शीर्षक-छुटकी का पत्र  – गीता वाधवानी

एक सेठ थे नाम माणिक चंद। कई कारखाने, कई बंगले, बड़ी-बड़ी गाड़ियां गाड़ियों में अलग-अलग ड्राइवर, नौकर चाकर और भरा -पूरा परिवार सब कुछ था उनके पास, सिर्फ एक चीज की कमी थी वह था चैन। ना जाने क्यों उनका मन सदा बेचैन रहता था, मन में बिल्कुल शांति नहीं थी। 

उन्हें खुद पता नहीं था कि ऐसा क्यों है? कई बार पैदल ही दूर दूर निकल जाते थे। अलग-अलग मंदिरों में दर्शन कर आते थे

। कई बार अपने दोस्तों से मिलने निकल पड़ते थे पर कहीं भी उनके मन को चैन नहीं मिलता था। 

दूसरी तरफ एक गरीबों की बस्ती। उस बस्ती में छुटकी का परिवार। उसके पिता रिक्शा चलाते थे और मां किसी कोठी में झाड़ू पोछा करती थी। छुटकी के दो छोटे और भाई-बहन भी थे। और ना जाने क्यों और कैसे बड़ी का नाम छुटकी पड़ गया था। छुटकी आठ नौ साल की थी। स्वभाव से बहुत सीधी और भोली भाली थी। घर के कामों में मां का हाथ बंटाती थी, मां के काम पर जाने के समय भाई-बहन की देखभाल भी करती थी। पैसों की कमी होने के कारण चौथी कक्षा तक ही पढ़ पाई थी। 

छुटकी के पिता बहुत बीमार हो गए थे। पिछले 1 महीने से ना तो उनका बुखार उतर रहा था और ना ही वह रिक्शा चलाने जा रहे थे। कहते हैं कि ईश्वर भी कभी-कभी अपने प्रिय जनों की परीक्षा लेता है तो छुटकी की मां का काम भी अचानक छूट गया क्योंकि उसने अपने पति की देखभाल के लिए कुछ छुट्टियां ज्यादा ले ली थी। 

इलाज के लिए पैसे नहीं थे। घर में राशन खत्म होने वाला था। छुटकी की मां और पिता चिंता में घुले जा रहे थे कि बच्चों को क्या खिलाएंगे? दोनों आपस में बात कर रहे थे और बच्चे सुन रहे थे। 




छुटकी की मां-“राशन खत्म होने को है और आप का इलाज भी ठीक से नहीं हो पा रहा, ऊपर से मेरा काम भी छूट गया, ना जाने भगवान क्या चाहता है, क्या उसे छोटे-छोटे बच्चों पर भी दया नहीं आती? कभी-कभी तो मन करता है कि पूजा करना ही छोड़ दूं। हमें तो दुनिया में भेजकर ईश्वर मानो हमें भूल ही गया है। 

कैसे जिएंगे, कुछ समझ नहीं आ रहा।” 

छुटकी के पिता-“छुटकी की मां, क्यों चिंता कर रही हो। भगवान सच्चे मन से की गई प्रार्थना जरूर सुनते हैं। सच्चे मन से प्रार्थना करने पर हमारा संदेश उन तक पहुंच जाता है।” 

मां-“कब सुनेंगे, क्या हमारे भूख से मर जाने के बाद।”  

सब बातें सुनकर छुटकी को लगा कि भगवान को संदेश भेजना बहुत जरूरी है। शायद उन तक हमारा संदेश पहुंच नहीं रहा है। उसने अपनी सहेली से कागज- कलम लिया और पत्र लिखा। 

पत्र लिखने के बाद वह सोच में पड़ गई कि पता क्या लिखूं? 

उसने मां से पूछा-“मां अपनी चिंता और परेशानी में थी, उसने छुटकी को डांट कर चुप करवा दिया। 

तभी उसे याद आया कि भगवान जी तो मंदिर में रहते हैं। वो खुश हो गई और मंदिर पहुंचकर पंडित जी से बोली-“पंडित जी, नमस्ते, भगवान जी यहीं पर रहते हैं ना।” 

पंडित जी-“हां बिटिया, पर तुम्हें क्या काम पड़ गया भगवान जी से?” 

छुटकी-“उनको चिट्ठी देनी है।” 

पंडित जी उसके भोलेपन पर हंस पड़े और बोले जाओ अंदर उनके चरणों में रख दो, वह स्वयं ही पढ़ लेंगे।” 

छुटकी पत्र रख कर चली गई। दूसरे दिन सेठ माणिकचद मंदिर आए, माथा टेका और उत्सुकता वश वह पत्र उठा लिया और पढ़ने लगे। 

पत्र में लिखा था-“भगवान जी, प्रणाम, मां कहती है कि आप हमें भूल गए हो, हमारी प्रार्थना भी नहीं सुनते। हमारा कोई संदेश आप तक नहीं पहुंचता। भगवान जी मेरे पिताजी बहुत बीमार है। रिक्शा भी चला नहीं पाते हैं। मां के पास भी कोई काम नहीं है। छोटे भाई बहन भूखे हैं। भगवान जी, मेरा पत्र मिले तो हमारी मदद कर देना। पिताजी जब रिक्शा चलाने लगेंगे ,तब हम आपको आपके पैसे लौटा देंगे। छुटकी। ” 




सेठ जी को पत्र पढ़कर पहले तो हंसी आ गई और फिर गंभीर होकर पंडित जी से पूछा-“यह पत्र वाली छुटकी कहां रहती है?” 

पंडित जी ने कहा-“पक्का तो पता नहीं पर शायद बस्ती में रहती है। अपने पत्र का उत्तर पाने की आशा में वह जरूर आएगी।” 

सेठ जी वहां थोड़ी देर रुके और सचमुच छुटकी आ गई। 

सेठ जी ने उससे कहा-“तुम ही छुटकी हो

, मुझे भगवान जी ने भेजा है, मुझे अपने घर ले चलो।” 

छुटकी खुश हो गई और फिर छुटकी आगे आगे और सेठ जी पीछे पीछे। 

उनके घर का हाल देखकर सेठ जी की आंखें भर आई। उन्होंने उसके पिता को अस्पताल भेजा। घर में अनाज भरवाया। बच्चों को कपड़े दिलवाए। छुटकी के माता-पिता गरीब जरूर थे लेकिन स्वाभिमानी थे। वे सेठ जी का एहसान लेना नहीं चाह रहे थे इसीलिए सेठ जी ने कहा कि उधार समझकर रख लो, जब तुम कमाओगे तब वापस दे देना। छुटकी की मां को अपने घर में काम दे दिया। यह सोच कर कि इनका आत्म सम्मान बना रहे। 

छुटकी के परिवार को खुशियां मिल गई थी और सेठ जी के मन को असीम शांति। उन्हें मन का चैन पाने का असली सूत्र मिल गया था कि जरूरतमंदों की सहायता करनी चाहिए। रात को उन्हें बहुत बढ़िया और गहरी नींद आई जो कि उन्होंने ना जाने कब खो दी थी। 

स्वरचित, अप्रकाशित 

गीता वाधवानी दिल्ली

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