, आपने मां बनकर हम सबका ध्यान रखा और मैंने आपको कभी सास समझकर आपका आदर सम्मान नहीं किया। आप चली जायेंगी तो दोनों बच्चे कैसे रहेंगे, इन्हें आपकी आदत हो चुकी है।

भावना जी पिघल जाती है और वहीं रूक जाती है, अगले दिन से बर्तन वाली और खाना बनाने वाली रख दी जाती है पर दोनों बच्चों की जिम्मेदारी अभी भी भावना जी खुद ही लेती है, क्योंकि मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता है, संतान की संतान से कभी मोह नहीं छूटता है।

पाठकों, कुछ लोग बुजुर्गों को साथ तो रखते हैं पर उन्हें नौकर बना लेते हैं और उनका ख्याल नहीं रखते, अपनी संतान को पालने और बड़ा करने में ही माता-पिता थककर चूर हो जाते हैं, बुढ़ापे में फिर से उन पर वो ही जिम्मेदारी दी जाएं तो उस उम्र में वो कैसे निभा पायेंगे।

दो रोटी के लिए बच्चे गिना देते हैं, बुजुर्गों को सम्मान से दो सूखी रोटी भी दोगे तो वो बहुत आशीर्वाद देंगे, लेकिन उन्हें बोझ समझकर पकवान भी खिलाओगे तो उन्हें बुरा लगेगा।

हर संतान का कर्तव्य है कि जैसे वो अपने बच्चों का ध्यान रखते हैं वैसे ही अपने माता-पिता का भी ध्यान रखें।

धन्यवाद

लेखिका

अर्चना खंडेलवाल

मौलिक रचना सर्वाधिकार सुरक्षित

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